Book Title: Aagam 41 2 PIND NIRYUKTI Moolam evam Vrutti
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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आगम
(४१/२)
प्रत
गाथांक
नि/भा/प्र
||४६५||
दीप
अनुक्रम
[५०५ ]
मूलं [५०५ ]
•
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित
पिण्डनिर्यु - तेर्मलयगि
यावृत्तिः
“पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) भाष्यं [ ३४...] + प्रक्षेपं [५...]"
"निर्युक्ति: [ ४६७] +
आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः
॥१३६॥
ओहासिय पडिसिद्धो भणइ अगारिं अवस्सिमा मज्झं । जइ लहसि तो तं मे नासाए कुणसु मोयंति [सा आह ] ॥ ४६८ ॥ करस घर पुच्छिऊणं परिसाए अमुउ कइरो पुच्छितु । किं तेणऽम्हे जायसु सो किविगो दाहिइ न तुज्झ ॥ ४६९ ॥ दाहित्ति तेण भणिए जइ न भवसि छण्हमेसि पुरिसाणं । अन्नयरो तो तेऽहं परिसामज्झमि पणयामि ||४७० ॥ सेयंगुलि बगुडावे, किंकरे हायए तहा । गिद्धावरंखि हद्दन्नए य पुरिसाहमा छाउ || ४७१ ॥ जायसु न एरिसोऽहं इट्टगा देहि पुण्त्रमइगंतुं । माला उचारि गुलं भोएमि दिएति आरूढा ॥ ४७२ ॥ सिइअवणण पडिलाभण दिस्तियरी बोलमंगुली नासं । दुण्हेगयरपओसो आयत्रिवत्ती य उड्डाहो || ४७३ ॥
व्याख्या - मुगमं, नवरं 'इट्टगणंमि सेवकिकाक्षणे 'पगेवे 'ति प्रभाते एव 'मोयं 'ति मूत्रणं 'प्रणयामि' इति याचे, 'सिइअवणण 'त्ति निःश्रेण्यपनयनं इत्थम्भूतश्च मानपिण्डो न ग्राह्यः यतो द्वयोरपि दम्पत्योः प्रद्वेषो भवति, ततस्तद्रव्यान्यद्रव्यव्यवच्छेदः, कदाचिदेकतरस्य ततस्तत्रापि स एव दोषः । अपि च-सैवमपमानिता कदाचिदभिमानवशादात्मविपत्तिं कुर्यात्, तत उड्डाहः प्रववनमालिन्यं ॥ उक्तो मानपिण्डदृष्टान्तः सम्प्रति मायापिण्डदृष्टान्तमाह
रायगिहे धम्मरुई असाड भूई य खुड्डुओ तस्स । रायनडगेहपविसण संभोइय मोयए लंभो ॥ ४७४ ॥ आयरियउवज्झाए संघाडगकाणखुज्जतदोसी । नडपासणपज्जत्तं निकायण दिणे दिणे दाणं ॥ ४७५ ॥
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~275~
०
उत्पादना
यां दोषे मायायामाचा
ढभूतिः
॥१३६॥
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