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TULSÍ PRAJNÁ
वर्ष 33 • अंक 129 • जुलाई-दिसम्बर, 2005
Research Quarterly
Cont
उस्स लारमामारी
YA
तुलसी प्रज्ञा
स
जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूँ
(मान्य विश्वविद्यालय )
अनुसंधान त्रैमासिकी
पाल
JAIN VISHVA BHARATI INSTITUTE, LADNUN (DEEMED UNIVERSITY)
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तुलसी प्रज्ञा. TULSI PRAJŇÁ
Research Quarterly of Jain Vishva Bharati Institute
VOL.-129
JULY-DECEMBER, 2005
णाणस्त
सारमायारी
Patron
Sudhamahi Regunathan
Vice-Chancellor
Editor in
Hindi Section
Dr Mumukshu Shanta Jain
English Section
Dr Jagat Ram Bhattacharyya
Editorial-Board
Dr Mahavir Raj Gelra, Jaipur
Prof. Satya Ranjan Banerjee, Calcutta Dr R.P. Poddar, Pune
Dr Gopal Bhardwaj, Jodhpur Prof. Dayanand Bhargava, Ladnun
Dr Bachh Raj Dugar, Ladnun
Dr Hari Shankar Pandey, Ladnun Dr J.P.N. Mishra, Ladnun
Publisher:
Jain Vishva Bharati Institute, Ladnun-341 306
Page #3
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Research Quarterly of Jain Vishva Bharati Institute VOL.-129
JULY - DECEMBER, 2005
Editor in Hindi Dr Mumukshu Shanta Jain
Editor in English Dr Jagat Ram Bhattacharyya
Editorial Office Tulsī Prajñā, Jain Vishva Bharati Institute (Deemed University)
LADNUN-341 306, Rajasthan
Publisher
: Jain Vishva Bharati Institute (Deemed University)
Ladnun-341 306, Rajasthan
Type Setting : Jain Vishva Bharati Institute (Deemed University)
Ladnun-341 306, Rajasthan
Printed at
: Jaipur Printers Pvt. Ltd., Jaipur-302 015, Rajasthan
The views expressed and facts stated in this journal are those of the writers, the Editors may not agree with them.
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अनुक्रमणिका/CONTENTS
हिन्दी खण्ड
विषय
लेखक
पृष्ठसं.
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श्रावकाचार आचार, आहार और विचार का विवेक
श्रावकाचार तब और अब श्रावक-आचार की प्रासंगिकता का प्रश्न परिग्रह परिमाण व्रत आज भी प्रासंगिक है आधुनिक युग में श्रावकाचार का अस्तित्व गृहस्थाचार-परिपालन में नारी की भूमिका श्रावकाचार गुण, लक्षण और अणुव्रत श्रावकाचार और रात्रि भोजन विरमण व्रत
प्रो. प्रेम सुमन जैन जितेन्द्र बी. शाह प्रो. सागरमल जैन डॉ. धर्मचन्द जैन डॉ. अनेकांत कुमार जैन श्रीमती डॉ. सरोज जैन डॉ. शेखरचन्द्र जैन डॉ. अशोक कुमार जैन
74 82
अंग्रेजी खण्ड
Subject
Author Page No. Ācārya Mahāprajña 91
Acārānga-Bhāsyam
Jain Kurumbers: An Account of their life and Habits
M.D. Raghvan
103
A Note on the Worship of Images in Jainism
Priyatosh Baneerjee 110
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प्रतिबिम्ब
सामने वाला मेरे साथ अच्छा व्यवहार करता है, इसीलिए मैं उसके साथ अच्छा व्यवहार न करूं किन्तु उसके साथ मैं अच्छा व्यवहार इसलिए करूँ कि वह मेरा धर्म है। सामने वाला मेरे साथ बुरा व्यवहार करता है फिर भी मैं उसके साथ अच्छा व्यवहार करूं और इसलिए करूं कि वह मेरा धर्म है।
