Book Title: Abu Jain Mandiro ke Nirmata
Author(s): Lalitvijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 37
________________ १९ कभी पक्षी और कभी प्रतिपक्षीकी हारजीतके निशान फरकने लगे, आखीर सिन्धपति के दक्षवीरोंने गौर्जरोंपर अपनी छाया डालनी शुरू की । भीमदेवके सैनिक भागने लगे । ऐसी हालतको देख भीमदेव के चेहरेपर उदासीका प्रभाव पडना स्वाभाविक ही था । राजाने " विमल" सेनापतिकी तर्फ देखा, बस कहना ही क्या था ? विमलकुमारने अपनी विमलमति से अपने स्वामीकी विशद कीर्त्तिको दिगन्तगामिनी करनेके लिये खडे होकर महाराजको प्रणाम किया और अर्जुनके धनुप जैसे अपने धनुपको उठाया । विमलकुमारके धनुपटङ्कारको सुनते ही शत्रुओंका मद क्षीण होकर गौर्जर सैनिकोंका बल असंख्य गुना बढगया । सेनापति अपने अश्वरत्नपर सवार हो अपने कृतज्ञ सेवकोंको साथ लेकर मैदान में आया । सिन्धुपतिभी अपने अखर्व अहंकार में न समाता हुआ अपने ऐरावत जैसे पट्टहाथीको घुमाता हुआ मैदानमें आ पहुंचा । विमलकुमारकों अश्वारूढ सामने आये देखकर सिन्धुपतिने अभिमानमें आकर कहा- अरे बाल ! क्यों कुमौतसे मरता है ? संग्राम करना यह तुमारा वनियोंका काम नहीं, अफसोस है कि अभी कभी "भीमदेव " अपने पद्मिनीव्रतको लेकर तंबुमें ही छिपा बैठा है !! | विमलकुमारने कहा, सिन्धुराज ! मेरे स्वामी भीमदेवने पद्मिनीत्रत नहीं लिया किन्तु पुरुषोत्तम प्रतिज्ञा ले रखी है, वह अपने समानके क्षत्रियोंसे ही युद्ध करनेमें खुशी हैं।

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