Book Title: Abu Jain Mandiro ke Nirmata
Author(s): Lalitvijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 38
________________ .२० "कम लोन्मूलन हेतोर्नतव्यः किं सुरेन्द्रगजः ?" मैं मानता कि अगर त्रिकटु मात्रसे रोगोपशान्ति होजाती हो तो धन्यन्तरीको क्यों बुलाना, मृगारिवाल से ही हरिण भागते हों तो वनराज केशरीकों क्यों उठाना ? | हूँ hco इस आक्षेपकों सुनकर सिन्धुराजके क्रोध और मानकी सीमा न रही, वह दान्तोंके नीचे होठोंको चबाता हुआ सिरपर शमशेरको घुमाता हुआ भबूकता हुआ बोला - विमल ! अगर ऐसा है तो आजा सामने । आज तेरे इस अपस्मारको दूर करनेके लिये यह मेरी तीक्ष्ण तलवार ही महौषध है । विमल ने कहा- अरे क्षणमात्र के सिन्धनायक ! ज्यादा बोलने से क्या फायदा है ? अगर कुछ शक्ति है तो अवसर आया है हुश्यार होकर शस्त्र पकड़ लो, बाकी तो "नीचो वदति न कुरुते" यह कहावत इसवक्त तुमारेमेही सत्य मालूम दे रही है । बस अपने आपको नीच शब्द से पुकारा जाता हुआ देखकर सिन्धुपति आगकी तरह लाल होगया और खंजर उठाकर कुमारके सामने दौड आया । कुमारने एक बाण मारकर शत्रुके मुकुटको उडा दिया और दूसरेसे हाथीका मुंह मोडदिया | फौरन ही आप उछल कर राजाके हाथीपर जा चढा और बडी चतुराईके साथ शत्रुकी मुकें बांधकर उसे हाथीसे नीचे गिरादिया । पार्श्ववर्त्ति सेवकोने हाथोहाथ उठाकर राजाको अपने लश्कर मे पहुंचाया और गुर्जरपतिकी आज्ञासे उसको काष्ठके पिंजरेमे डाल दिया । गुर्जरपति आनन्द मनाते हुए गुजरात चले आये । प्रजागणने बडे समारोहसे सन्मान दिया ।

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