अच्छा व्यवहार करने वाले के साथ बुरा व्यवहार करूं, इसका अर्थ है कि अच्छाई में मेरी कोई आस्था नहीं और बुराई से मेरा कोई वास्तविक विरोध नहीं है। मेरा कोई सिद्धान्त भी नहीं है, जिसे मैं सुरक्षित रखू और मेरी कोई
आकृति भी नहीं, जिसे मैं देखं । क्या मैं परिस्थिति के दर्पण में वैसा प्रतिबिम्ब डालूं, जो मेरा अपनी नहीं है।
- अनुशास्ता आचार्य महाप्रज्ञ
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श्रावकाचार आचार, आहार और विचार का विवेक
प्रो. प्रेम सुमन जैन
जैन आचार के मूल में अहिंसा की उदात्त भावना रही है। अहिंसा के आधार पर ही जैन आचार विकसित हुआ है। आचारांग सूत्र में श्रमण भगवान महावीर की जो जीवन गाथा दी गई है, महावीर ने साधना काल में भयंकर कष्ट व उपसर्ग सहन किये, उन सभी कष्टों के सहन करने में भी अहिंसा की उदात्त भावना निहित रही है। भगवान महावीर की भाँति उग्र साधना करना सामान्य साधक के लिए कठिन ही नहीं, अपितु असंभव प्राय: है। अहिंसा का सम्यग् प्रकार से पालन करने के लिए आवश्यक है कि गृहस्थ आश्रम का त्याग किया जाये। गृहस्थ आश्रम में रहकर अहिंसा का पूर्ण पालन नहीं हो सकता। गृहस्थ आश्रम को छोड़कर श्रमण बनना ही पर्याप्त नहीं माना गया है किन्तु श्रमण जीवन ग्रहण करने के पश्चात् भी ऐसी आचार-संहिता निर्माण की गई जिससे उसके जीवन में अधिकाधिक अहिंसा का पालन हो सके।
। भगवान महावीर ने श्रावक और श्रमण-मुनि के लिये आभ्यन्तर शुद्धि हेतु विभिन्न व्रतों के धारण का विधान किया है। इससे जीव क्रमिक साधना में रत होकर आत्म स्वातंत्र्य की उपलब्धि कर सकता है। जो व्यक्ति मुनि धर्म को अंगीकार करने में असमर्थ है वह श्रावक धर्म को ग्रहण कर सच्चा आत्म साधक गृहस्थ बन जाता है। महावीर ने कहा है कि श्रावक और श्रमण के सारे व्रत अहिंसा की साधना के लिए है।
श्रावकाचार:
श्रावक शब्द तीन वर्गों के संयोग से बना है और इन तीनों वर्गों के क्रमश: तीन अर्थ है - 1. श्रद्धालु, 2. विवेकी और 3. क्रियावान। जिसमें इन
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तीनों गुणों का समावेश पाया जाता है वह श्रावक है। व्रतधारी गृहस्थ को श्रावक, उपासक और सागर आदि नामों से अभिहित किया जाता है। यह श्रद्धापूर्वक अपने गुरुजनों-मुनियों के प्रवचन का श्रवण करता है, अतः यह श्राद्ध या श्रावक कहलाता है। श्रावक आचार का वर्गीकरण कई दृष्टियों में किया जाता है। श्रावक के लिए निम्नलिखित क्रियाओं का पालन करना आवश्यक माना गया है। सागर धर्मामृत में पण्डित आशाधरजी ने कहा है -
न्यायोपात्तधनो यजन् गुणगुरून् सद्गीस्त्रिवर्ग भजनन्योन्यानुगुणं तदर्हगृहिणीस्थानालयो हमयः। युक्ताहारविहारआर्यसमितिः प्रज्ञाः कृतज्ञो वशी, श्रृण्वन् धर्मविधिं दयालुरधमी: सागरधर्म चरेत्॥11॥
1. न्यायपूर्वक धनोपार्जन - गार्हस्थिक कार्यों को सम्पादित करने के लिए आजीविका अर्जित करना आवश्यक है पर विश्वासघात, छल, कपट, धूर्तता और अन्यायपूर्ण धनार्जन करना त्याज्य है।
2. गुण-पूजा- आत्मा में मार्दव धर्म के विकास हेतु गुणी व्यक्ति और ज्ञान, दर्शन, चैतन्य आदि गुणों का बहुमान, श्लाघा एवं प्रशंसा करना गुण पूजा है ।
3. प्रशस्त वचन- परनिन्दा और कठोरता आदि दोषों से रहित प्रशस्त तथा उत्कृष्ट वचनों का व्यवहार जीने के लिए हितकारी और उपयोगी है ।।
