Book Title: Aadhunikta aur Rashtriyata
Author(s): Rajmal Bora
Publisher: Namita Prakashan Aurangabad

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Page 92
________________ १०२ आधुनिकता और राष्ट्रीयता पूर्णतः सरकार को ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता । जनता को भी इस दिशा में कार्य करने की आवश्यकता है । नियम जब आपको कार्य करने की छट दे रहा है तो फिर उस नियम का पालन करना चाहिए, कम से कम जिन क्षेत्रों में काम अपनी भाषा में हो सकता है और जिसमें कार्य करने की छूट सरकार की ओर से भी प्राप्त है उन क्षेत्रों में निजी भाषा में कार्य होना चाहिए । भाषा का प्रयोग केवल सरकारी कार्यालयों में नहीं होता। अनेक व्यावसायिक, सामाजिक, साँस्कृतिक एवं धार्मिक संस्थाएँ देश में काम कर रही हैं । कम से कम ये संस्थाएँ अपना काम क्षेत्रीय भाषाओं में कर सकती हैं । शिक्षण संस्थाओं में जितनी सुविधाएँ प्राप्त हैं कम से कम उनका लाभ उठाना चाहिए। पूर्व स्वीकृत छूटों का उपयोग करने के बाद अधिक सुविधाओं की मांग की जा सकती है और ऐसी माँग में पहले की अपेक्षा अधिक बल होगा । अतः देश-भर में आज निजी भाषाओं के प्रति एवं देश की एक भाषा हिन्दी के प्रति अनुकूल वातावरण पैदा करने की आवश्यकता है। अंग्रेजी के रहते भारतीय भाषाओं का विकास नहीं हो सकता। अब राष्ट्र की सरकार और राष्ट्र की जनता दोनों को ही इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता है। संवैधानिक स्वीकृति के बाद विलम्ब उचित नहीं। व्यक्ति का विकास अन्य व्यक्तियों से सम्पर्क में आने पर ही हो सकता है। समान रुचि और सहज वृत्तियों की माँग व्यक्तियों को निकट लाने में सहायक होती है । इसी आधार पर संस्थाओं का निर्माण होता है अतः संस्थाओं का व्यक्ति के विकास में महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। व्यक्ति की योग्यता संस्थाओं के माध्यम से व्यक्त होती है और इसी प्रकार व्यक्ति की योग्यता के कारण ही संस्थाओं को बल प्राप्त होता है । ऐसी स्थिति में देश के विकास में लगी हुई संस्थाओं को प्रोत्साहन मिलना चाहिए । साथ ही इन संस्थाओं में व्यक्ति को अपना विकास करने के लिए अधिक से अधिक सुविधाएं मिलनी चाहिए । व्यक्ति में जो सृजनात्मक आवेग होते हैं, वे विकास के लिए अवसर और स्थान की प्रतीक्षा करते रहते हैं। सम्बन्धित संस्थाएं उन्हें पनपने का अवसर दे सकती हैं। इससे व्यक्ति के साथ-साथ देश का भी विकास होता हैं। विज्ञान की उन्नति के कारण रहन-सहन ही नहीं, जीवन के अनेक क्षेत्रों में बुनियादी परिवर्तन हो गया है। आज आर्थिक शक्तियाँ औद्योगिक संस्थानों में केन्द्रित हो गई हैं। इससे सामाजिक ढांचा पूरी तरह बदलता दिखाई दे रहा है। ऐसी स्थिति में जीवन-दर्शन की मान्यताओं में भी परिवर्तन हो रहा है। इस बदलते हुए युग में संस्थाओं को भी परम्पराओं का मोह छोड़ कर व्यक्ति

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