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आधुनिकता और राष्ट्रीयता
अनुकरण करते हैं । यह सब लिखने का तात्पर्य यह है कि धर्म का विधान जिस समय हुआ था वह विधान काल की सभ्यता के अनुरूप हुआ, किन्तु कालान्तर में वैज्ञानिक उपलब्धियों के कारण सभ्यता में अन्तर आता गया, किन्तु हमारी धार्मिक मान्यताएँ उसी सभ्यता से चिपटी रही । जहाँ विचारकों ने इस कठिनाई को अनुभव किया, वहाँ इसमें संशोधन भी किया है । इसी से एक ही धर्म के अनेकों सम्प्रदाय भी बने हैं। मूलतः भावना एक होने पर भी आचरण एवं सभ्यता ( देश काल के अनुसार ) में अन्तर होने के कारण ही धार्मिक भेदभाव देखने में आया है । सभ्यता वैज्ञानिक उपलब्धियों के बाद बदलती है । सभ्यता का बदलना या उन्नत होना जीवन की सुगम एवं सुखकर पद्धतियों का निर्माण करना है । इन बदली हुई परिस्थितियों में युग धर्म का संशोधन होना आवश्यक है । अतः आज हम सबके सामने बिकट प्रश्न जो उपस्थित हैं और जिसे हम वर्तमान युग का सत्य कहेंगे, वह वज्ञानिक सत्य को धार्मिक सत्य के निकट लाने का प्रश्न है । यह कार्य स्वतंत्र रूप से न धार्मिक नेता कर सकता है और न ही वैज्ञानिक कर सकता है । इस कार्य को दार्शनिक या चिन्तक ही कर सकता है अतः हम लोगों की दृष्टि दार्शनिकों की ओर लगी हुई है ।
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वर्तमान युग में शिक्षा का व्यापक प्रचार हो रहा है । यह प्रचार स्वीकृत सत्यों का ( आधुनिक उपलब्धियों के सन्दर्भ में, ज्ञान एवं विज्ञान की सभी शाखाओं से सम्बन्धित ) प्रचार है । वह प्राचीन सभ्यता से चिपटे धार्मिक सत्य को स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं हो सकता । यह स्वाभा विक है । आज का शिक्षित समाज धर्म के रूढ रूप को स्वीकार नहीं करता । इस समाज में ( शिक्षित समाज में ) बदलती आस्थाओं का संघर्ष है । आज की पीढ़ी आस्था एवं अनास्था दोनों में किस ओर झुकी हुई है इसकी प्रतिध्वनि साहित्य में दिखाई दे सकती है और आज की साहित्यिक प्रवृत्तियों के आधार पर वर्तमान सत्य की विस्तृत व्याख्या की जा सकती है । यहाँ यह सब लिखने के लिये स्थान कहाँ मूल बात जो कहनी है वह यह कि वैज्ञानिक सत्य तो स्वीकृत हो गया; किन्तु वह हमारे जीवन के अन्तरंग में प्रवेश नहीं पा सका है। जीवन में बाह्य परिवर्तन तो हो गया है, किन्तु अन्तर में अभी उसके प्रति आस्था का निर्माण नहीं हुआ है । सब कुछ पाकर भी हम अन्तर टटोलने की स्थिति में है । धर्म का प्रवेश हमारे जीवन में अब भी प्राचीन रूप
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है । आज भी अनास्था से घबरा कर कभी कभी हम उसी सत्य की और निहारते हैं और उसी से आस्था प्राप्त कर जीवन में बल ग्रहण करते है । सत्य जब तक आस्था का विषय नहीं बनता, तब तक वह मानव जीवन को सुख