4. त्रिवर्गपुरुषार्थ - धर्म, अर्थ और काम इन तीनों पुरुषार्थों का विरोध रहित सेवन करना त्रिवर्ग सेवन है।
5. त्रिवर्गयोग्य स्त्री, ग्राम, भवन - त्रिवर्ग को साधने में सहायक स्त्री या भार्या है। सुयोग्य भार्या के रहने से परिवार में शान्ति, सुख और सहयोग विद्यमान रहते हैं। संयम, अतिथि सेवा एवं शिष्टाचार की वृद्धि होती है। भार्या के समान ही त्रिवर्ग में ही साधक भवन और ग्राम का होना भी आवश्यक है।
6. उचित लज्जा - लज्जा मानव जीवन का भूषण है। लज्जाशील व्यक्ति स्वाभिमान की रक्षा हेतु अपयश के भय से कदाचार में प्रवृत्त नहीं होता है। विरुद्ध परिस्थितियों के आने पर भी लज्जाशील व्यक्ति कुकर्म नहीं करता । वह शिष्ट व संयमित व्यवहार का आचरण करता है। ____7. योग्य आहार विहार- अभक्ष्य अनुपसेव्य और विरस के सेवन का त्याग करना तथा स्वास्थ्यप्रद और निर्दोष भोजन ग्रहण करना योग्य आहार है।
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8. आर्य समिति - जिनके सहवास से आत्म-गुणों का विकास हो, संयम की प्रवृत्ति जागृत हो और आत्म प्रतिष्ठा बढ़े, ऐसे सदाचारी व्यक्तियों की संगति आर्य समिति कहलाती है।
१. विवेक- कर्त्तव्याकर्त्तव्य का तर्क-वितर्क पूर्वक निर्धारण करना विवेक है। .
10. उपकार स्मृति या कृतज्ञता - कृतज्ञता मनुष्य का एक आवश्यक गुण है। जो व्यक्ति अपने ऊपर किए गए दूसरों के उपकारों का स्मरण रखता है और उपकार के बदले में प्रत्युपकार करने की भावना रखता है, वह कृतज्ञ कहलाता है। कृतज्ञता जीवन विकास के लिए आवश्यक है। इस गुण के सद्भाव से धर्म-धारण की योग्यता उत्पन्न होती है।
11. जितेन्द्रियता - इन्द्रियों के विषयों को नियंत्रित करना तथा अनाचार और दुराचार रूप प्रवृत्ति को रोकना जितेन्द्रियता है। ___ 12. धर्मविधि श्रवण - अभ्युदय और निःश्रेयस का साधन धर्म है। युक्ति और आगम से सिद्ध धर्म की प्रतिष्ठा अथवा उसके स्वरूप का प्रतिदिन श्रवण धर्म विधि श्रवण है।
13. दयालुता - दुःखी प्राणियों के दुःखों को दूर करने की इच्छा दया कहलाती है जिसके हृदय में कोमलता, करुणा और आर्द्रता है, वही दयालु हो सकता है।
14. पापभित्ति- अनिष्ट फल प्रदान करने वाले हिंसा, झूठ , चोरी आदि पापों से भीत रहना अपने को धर्म धारण का अधिकारी बनाना है।
इस प्रकार श्रावक उपर्युक्त चौदह गुणों द्वारा अपनी आत्मा को धर्मधारण के योग्य बनाता है, ऐसे श्रावक को पाक्षिक श्रावक कहते हैं । श्रावक के द्वादश व्रतों और एकादश प्रतिमाओं का पालन करना चर्या अथवा निष्ठा है। इस चर्या का आचरण करने वाला गृहस्थ नैष्ठिक श्रावक कहा जाता है। श्रावक के द्वादश व्रत
ज्ञान, दर्शन और चारित्र की त्रिवेणी मुक्ति की ओर प्रवाहित होती है किन्तु मानव अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार उसकी गहराई में प्रवेश करता है और अपनी शक्ति के अनुसार चारित्र को ग्रहण करता है। श्रावक घर में रहकर पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय उत्तरदायित्वों का निर्वाह करते हुए मुक्ति मार्ग की साधना करता है।
