Book Title: Abu Jain Mandiro ke Nirmata
Author(s): Lalitvijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 20
________________ पाटणकी गादीपर बैठतेथे वोह सर्व जैनधर्मका पूरा मान रखते थे । वनराजके राज्यारोहण समय चांपा शेठकों पूर्वकी प्रतिज्ञा के अनुसार मंत्रीपद दिया गया था, और वह चांपा शेठ चुस्त जैनधर्मी थे, इसलिये उनकी औलादमें जो जो मंत्री होते गये वोह सव जैनधर्मके पक्के उपासक होते गये। जैसे वनराज 'श्रीशीलररिजीको अपने निकट और प्रकट उपकारी समझकर उनसे योग्य वर्ताव करते थे, ऐसे वनराजके पीछे सिंहासनारूढ हुए २ योगराज-क्षेमराज-भूवड़राज-वैरिसिंह-रत्नादित्यसामन्तसिंह, इन ६ छही राजाओं ने भी जैनमुनियों की आज्ञाओंका अच्छीतरह से पालन किया था। (१९६) वर्षके बाद जब पाटणकी सत्ता चौलुक्य (सोलंकी) लोगोंको मिली तब प्रस्तुत वंशके राजा-वृद्धमूलदेव-चामुंडराज-वल्लभराज-दुर्लभराज-भीमदेव-भी जैनधर्मकी जैनचैत्योंकी और साधुओं की वैसीही तनमनसें उपासना करते रहे। (२) दूसरा कारण यहभी था कि वनराज चावडासें लेकर जैनविद्वान् मुनि राजसभाओंमें निरन्तर पधार कर राजा और राज्यकर्मचारियोंको धर्मपरायण किया करते थे। (३) तीसरा-मंत्री सामन्त नगरशेठ वगैरह सब राज्यकार्यवाहक प्रायः जैनधर्मानुयायी होते थे, वह अपनी नि:स्वार्थ और निष्कपट भक्तिसें राजाओंको अपने आधीन रखा करते थे। वीरमंत्री भी एक धर्मात्मा , नीतिविचक्षण और पापभीरु राज्यहितचिन्तक एवं लोकप्रिय व्यक्ति थे, इस लिये इनपर

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