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आधुनिकता और राष्ट्रीयता
प्रभाव घटता जाएगा और वह युद्ध का एकमात्र कारण नहीं रहेगा । जहाँ कहीं ऐसा माना गया है और माना जा रहा है, वहाँ इस प्रकार की नीति में परिवर्तन हो रहा है ।
यब युद्ध का कारण धर्मं नहीं राष्ट्रीयता है । यह राष्ट्रीयता धर्म से अब भी प्रभावित होती । धर्म का यह प्रभाव अब प्रत्यक्ष नहीं रहा है। कोई भी राष्ट्र अब खुलकर धर्म की दुहाई, मध्यकाल के रूप में नहीं दे सकता । जिन राष्ट्रों को संयुक्त राष्ट्र संघ में मान्यता मिल गई है, उन्हें वहाँ प्रतिनिधित्व प्राप्त है और वे जानते हैं कि अब इस आवाज और घोषणा का विश्व की राजनीति में विशेष प्रभाव नहीं है । कुछ राष्ट्र जो इस आधार पर विश्व में अपना अलग संगठन बनाने का प्रयत्न करते हैं, उनका यह प्रयत्न किसी भी रूप में सफल होता नहीं दीखता । पाकिस्तान के इस प्रकार के प्रयत्न विफल रहे हैं । यह सब होने पर भी धर्म का प्रभाव राष्ट्र पर जिस रूप में हैं, वह राष्ट्र की आन्तरिक समस्या के रूप में है । इस आधार पर राष्ट्रीयता के लिए ( राष्ट्र के भीतर ही ) कभी कभी ख़तरा पैदा हो जाता है इस दृष्टि से धर्म के प्रभाव का विश्लेषण किया जा सकता है ।
प्रत्येक व्यक्ति के उसके अपने नैतिक मूल्य, उसके अपने धर्म के आधार पर निश्चित होते हैं । इन मूल्यों पर व्यक्ति सहज रूप से ( बिना राजनैतिक बंधन के ) नियंत्रित रहता हैं । यदि व्यक्ति यह अनुभव करता है कि उसके इन मूल्योंपर राजनीति का हस्तक्षेप हो रहा है, तो व्यक्ति सामूहिक रूप से राजनीति का विरोध करता है । राजनैतिक मूल्यों एवं धार्मिक मूल्यों दोनों में व्यक्ति को धार्मिक मूल्य अधिक मान्य होते हैं । धार्मिक मूल्यों के साथ व्यक्ति का रागात्मक सम्बन्ध होता है और इन मूल्यों के आधार पर व्यक्ति न केवल इस लोक की समस्याओं से छुटकारा पाता है बल्कि आनेवाले (अनागत) लोक से भी छुटकारे के प्रति उसके विश्वास प्राय: स्थिर रहते हैं । व्यावहारिक धरातल पर धार्मिक मूल्य व्यक्ति को ( सम्बधित समाज को ) अधिक मान्य होते है ।
धर्म का विरोध ( प्राय: सभी धर्मों का विरोध विज्ञान ने और बाद में राजनिति ने किया है। धार्मिक आस्था को अंधविश्वास कहा गया। ऐसे प्रमाण प्रस्तुत किए गए जिससे धार्मिक मान्यताएँ ढहने लगीं । जहाँ तक विज्ञान ने धर्म का विरोध प्रमाणों के आधार पर किया हैं, उस विरोध को मान्यता मिली है और समय समय पर मान्यताओं में संशोधन हो रहा है । आज की