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श्रावकाचार सम्बधी उपलब्ध जैन साहित्य का अनुशीलन करने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जैन मनीषियों ने श्रावक को एक विशिष्ट सदाचारी, सद्गृहस्थ के रूप में प्रतिष्ठित किया है। वह ज्ञानी भी है और आचारवान भी। ज्ञान, विश्वास-आस्था और सदाचार- इन तीनों का समन्वय श्रावक जीवन में किया गया है। जो अपने देश, काल, परिस्थिति के अनुसार जीवन को अधिकाधिक मर्यादाशील और अनुशासित रखता है उसे ही श्रावक की भूमिका पर खड़ा किया है। भगवान महावीर से लेकर उत्तरवर्ती सैकड़ों आचार्यों एवं मनीषियों ने लगभग 2500 वर्ष के चिंतन काल में जैन श्रावक की यही छवि प्रस्तुत की है। वह कर्त्तव्य, अनुशासन एवं संयमयुक्त जीवन जीने वाला सदाचारी नागरिक रहे। जैन दर्शन के मूर्धन्य मनीषी आचार्यों ने श्रावक धर्म और श्रमण धर्म ग्रहण करने के पूर्व मानवता के दिव्य गुणों को धारण करना आवश्यक माना है। सामान्य जीवन से विशिष्ट मानव बनने के लिए आवश्यक है कि वह सर्वप्रथम मार्गानुसारी के दिव्य गुणों को अपनाये। आगम व आगमेत्तर साहित्य का गम्भीर अध्ययन कर सर्वप्रथम धर्म बिन्दु प्रकरण ग्रन्थ में मार्गानुसारी के पैंतीस बोल पर आचार्य हरिभद्र ने चिंतन प्रस्तुत किया।
उसके पश्चात् अनेक आचार्यों ने अपनी कमनीय कल्पना से उन गुणों पर अधिक विस्तार से प्रकाश डाला। कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र ने अपने योगशास्त्र में उन गुणों पर अत्यन्त गहराई से भाष्य प्रस्तुत किया । यह पैंतीस गुण जीवन के लिए इतने अधिक उपयोगी हैं कि मानव जीवन में सद्गुणों का बगीचा लहलहाने लगता है। यह गुण मनुष्य को तन से ही नहीं, मन से ही मानव बनाने में पूर्ण सक्षम हैं।
व्रत की परिभाषा में बताया गया है कि सेवनीय विषयों का संकल्प पूर्वक या नियम रूप में त्याग करना, हिंसा आदि निन्द्य कार्यों को छोड़ना अथवा पात्रता आदि प्रशस्त कार्यों में प्रवृत्त होना व्रत है। जिस प्रकार सतत प्रगतिशील प्रवाहित होने वाली सरिता के प्रवाह को नियंत्रित रहने के लिए दो तटों की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार जीवन को नियंत्रित और मर्यादित बनाये रखने के लिए व्रतों की आवश्यकता होती है। जैसे तटों के अभाव में नदी का प्रवाह छिन्न भिन्न हो जाता है उसी प्रकार व्रतविहिन मनुष्य की जीवन-शक्ति छिन्न भिन्न हो जाती है, अतः जीवन शक्ति को केन्द्रित करने और योग्य दिशा में ही उसका उपयोग करने के लिए व्रतों की अत्यन्त आवश्यकता है।
श्रावक के द्वादश व्रतों में पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों की गणना की गई है। वस्तुतः इन व्रतों का मूलाधार अहिंसा है। अहिंसा से ही मानव का विकास और उत्थान होता है। यही संस्कृति की आत्मा है और आध्यात्मिक जीवन की नींव है।
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अणुव्रत :
हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील और मूर्छा-परिग्रह इन पाँच दोषों से स्थूल रूप या एक देश रूप से विरत होना अणुव्रत है। अणु शब्द का अर्थ लघु या छोटा है। जो स्थूल रूप से पंच पापों का त्याग करता है, वही अणुव्रत का धारी माना गया है। अणुव्रत पांच हैं- अहिंसा, अमृषा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह । गुणव्रत और शिक्षाव्रत :
श्रावक धर्म में गुणव्रत और शिक्षाव्रत अहिंसा की साधना को और गहन करने के लिए है। गुणव्रत तीन हैं1. अपनी इच्छाओं को सीमित करने के लिए सभी दिशाओं का परिमाण
