Book Title: Abu Jain Mandiro ke Nirmata
Author(s): Lalitvijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 33
________________ प्रकृति और प्राण मनुष्यके सदा सहचारी होतेहैं, प्राण जावें तो प्रकृति वदले यह कहावत झूठी नहीं है। दामोदर महता, वल्लभराज और दुर्लभराजके प्रधान मंत्रीथे, उन्हे अपनी बुद्धिका राजतंत्र कौशल्यका पूरा मान था, वोह एक बडे भारी शल्यसें दुःखी रहाकरतेथे, परन्तु उनके उस शल्यकी दवाई कुछ नहींथी, जैनधर्मका उदय उनकों अतीव खटका करताथा। ___वीरमंत्रीके दीक्षा लेजानेसें कुछ अरसा वोह शान्त रहेथे परन्तु वीरके पुत्रको अपने पिताके पदपर प्रतिष्ठित और पितासेंभी अधिक सन्मानपात्र देखकर वोह अंदरसें जला करतेथे । महाराज भीमदेवकी माता लक्ष्मीदेवी और लक्ष्मीका भाई संग्रामसिंह जैनधर्मके पूरे सेवकथे, संग्रामसिंहके बडेभाईने और संग्रामसिंहके लडके सूरपालने जैनाचार्योंके पास दीक्षा लीहुइथी। ॥ प्रासंगिक ॥ संग्रामसिंहके वडेभाईका नाम द्रोणाचार्य और सूरपालका नाम सूराचार्य रखागयाथा, यह दोनों मुनिराज आचार्यपद प्रतिष्ठित और महाविद्वान् बुद्धिशाली समयके जानकारथे,भीमदेव उनको बडे सन्मानकी दृष्टि से देखा करतेथे, भीमदेवको जैनधर्मपर प्रीति रखनेका एक महान् कारण यहभी था कि वो वाल्यावस्थामें जैनाचार्य जिनेश्वरसूरिजीसे पढे हुएथे, इनकारणोंको लेकर दामोदरका मन शोकातुर रहा करताथा । भीमदेवके पूर्वजोंने आजतक इनका मान रखाथा, येह आद

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