Book Title: Aadhunikta aur Rashtriyata
Author(s): Rajmal Bora
Publisher: Namita Prakashan Aurangabad

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Page 85
________________ समस्याएँ ९५ कि योरप में हमारी समुद्री ताकत सबसे पऊर बनी रहेगी । १ यह विभाजन आज भी हमें प्रभावित करता है। देशी राज्यों के भारतीय गणराज्य में विलय के बाद भी वहाँ का ( देशी राज्यों का ) इतिहास-बोध, ब्रिटिश भारत के इतिहास-बोध से भिन्न है। अब जब भारतवर्ष का नया राजनैतिक मानचित्र बन गया है तो उस आधार पर समस्त राष्ट्र को इकाई मानते हुए तत् तत् प्रदेशों को राजनैतिक इकाई के भीतर स्थान रख कर देखा जाना आवश्यक है । डॉ. रघुबीरसिंह ने 'पूर्व आधुनिक राजस्थान ' इतिहास की पुस्तक लिखी है । इस पुस्तक की सब से बडी विशेषता यह है कि 'राजस्थान' प्रान्त का जो अर्थ आधुनिक रूप में ( भारतीय मानचित्र में ) है, उसको इकाई मानकर राजस्थान के अलग-अलग राज्यों का ( चाहे वह मेवाड़ हो, बीकानेर हो या जोधपुर या राजस्थान का अन्य कोई छोटा राज्य ) इतिहास विभाजन की प्रवृत्ति को बचाते हुए, एकता के सूत्र को बनाये रखने की दृष्टि से लिखा गया है । इस इतिहास को पढ़कर मेवाड़ - मारवाड़ और अन्य राज्य आपस में एकता की ओर बढेंगे । इसी तरह आज आवश्यकता इस बात की हैं कि हमारा आधुनिक भारत इस समय में राष्ट्ररूप जिस रूप में वर्तमान है और जिस अस्तित्व को संयुक्त राष्ट्रसंघ में स्वतंत्र राष्ट्र रूप में मान्यता प्राप्त है, उस रूप को ध्यान में रखते हुए इतिहास के पुनर्लेखन की आवश्यकता है और वह इतिहास सारे देश भर में, चाहे वह कोई प्रान्त हो समान रूप में पढ़ाए जाने की आवश्यकता है । यह कार्य कठिन है और इस विषय पर मतभेद होने की संभावना है किन्तु भारत राष्ट्र को एक मानकर इतिहास लिखा जाना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है । यहाँ एक मानने से तात्पर्य भारत की राष्ट्रीय रूप में आज जो राजनैतिक सीमाएँ हैं, उनको स्वीकार करते हुए, एक माना जाना चाहिए। हम इतिहास से सीख लें। विभाजन की प्रवृत्ति ने हमारे देश की बहुत हानि की है । कम-से-कम अब इस विभाजन की प्रवृत्ति से बचें। शासकीय सुविधा के लिए या सांविधानिक कारणों से देश का विभाजन प्रान्तों के रूप होता है, तो वह उचित है किन्तु उस विभाजन का विचार वैधानिक धरातल पर सोच-समझ कर किया जाना ही संगत होगा । परतंत्र राष्ट्र अतीत को ( अतीत के उस ऐतिहासिक काल को जिस समय वह स्वतंत्र रहा है ) आदर्श मानता | अतीत के स्वर्णिम युग को दोहराने का ( फिर से स्थापित करने का ) वह स्वप्न देखता । ऐसा राष्ट्र अपने ( परतंत्र राष्ट्र का वर्तमान ) दासता से मुक्ति पाने का प्रयत्न करता १. देशी राज्यशासन - भगवानदास केला ( प्रकाशन तिथि १९४२ ) - पृ. ३१

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