करना दिग्वत है। 2. वस्तुओं के प्रति आसक्ति भाव कम करने के लिए उसकी सीमा निर्धारण
करना भोगोपभोग परिमाण व्रत है। 3. निरर्थक कार्यों को नहीं करना अनर्थदण्ड व्रत है। उदाहरणार्थ दूसरे के
सम्बन्ध में बुरा नहीं सोचना, हिंसक कार्यों का उपदेश नहीं देना, आवश्यक
वस्तुओं का दुरुपयोग नहीं करना आदि। शिक्षाव्रत चार हैं -
1. सभी पदार्थों में समभाव रखते हुए अपने स्वरूप में लीन होना सामायिक है। 2. सामायिक की स्थिरता के लिये उपवास पूर्वक धार्मिक कार्यों में समय
व्यतीत करना पौषधोपवास है। 3. कषायों को कम करने के लिए प्रतिदिन दिशाओं की तथा भोगोपभोग की
वस्तुओं की मर्यादा करना देशव्रत है। 4. आत्म साधना में रत अतिथियों के लिए आहार, औषध आदि देना अतिथि
संविभाग व्रत है। इसे वैयाव्रत भी कहा गया है जिसमें मुनियों की सेवा
शुश्रूषा का विधान है। व्रतों का विस्तार :
श्रावक के उक्त व्रतों में इन पाँच अणुव्रतों का वर्णन जैन ग्रन्थों में विस्तार से मिलता है। अहिंसा, अमृषा, अस्तेय, अमैथुन एवं अपरिग्रह। हिंसा न करना, झूठ न बोलना,
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चोरी न करना, व्यभिचार न करना एवं परिग्रह न रखना। इन पाँचों को गृहस्थ का धर्म इसलिए स्वीकार करते हैं कि समाज में मुख्य रूप से बैर और विरोध की जनक हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील व्यभिचार आदि पाँच क्रियाएँ हैं। साथ ही गृहस्थ जीवन में यदि इन क्रियाओं में परिष्कार सम्भव हो सका तो आगे साधना में प्रविष्ट हुआ जा सकता है। जितने अंश में व्यक्ति इनका पालन करने लगेगा उतना ही वह सामाजिक एवं नि:स्वार्थ होता जायेगा। अतः इन पाँच व्रतों का विधान वैयक्तिक और सामाजिक शोधन की दिशा में अपना विशेष महत्त्व रखता है। गृहस्थों के लिए इन व्रतों को उनकी सामर्थ्य के अनुसार पालन करने को कहा गया है। सम्भवतः गृहस्थों का चित्त इतना ही समर्थ हो पाता होगा कि वे इन व्रतों के पालन में प्रवेश कर सकें । इन व्रतों की पूर्णता तो साधु जीवन में ही की जा सकती है।
जैन परम्परा में शब्दों पर कम और अर्थ पर अधिक जोर दिया गया है। दूसरी बात यह है कि तीर्थंकर महावीर बहुत गहरे चिंतक थे। वे मूल को पकड़ते थे। फल आना जिनमें अनिवार्य हो जाता था, अतः उन्होंने इन पांच अणुव्रतों की व्याख्या एकदम दूसरे ढंग से की है जो अधिक ग्राह्य और मजबूती की पकड़ है।
जैन साधकों का अनुभव था कि यदि स्वानुभूति का विस्तार किया जाये तो हिंसा स्वयमेव तिरोहित हो जायेगी। हिंसा होती ही दूसरों के साथ है। जब तक बाहर दूसरा बना रहेगा, हिंसा की सम्भावना बनी रहेगी। दूसरे को सुख पहुंचाने की बात जब तक हम सोचते रहेंगे, अहिंसक नहीं हो सकते हैं, क्योंकि हमारा सुख पहुँचाना भी उन्हें पीड़ा दे सकता है। अतः जब तक हम दूसरे भाव को ही न मिटा दें, अहिंसा प्रकट नहीं होगी
और दूसरा तब तक दिखाई पड़ता रहेगा जब तक आप स्वयं को न पहिचान लें। अत: तीर्थंकर महावीर ने बहुत छोटी सी परिभाषा दी है- आत्म-ज्ञान अहिंसा और आत्मअज्ञान हिंसा है।
