Book Title: Aadhunikta aur Rashtriyata
Author(s): Rajmal Bora
Publisher: Namita Prakashan Aurangabad

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Page 69
________________ इतिहास ७७ २. भारतभूमि के प्रति अनुराग, श्रद्धा और भक्ति का भाव यहाँ के निवासियों में था और साथ ही उससे सम्बध्द होने के कारण आत्माभिमान का भाव भी। ३. राष्ट्रीय दृष्टि से धर्म और संस्कृति का स्थान राजनीति से ऊंचा था। एक प्रकार से राजा लोग इसके संरक्षक मात्र थे। ४. तीर्थस्थानों की संस्था भारत की राष्ट्रीय भावना की मूर्त और सजीव अभिव्यक्ति रही जिसमें आत्मकल्याण, मानवमात्र के कल्याण के साथ-साथ देशानुराग और भौगोलिक एकता का भाव भी निहित था। ५. राष्ट्रीय भावना के परिरक्षण और प्रसारण में संस्कृत भाषा का महत्त्वपूर्ण योग रहा और इसके पश्चात् इसी की परम्परा में चलने वाली प्राकृत और अपभ्रंश भाषा ने भी समयानुसार अपने उत्तरदायित्व को संभाला। प्राचीन काल की राष्ट्रीय भावना में समय और परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन हुआ। यद्यपि राष्ट्रीय भावना के मूलतत्त्व वही रहे किन्तु उस पर राजनीति का रंग धीरे-धीरे चढ़ने लगा। यवनों, शकों, कुषणों, हूणोंकिरातों, अरबों-तुरकों तथा मुगलों के क्रम-क्रम से आक्रमण भिन्न-भिन्न उद्देश्यों से हुए और इसको प्रतिक्रिया भी भिन्न भिन्न रूप में हुई जिसके विस्तार में जाने की यहाँ आवश्यकता नहीं है। यहाँ इतना ही कहना अभिप्रेत है कि इन आक्रमणों के फलस्वरूप जव-जब भी यहाँ की राष्ट्रीय भावना को हानि पहुंचने की आशंका हुई तब-तब उसके प्रतिकार की चेष्टा देश भर में हई है। यह पहले ही कह दिया गया है कि अब तक राष्ट्रीय भावना में राजनीति का स्थान इतना महत्त्वपूर्ण नहीं था। डाक्टर पाण्डुरंग वामन काणे ने भी इस सम्बन्ध में लिखा है- " धार्मिक दृष्टिकोण से (राजनैतिक दृष्टिकोण से नहीं) सभी ग्रथकारों ने भारतवर्ष या आर्यावर्त के प्रति भावात्मक सम्बन्ध जोड़ रखा था और सारे राष्ट्र को एक मान रखा था, इस तथ्य को स्वीकार करने में किसी को संदेह नहीं हो सकता। आज हम 'राष्ट्रीयता' शब्द का जो अर्थ लगाते हैं, उसके अनुसार प्राचीन भारतीय राष्ट्रीयता में हम शासन सम्बन्धी अथवा राजनैतिक तत्त्वका अभाव पाते हैं।" १ मध्यकाल में भी . १. धर्मशास्त्र का इतिहास - डॉ. पांडुरंग वामन काणे - ( द्वितीय भाग )-- पृ. ६४२

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