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इतिहास
मीडि राखे मुगल मरोडि राखे पातसाह,
बैरी पीसि राखे बरदान राख्यो कर में। राजन की हद्द राखी तेगबल सिवराज,
देव राखे देवल स्वधर्म राख्यो घर में ।" १
उस युग के राष्ट्रीय आदर्शों के अनुकूल भूषण ने कविता लिखी है। मध्यकाल तक धर्म और राजनीति में धर्म का स्थान राजनीति से ऊंचा रहा। धार्मिक नेताओं के अधिकार राजनैतिक नेताओं से अधिक रहे हैं। ऐसी स्थिति में उस युग की राष्ट्रीयता धर्म से ही अनुप्राणित होती थी।
आधुनिक काल में राष्ट्रीयता ने नया मोड़ लिया है। आज राष्ट्र शब्द से जो बोध होता है उसके मूल में किसी देश की राजनैतिक एकता का भाव है। श्री नर्मदेश्वर प्रसाद चतुर्वेदी ने लिखा है- " राष्ट्र के लिये एक निश्चित भूखण्ड का होना अनिवार्य है जिसके आधार पर वह अपने राजनैतिक अस्तित्व का बोध करता है । उससे अपना आंतरिक लगाव का अनुभव करता हैं । इसी को केन्द्र मान कर भापा, धर्म, संस्कृति तथा आर्थिक, सामाजिक और शासकीय व्यवस्था का राष्ट्रीय स्तर पर निर्माण होता है । इन सब के मूल में एकीकरण की भावना प्रधान होती है । इस प्रकार प्राकृतिक भौगोलिकता, एक इतिहास, एक भाषा, समान साहित्य और संस्कृति एवं समान मैत्री अथवा शत्रुता इन पांच सिद्धान्तों पर एकमत रहने की इच्छा से संगठित जनसमूह को राष्ट्र कह सकते हैं । २ विश्व के इतिहास में इस प्रकार की भावना का उदय सर्वप्रथम फ्रान्स की राज्यक्रान्ति के समय हुआ । इसी क्रान्ति ने स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का पाठ विश्व को सिखाया । तब से यूरोप का राजनैतिक मानचित्र बदलता ही गया । भारत में इस प्रकार की विचारधारा का विकास विशेष रूप से १८५७ की क्रान्ति के बाद ही हुआ । आधुनिक राष्ट्रीयता की भावना प्रमुख रूप से विदेशी साम्राज्यवाद के प्रति विरोध-प्रतिक्रिया के रूप में हुआ । आधुनिक राष्ट्रवाद के जन्म के सम्बन्ध में बड रसेल ने लिखा है --" इसका ( राष्ट्रवाद का ) प्रारम्भ जॉन ऑफ आर्क के समय से माना जा सकता है । जब फ्रांसीसियो में अंग्रेजों की
१. भषण--पं० विश्वनाथ प्रसाद मिश्र--छ. स. ४२० । २. राष्ट्र की उत्पत्ति और भारतीय राष्ट्रीयता - नर्मदेश्वर प्रसाद चतुर्वेदी
(ना. प्र. पत्रिका) वर्ष ६६, अंक २-३-४ मालवीय शती विशेषांक पृ. ४०७ ।