अन्य व्रतों के सम्बध में भी जैन साधकों का दृष्टिकोण अधिक विशाल है । सत्य का पालन मात्र झूठ बोलने से बचना नहीं है, ऐसा तो कोई भी दोहरे व्यक्तित्व वाला व्यक्ति अभ्यास से कर सकता है किन्तु उसे व्रती नहीं कहा जा सकता है और न ही उससे फलित होगा जो सत्य को हृदयंगम करने वाले से होना चाहिए, अतः सत्यव्रती का अर्थ है कि जगत् की सत्यता- यथार्थता को जान लेना, तत्त्व ज्ञान से परिचित होना । जब व्यक्ति को यह पता चल जाये कि मेरे अस्तित्व की सार्थकता क्या है तथा मेरा और जगत् का क्या संबंध है तो वह झूठ नहीं बोल सकता। असत्य किसी न किसी लालच की तीव्रता के कारण से बोला जाता है। उस कामना की वास्तविकता जब समझ में आ जाये
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तो जीवन से वही प्रकट होगा जो भीतर है। अतः जैन साधकों की दृष्टि में सत्यव्रत के पालन का अर्थ अन्तस् की यथावत् प्रस्तुति है, जहाँ कपट का, द्वन्द का सर्वथा अभाव होता है।
__ अचौर्यव्रत के सम्बध में जैन साधकों ने बड़ी गहरी बात कही है। उनका अनुभव है कि परत्व के कारण ही व्यक्ति हिंसा करता है। हिंसात्मक वह न दीखे, इसलिए वह झूठ बोलता है तथा असत्य में जीने के कारण वह अपने और पर की पहिचान को भूल जाता है। इसलिये जो वस्तुएँ उसकी नहीं है और न उसका साथ देने वाली है , उनका भी वह संग्रह करने लगता है। जब परिग्रह की लालसा तीव्र हो जाती है तो वह चोरी पर उतर जाता है। अतः परिग्रह का जो विकृत रूप है वह चोरी का जन्म दाता है। इस कारण अचौर्य का अर्थ किसी की वस्तु बिना आज्ञा ग्रहण न करना मात्र नहीं अपितु स्व एवं पर के भेद को समझना भी है। ___ अचौर्यव्रत का पालन करना गहन अध्यात्म से भी सम्बन्धित है। जैन साधकों का सोचना बिल्कुल सत्य है कि दूसरे की वस्तु को अपनी बना लेना चोरी है। इस प्रवृत्ति से बचना चाहिए। वे कहते हैं कि हम इस समझ को जागृत करें कि हम बहुत पुराने चोर हैं। जन्म-जन्मान्तरों से हम शरीर को अपना मानते हुए चले आ रहे हैं। अपने साथ रखते हैं, मनमाना उसका उपयोग करते हैं । अतः यदि अचौर्यव्रत का पालन करना है तो सर्वप्रथम यह समझ में आ जाना चाहिए कि मेरी आत्मा अलग और शरीर अलग है। शरीर के ऊपर से अपने स्वामित्व को हटाना ही अचौर्य में प्रवेश करना होगा। शरीर से स्वामित्व हटते ही अन्य वस्तुओं की चोरी करने की आवश्यकता नहीं रहेगी।
इसी प्रकार अचौर्य का अर्थ है कि हमारे व्यक्तित्व में जो कुछ भी पराया है, दूसरों का आचरण व दूसरों के विचार उन सभी से मुक्ति ले लेना। प्राय: हम कभी किसी के व्यक्तित्व को ओढ़ते हैं तो कभी किसी के विचार द्वारा अपने को प्रकट करते हैं। यह इसलिये होता है कि हम स्वयं को नहीं पहचान पाते, अपनी शक्ति से परिचित नहीं हो पाते। अतः अचौर्य व्रत के पालन का अर्थ है-स्वयं में लौटना, क्योंकि हो सकता है कि कभी समृद्धि इतनी अधिक हो जाए कि वस्तुओं की चोरी की आवश्यकता ही न रहे। लेकिन तब भी अज्ञानवश पर पदार्थों की चोरी होती रहेगी। अतः आन्तरिक चोरी से बचना ही अचौर्य है जो निजी व्यक्तित्व के प्रकाशन से ही सम्भव है।
ब्रह्मचर्य के सम्बन्ध में भी जैन साधकों की धारणा अध्यात्म से जुड़ी हुई है। वे मानते हैं कि शरीर में अनेक प्रकार की शक्तियाँ होती हैं जिनका निष्कासन मैथुन आदि
