Book Title: Aadhunikta aur Rashtriyata
Author(s): Rajmal Bora
Publisher: Namita Prakashan Aurangabad

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Page 45
________________ आधार ४७ ( संविधान विशेष ) से होता है । इस व्यवस्था के आधार पर राष्ट्रीय-हितों की (ऊपर बतलाये गये राष्ट्रीयता के दोनों तत्त्वों की ) रक्षा की जाती हैं । इस आधार पर राष्ट्रीयता की पहचान होती है । शासन-तंत्र यदि राजतंत्र से सम्बन्धित है, तो वहाँ की राष्ट्रीयता राजतंत्र के अनुसार होगी । इसी तरह सैनिक-तंत्र की राष्ट्रीयता और जनतंत्र की राष्ट्रीयता भिन्न भिन्न होगी। विश्व में आज जितने राष्ट्र हैं (संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जिनको मान्यता मिल गई है ), उन में एक प्रकार की राजनैतिक व्यवस्था (शासनतंत्र) नहीं है । व्यवस्था में भिन्नता होने के कारण राष्ट्रीयता की धारणा में (ऐतिहासिक-बोध में) अन्तर विद्यमान रहना स्वाभाविक है । ऊपर के दोनों तत्त्व सभी राष्ट्रों में समान रूप से पाये जाने पर भी इस तीसरे के कारण राष्ट्रीयता का स्वरूप बदलता प्रतीत होता है । प्रत्येक प्रकार के शासन-तंत्र के आधार पर राष्ट्रीयता की विशेषताओं में जो अन्तर विद्यमान रहता है, उसका विश्लेषण, उस-उस देश के ऐतिहासिक संदर्भो को ध्यान में रखकर किया जा सकता है। यहाँ यह समझ लिया जा सकता है कि समान राजनैतिक-व्यवस्था यदि दो राष्ट्रों में वर्तमान है, तो उन दो राष्ट्रों मे राष्ट्रीयता की धारणा अधिक निकट होगी। भारतवर्ष में जनतंत्र की व्यवस्था है अतः यहां की राष्ट्रीयता, उन राष्ट्रों की राष्ट्रीयता के अधिक निकट है, जहाँ जनतंत्र की व्यवस्था पाई जाती है। इस अर्थ में ब्रिटेन और अमेरिका की राष्ट्रीयता भारत की राष्ट्रीयता के अधिक निकट है, ऐसा कहा जा सकता है। ४. चौथा तत्त्व, ऊपर के तीनों तत्त्वों का परिणाम है । इस आधार पर उस की पहचान को अन्य राष्ट्र स्वीकार कर लेते हैं। उदाहरण के लिए बंगला-देश की राष्ट्रीयता को अब अनेक राष्ट्रों ने स्वीकार कर लिया है । इस चौथे तत्त्व के अभाव में और तत्त्व अनपहचाने रह जाते हैं, अतः इस तत्त्व का महत्त्व किसी राष्ट्र विशेष के अपने आप में सुदृढ़ होने से सम्बन्धित है । इस आधार पर राष्ट्र की क्षमता और स्थिरता की पहचान होती है । राष्ट्रीयता के इन तत्त्वों के आधार पर राष्ट्रीयता की रूपरेखा स्पष्ट होती है ।

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