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आधुनिकता और राष्ट्रीयता
नहीं है। अत: राजनैतिक व्यवस्था को एक रूप देने की आवश्यकता आज भी है। नागालैंड, कश्मीर, आसाम, गोवा, हिमाचल प्रदेश तथा भारत के किसी भी प्रान्त में रहनेवाले नागरिक को समान रूप से राजनैतिक व्यवस्था का लाभ मिलना चाहिए।
राष्ट्रीयता का सम्बन्ध राजनैतिक एकता से है। इस एकता के साथ अन्य प्रकार की एकता, इस एकता को बनाए रखने में सहयोग दे सकती है किन्तु राजनैतिक एकता का बना रहना राष्ट्रीयता के लिये आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है। राजनैतिक एकता के आधार पर ही किसी राष्ट्र का उत्थान हो सकता है और इस आधार पर ही उसकी सत्ता को अन्तराष्ट्रीय जगत में ख्याति मिल सकती है । इस समय भारतवर्ष में राजनैतिक विभाजन की चर्चा प्रबल है। अतः इस समस्या का राष्ट्रीय संदर्भ में विचार होना चाहिए । इसी दृष्टि से कुछ विचारणीय तथ्य प्रस्तुत किये जा रहे हैं।
भारतवर्ष की स्वतंत्रता के साथ राजनैतिक विभाजन हुआ है । इस विभाजन ने एक राष्ट्र के दो टुकडे कर दिये और दोनों अलग अलग राष्ट्र हो गये। यह इतिहास है। जनता क्या चाहती है, यह प्रश्न अलग है किन्तु यह हुआ है । यह विभाजन धर्म के आधार पर हुआ । धर्म के आधार पर यह विभाजन कितना गलत साबित हुआ, इसका उदाहरण बंगला-देश का निर्माण है। बंगला-देश का निर्माण भारतबर्ष के तीसरे राष्ट्र का निर्माण है। स्थिति यह है कि इस परिवर्तन के बाद भी इस परिवर्तन को पाकिस्तान अब भी स्वीकार नहीं करता । इतिहास ने यह सिद्ध कर दिया कि धर्म के आधार पर राष्ट्र का राजनैतिक विभाजन गलत है। इस विभाजन के कारण संसार के इस भूखण्ड पर अशान्ति और आशंका का वातावरण व्याप्त है । इतिहास के इस घाव को भरने का प्रयत्न शिमला-समझौते ने किया किन्तु क्या यह घाव भर सका, यह भविष्य बतलाएगा। अस्तु ।
अंगरेजों ने जब भारतवर्ष छोड़ा, उस समय भारतवर्ष राजनैतिक दृष्टि से अनेक भागों में विभाजित था। इस विभाजन को राजनैतिक दष्टि से एकता के सूत्र में बाँधना राष्ट्र की प्रमुख समस्या थी। अंगरेजों के समय में देश का स्थूल रूप में दो भागों में विभाजन था। ब्रिटिश भारत और देशी राज्य । देशी राज्यों के सम्बन्ध में भगवानदास केला ने लिखा है-- “देशी राज्यों की एक बात बहुत जल्दी ही हमारा ध्यान आकर्षित कर लेती है, वह है, इनकी प्रतिक्रियावादिता या अपरिवर्तनशीलता......इनकी यह अपरिवर्तनशीलता यहाँ तक कि इसके कारण ये भारतीय राष्ट्र की एक अत्यन्त प्रतिक्रियावादी