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क्रियाओं के द्वारा होता है। उसके बाद व्यक्ति रिक्त हो जाता है। शक्तियों से रिक्त होने का दूसरा माध्यम है कि उनको पैदा ही न होने दिया जाये। व्रत, उपवास, निराहार आदि द्वारा इन पर रोक लगाई जा सकती है किन्तु इससे भी व्यक्ति में रिक्तता ही आयेगी, अत: काम की क्रियाओं द्वारा शक्ति को रिक्त करना अथवा उनको पनपने ही न देना, इन दोनों स्थितियों में कोई विशेष अन्तर नहीं है। आध्यात्मिक उपलब्धि दोनों से ही नहीं होती। अतः जैन साधकों का कथन है कि ब्रह्मचर्य का अर्थ होना चाहिए ब्रह्म अर्थात् परमात्मा जैसा आचरण। परमात्मा का आचरण निरन्तर स्व विकास एवं उसको निर्मल बनाने में होता है। अतः व्यक्ति में जो शक्तियां हैं उनका बहाव बाहर की तरफ न करके अन्दर की
ओर किया जाये तो ब्रह्मपने की उपलब्धि हो सकती है। यही अकाम की साधना है। इससे जन्म-मृत्यु से छुटकारा मिल सकता है।
पाँचवें व्रत अपरिग्रह के सम्बध में जैन साधकों की दृष्टि एकदम निर्मल है। दूसरों की वस्तुओं के हम इसलिए स्वामी होना चाहते हैं, क्योंकि हम असुरक्षा में जीते हैं । हमें निरन्तर यह भय लगा रहता है कि इस वस्तु के न होने पर, इस नौकर या अंगरक्षक के न होने पर, इस महल या सवारी के न होने पर मेरा जीवन दुभर हो जायेगा। इसलिए इन सबका संग्रह होता है।
दूसरी बात इसमें यह है कि व्यक्ति अपने सुख के सिवाय दूसरे को सुखी नहीं देख सकता। जो देखते हैं वे दूसरों को दूसरा नहीं मानते। इस कारण वस्तुओं का संग्रह करते समय दूसरे का हक छिनने का भी ध्यान नहीं रहता है और ध्यान रहता है तो भी उसकी चिंता करने की आवश्यकता नहीं रहती है। इस कारण उन समस्त वस्तुओं में जिनमें व्यक्ति की सुरक्षा व सुविधा जुड़ी हुई होती है, व्यक्ति का ममत्व हो जाता है। यह ममत्व भाव ही अथवा मूर्छा का विकास ही परिग्रह है।
जैन साधकों का सोचना है कि मात्र बाह्य वस्तुओं के व्यवहार को सीमित कर देना या त्याग देना अपरिग्रह के भाव को नहीं ला सकता । इसके लिए आवश्यक है कि व्यक्ति अपनी आत्मा की शक्ति को पहचाने। उसकी पूर्णता से परिचित हो तो वह व्यर्थ की वस्तुओं से अपने को पूर्ण नहीं बनायेगा। जब वह स्वयं का मालिक बन जायेगा तो अन्य वस्तुओं व व्यक्तियों के मालिक बनने की उसे आवश्यकता नहीं रहेगी, अत: अपरिग्रह होने का अर्थ अभय की प्राप्ति, निर्भय व्यक्ति का संग्रह स्वयमेव सबके लिए वितरित हो जाता है। ___ इस प्रकार जैन साधकों ने इन पाँच व्रतों के मूल में एक सुचिंतित आध्यात्मिक दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया है। आत्मज्ञान की निर्मलता को इनके साधने का साधन माना
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है। जैन साधकों ने अपनी आत्मा को इतना विस्तृत किया है कि प्रत्येक प्राणी में उन्हें अपने समान ही आत्म तत्त्व के दर्शन हुए हैं। अत: उनका समत्व का विकास इन पाँच व्रतों का मूल आधार है। जो साधक इस गहराई तक उतर कर इनकी साधना करेगा उसके आचरण में वह सब अभिव्यक्त होगा, जिनकी अपेक्षा शास्त्रों के विस्तृत वर्णनों में प्राप्त है। अतः श्रमणधर्म में मोक्ष प्राप्त करने का जो चरित्र को साधन माना गया है, उसका अर्थ है कि ऐसा आचरण जो साधक की आत्मा से प्रकट हो। तभी समत्व का विकास समाज के प्रत्येक प्राणी तक हो सकेगा। सर्वोत्तम जीवन पद्धति सात्विक आहार
