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आधुनिकता और राष्ट्रीयता भारत में राष्ट्रीय भावना का स्वरूप प्रायः पुराना ही रहा। बाहर से होने वाले आक्रमणों के फलस्वरूप जो प्रतिक्रिया हुई वह सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में ही हुई । इस प्रतिक्रिया का उद्देश्य केवल राष्ट्रीय भावना की सुरक्षा मात्र था। जब सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक प्रतिक्रिया से बाह्य शक्ति को हटाना कठिन हो गया तब फिर देश को राजनीति की ओर ध्यान देने की आवश्यकता भी हुई। इस्लाम की गद्दी दिल्ली में दृढ़ता के साथ स्थापित हो गई थी। यद्यपि ये पहले राजनैतिक रूप से स्थापित हुई थी और जिसमें यहाँ की जनता ने विशेष आपत्ति नहीं मानी थी तथापि कालान्तर में इस गद्दी पर विराजने वाले कुछ बादशाह ऐसे भी हुए जिन्होंने यहाँ की राष्ट्रीय भावना के मूलभूत तत्त्वों को हानि पहुँचाने की कोशिश की। अल्लाउद्दीन खिलजी इसी प्रकार का बादशाह था। बाद में औरंगजेब केसमय में ये स्थिति चरमावस्था पर पहूँच गई। एसी स्थिति में सामाजिक और धार्मिक प्रतिक्रिया राजनैतिक शक्ति के अभाव में कुछ नहीं कर सकती थी। अत: इस समय में राष्ट्रीय स्तर पर राजनैतिक प्रतिक्रिया का होना युग को आवश्यक मांग या पुकार थी। इस प्रकार को प्रतिक्रिया मध्यकाल के इतिहास में सर्वप्रथम महाराष्ट्र में हुई और इसके नेता छत्रपति शिवाजी थे। इस प्रतिक्रिया में योग देने वाले बुन्देले, जाट, राजपूत, सिक्ख आदि भी प्रत्यक्षअप्रत्यक्ष रूप से सम्मिलित थे।
डाक्टर सावित्री सिन्हा ने लिखा है-- " इस समय मध्यकालीन राजनैतिक व्यवस्था का आधार था व्यक्तिवादी निरंकुश राजतत्र । इस प्रकार की व्यवस्था में शासक ही राष्ट्र के भाग्य का विधाता, युगचेतना का नियामक तथा कुछ सीमा तक एक विशिष्ट जीवन-दर्शन का प्रतिपादक भी होता है। उसके सार्वभौम व्यक्तित्व में समस्त अधिकार केन्द्रित रहते हैं। जब शासक विजातीय हो तो इस वैयक्तिक तत्त्व की निरंकुशता और भी बढ़ जाती है। उसको दृष्टि यदि समन्वयवादी न हुई तो शासक तथा शासित का सम्बन्ध केवल शोषक और शोषित का ही रह जाता है " १ वास्तव में औरंगजेब का यही हाल था । व्यक्तिवादी राजतंत्र पर भारत की जनता का विश्वास था ही साथही दिल्ली का बादशाह ईश्वर के रूप में भी पूजा जाता था। वही भारत का सम्राट भी कहलता था। जनता की इस भावना की अभिव्यक्ति पंडितराज जगन्नाथ द्वारा हुई है। उन्होंने अपनी पुस्तक भामिनी
१. हिन्दी साहित्य का बृहत् इतिहास, भाग ६, रीतिबद्ध काव्य सं. डाक्टर
नगेंद्र, पृ. १