Book Title: Aadhunikta aur Rashtriyata
Author(s): Rajmal Bora
Publisher: Namita Prakashan Aurangabad

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Page 91
________________ समस्याएँ १०१ तत्काल तृप्ति की मांग करते है और समाधान न मिलने पर उग्र रूप धारण कर लेते हैं । भावावेग को नियंत्रण में लाने के लिए किसी दूसरे भावावेग की ही आवश्यकता होती है । भावावेग विकल्पों में नहीं, संकल्पों में समस्या का समाधान चाहते हैं । अतः स्थिति पर नियंत्रण पाने के लिए विवेक से काम करते हुए भी आवेगों को सकारात्मक या निर्माणात्मक दिशा में मोड़ देने की आवश्यकता है । राष्ट्रीयता का आधार कहने के लिए राजनैतिक भले ही हो ( वह है ) किन्तु भावात्मक रूप में परम्परा से यह आधार सांस्कृतिक रहा है । राष्ट्रीयता का वह आधार आज भी उसी रूप में दृढ़ है। अब तो हमारा राष्ट्र धर्म-निरपेक्ष है । हमें इतिहास से सीख लेकर आज हमारे सांस्कृतिक जीवन का ऐसा चित्र फिर खड़ा करना है जो हमें जातीयता, प्रान्तीयता, साम्प्रदायिकता आदि से ऊपर उठा कर भारतीयता का बोध करा सके । पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है--" भारत के समग्र इतिहास में हम दो परस्पर-विरोधी और प्रतिद्वन्द्वी शक्तियों से काम करते देखते हैं । एक तो वह शक्ति है, जो बाहरी उपकरणों को पचाकर समन्वय और सामंजस्य पैदा करने की कोशिश करती है और दूसरी वह जो विभाजन को प्रोत्साहन देती है; जो एक बात को दूसरे से अलग करने की प्रवृत्ति को बढ़ाती है। इसी समस्या का एक भिन्न प्रसंग में हम आज भी मुकाबला कर रहे हैं। आज भी कितनी ही बलिष्ठ शक्तियाँ हैं । जो केवल राजनैतिक ही नहीं, साँस्कृतिक एकता के लिए भी प्रयास कर रही हैं। लेकिन ऐसी शक्तियाँ भी हैं जो जीवन में विच्छेद डालती हैं, जो मनुष्य मनुष्य के बीच भेद-भाव को बढ़ावा देती हैं ।" " निश्चय ही हमें पहली प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देना है और दूसरी को कुचलना है । W ' निज भाषा उन्नति अहे, सब उन्नति को मूल ' इस ओर ध्यान देने की आज परम आवश्यकता है, स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व निजी भाषाओं की उन्नति का कार्य राष्ट्रीय कार्य कहलाता था, किन्तु स्वतन्त्रता मिल जाने के बाद इस प्रवृत्ति का ह्रास हुआ है । राष्ट्रीय धरातल पर देश भर में एक भाषा होने की आवश्यकता का अनुभव तो सभी करते हैं किन्तु संवैधानिक स्वीकृति के बावजूद भी अधिकारी वर्ग अभी इस दिशा में ठोस कार्य करने में कतरा रहा है । समस्या को टालने वाली प्रवृत्ति अधिक दिखाई दे रही है । इस प्रवृत्ति में १. संस्कृति के चार अध्याय-- रामधारीसिंह दिनकर -- (तृतीय संस्करण ) - प्रस्तावना -- पू. १२.

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