Book Title: Aagam 40 Aavashyak Malaygiri Vrutti Mool Sootra 1 Part 03
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

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Page 228
________________ आगम (४०) "आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-३ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [७८२-७८३], वि०भा०गाथा [२३४१-२३४२], भाष्यं [१२९], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक दीप अनुक्रम श्रीआव-131 अस्याः प्रपश्चार्थ उक्त एव, अक्षरगमनिका वेवम्-ऋषभपुरमिति वा राजगृहमिति वा एकार्थ, तत्र राजगृहे नगरे गुण- अव्यक्तमअयक मल-ताशिलके उद्याने वसुर्नाम चतुर्दशपूर्वी आचार्यः समवसृतः, तस्य शिष्यात् तिष्यगुप्तादेषा दृष्टिरुत्पन्नेति वाक्यशेषः, सच.. तखण्डन पातिष्यगुप्त आमलकल्पा नाम या नगरी तां गतः, तत्र मित्रश्रीः श्रावकः, तेन कूरपिउडादिना देशीवचनमेतत् करसि-11 क्यादिना प्रतिलाभनेन प्रतिबोधितः॥ गतो द्वितीयो निन्हवः, सम्प्रति तृतीयप्रतिपादनार्थमाह है चउदस दो वाससया तइया सिद्धिं गयस्स वीरस्स। अवत्तगाण दिट्टी सेअधिआए समुप्पन्ना ॥१२९॥ (भा.) ॥४०॥ सिद्धिं गतस्य वीरस्य यदा द्वे वर्षशते चतुर्दशाधिके समतिकान्ते तदा अव्यक्तकानां दृष्टिः श्वेताम्बिकायां नगया। समुत्पन्ना ॥ सेयवियाए पोलासे उजाणे अज्जासाढा नामायरिया समोसढा, तेसि बढे आगाढजोगपडिवनगा अग्झाहै यति, स एवायरितो तेसिं वाणायरिओ, अण्णो तत्थ नत्थि, ते य आयरिया रत्तिं हिययसूलेण मया सोहम्मे कप्पे नलिणिगुम्मे विमाणे देवत्ताए उववण्णा, ओहिं पांजंति, जाव पेच्छंति सरीरगं, ते य साहू आगाढजोगपडिवण्णगा, ते न जाणंति जहा आयरिया कालगया, ताहे तं चेव सरीरगं देवो अणुपविट्ठो, पच्छा उद्ववेइ-वेरत्तिय करेह, एवं तेण तेसिं दिषप्पभावेण लहुं चेव समाणिय, पच्छा निप्फन्ने सुते भणइ-खमह भंते ! जं तुब्भे मए असंजएण बंदाविया, अहं अमुगदिवसे कालगतो, एवं सो खामेचा पडिगतो, तेवि तं सरीरगं छड्डेऊण चितेति-एचिरं कालं असंजतो वंदितो,51४.६॥ ततो ते अधत्तगभावं भावेति-को जाणइ किं साहू देवो वा!, तो न बंदिजन्ति, अन्नहा असंजयनमणं होज्जा, मुसावातोवा, जहा एस अमुगोत्ति, एवमव्यक्तभावं प्रतिपद्यमानास्ते स्थविररूचिरे-ननु यदि परस्मिन् सर्वत्र भवतां सन्देहस्तहि Janne ... अथ तृतीय-आदि निहनवा: वर्णयन्ते ~228

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