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आधुनिकता और राष्ट्रीयता
तुलना में अपने युग का आधुनिक कवि कहना पडेगा। कबीर का समसामयिक बोध तुलसी की अपेक्षा अधिक जाग्रत एवं प्रत्यक्ष है। कबीरदास अपने युग पर जितनी सीधी और स्पष्ट बात जितनी निर्भिकता के साथ कहते हैं, उतने तुलसीदासजी नहीं कहते। यहाँ तुलसीदास का अवमूल्यन करने का उद्देश्य नहीं है। उनका अपना और महत्त्व है। यहाँ बात आधुनिकता के संदर्भ में की जा रही है। इसी दृष्टि से प्रेमचन्द एवं प्रसाद की तुलना करें तो इन दोनों में प्रेमचन्दजी ही अधिक आधुनिक सिद्ध होंगे। जो भी साहित्यकार आधुनिकता की ओर उन्मुख होता है। उसे अपने युग से जूझना पडता है। कबीर ने तलसी की तलना में और प्रेमचन्द ने प्रसाद की तलना में अधिक संघर्ष किया है। अतीतोन्मख होकर जीना इन महापरुषों को पसन्द नहीं था। तात्पर्य यह है कि आधनिकता की विवति में समसामयिक घटनाओं के प्रति समसामयिक बोध अपने पूरे अंतर्द्वन्द्वों के साथ व्यक्त होता है। इस दिशा में साहस के साथ कदम उठाना पडता है। यह कार्य व्यक्ति से साहस को मांग करता है। इस दृष्टि से फ्रान्स का इतिहास देखें। वॉल्टेयर का नाम इस दृष्टि से फ्रान्स के साहित्य में ( इतिहास में भी) अमर है। विक्टर ह्यूगो का कहना था-"वॉल्टेयर का नाम ही लेने का अर्थ है पूरी अठारहवीं शताब्दी का वर्णन करना।"१ विलडरेंट ने लिखा है-“सम्राट लुई सोलहवें की (जो फ्रांसीसी क्रान्ति के बाद कैद कर लिए गए थे) जेल में एक दिन वॉल्टेयर और रूसो की किताबों पर नजर पड़ी तो उन्होंने कहा,-'इन दो आदमियों ने ही फ्रान्स को चौपट किया है। -फ्रांस से उनका मतलब उनके अपने शासन से था। नेपोलियन ने कहा था-' उन दिनों के राजे महाराजे अगर किताबों पर प्रतिबन्ध लगा देते तो उनका राज्य कुछ दिन और चल जाता। तोप आ जाने से सामन्तशाही समाप्त हई किन्तु लेखनी सामाजिक संगठन को ही समाप्त कर देगी।' वॉल्टेयर का कहना था, 'किताबे संसार पर शासन करती है,अथवा कम से कम विश्व के उन राष्ट्रों पर शासन अवश्य करती हैं, जहाँ भाषा को लिपिबद्ध किया जाता है। शासन के लिए अन्य बातों का विशेष महत्त्व नहीं होता।' उसने आगे कहा कि * शिक्षा के समान स्वतंत्रता प्रदान करनेवाली अन्य कोई वस्तु नहीं है।' जब एक बार किसी राष्ट्र की विचार-शक्ति जाग उठती है तो उसे रोकना असंभव हो जाता है । वॉल्टेयर के साथ ही फ्रान्स की विचार-शक्ति जागृत हुई थी।" २
१. दर्शन की कहानी-विलडूरेट-(अनुवादकः कैलाशनारायण चौधरी), पृ. २०१ २. -वही-पृ. २०३.