शाकाहार एक सुविकसित जीवन पद्धति है जिसमें अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य जैसे सात्विक गुणों का महत्व है। इसे छोड़ दुनिया का ऐसा कोई आहार नहीं है जो दूसरों की रक्षा और उसके भरपूर सम्मान में आस्था रखता हो। सम्भव है जब तक मनुष्य ने खेत-खलिहान और बीज वृक्ष के रहस्य को न जाना हो तब तक शिकार पर निर्भर रहा हो और सामिष आहार लेता रहा हो किन्तु जैसे-जैसे वह विकसित होता गया, उसका सांस्कृतिक अभ्युत्थान होता गया, उसके जीवन में हिंसा की अपेक्षा अहिंसा का
और क्रूरता की जगह करुणा का आदर बढ़ गया। अहिंसा मनुष्य की सर्वोत्तम उपलब्धि है। वह उसके साभ्यतिक और सांस्कृतिक विकास का सर्वोत्तम शिखर है। मांसाहार और अहिंसा दोनों समान्तर चले, यह सम्भव नहीं है। वस्तुत: शाकाहार और अहिंसा ही कदम मिलाकर चल सकते हैं।
जब हम आध्यात्मिक दृष्टि से शाकाहार पर विचार करते हैं तब हमारा ध्यान उस सूक्ति पर जाता है, जिसमें कहा गया है कि दुनिया के सारे जीवधारी आत्मवत् है। आत्मवत् सर्वभूतेषु - यदि संसार के सभी प्राणी आत्मवत् हैं तो हमें इस आत्मवत्ता का सम्मान करना चाहिए। जो देश पेड़, पौधों की धड़कन को प्रणाम करता रहा हो तथा अतीत में समृद्ध रहा हो, उसमें यदि कभी दूध की नदियां बही हों तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। अहिंसा हमारे विकास का अपरिहार्य सुफल है, अतः जब भी हम उसके आंचल की छाया छोड़ेंगे, हमें विकट विपदाओं का सामना करना पड़ेगा। पर्यावरण के प्रदूषण होने की समस्या हिंसा से जुड़ी हुई है। अहिंसा प्रदूषण मुक्ति का सर्वोत्तम उपाय है।
शाकाहार के साथ जीवन मूल्यों का जितना घनिष्ट संबंध है उतना अन्य किसी आहार के साथ नहीं है, इसलिये सामाजिक दृष्टि से भी यह आवश्यक है कि सम्पूर्ण
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समाज ऐसे आहार की अनुशंसा करे जिससे समाज पर हिंसा का दबाव कम हो और भाईचारे की संभावना निरन्तर समृद्ध हो । शाकाहार का सीधा और स्वच्छ मतलब है चारों ओर स्नेह और विश्वास का वातावरण बनना और प्रकृति के हर अस्तित्व को भयमुक्त रखना। शाकाहार का दूसरा नाम अभय और निर्विघ्न शान्ति है
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मितव्यता
मितव्यता जैन धर्म दर्शन के व्यावहारिक पहलू की रीढ़ है । मितव्ययता की परिभाषा है - विवेक सम्मत आवश्यकता की पूर्ति के लिए कम से कम वस्तुओं का उपयोग मितव्ययता की पूर्व शर्त है । वैराग्य और त्याग भाव जिससे फलित होता है । पर वस्तुओं की लिप्सा की कमी। कम हो चुकी या होती हुई लिप्साओं के परे वस्तुओं की कम से कम आवश्यकताओं की अनुभूति पैदा होती है। कम होती हुई आवश्यकताओं का मानदण्ड है वस्तुओं का कम से कम मितव्ययी उपयोग ।
जीने के हर कदम पर जैन इस मितव्ययता सूत्र को लागू करते हैं। जितनी कम से कम जरूरत हो, उसी के मुताबिक खनिज, हवा, पानी, ऊर्जा, वनस्पतियां, त्रस जीवों के शरीर और उनकी सेवाएं उपभोग में ली जाएं। जिस आचरण से किसी जीव के सर्वथा प्राण हरण हो, उससे बचा जाए।
श्रमण परम्परा अहिंसक प्रयोगों के उदाहरणों से भरी पड़ी है। तीर्थंकरों ने पर्यावरण के संरक्षण से ही अपनी साधना प्रारम्भ की थी। ऋषभ देव ने कृषि एवं वन सम्पदा को सुरक्षित रखने के लिए लोगों को सही ढंग से जीने की कला सिखाई । नेमिनाथ ने पशुक्षियों के प्राणों के समक्ष मनुष्य की विलासिता को निरर्थक प्रमाणित किया । स्वयं के त्याग द्वारा उन्होंने प्राणी जगत् की स्वतंत्रता की रक्षा की है। पार्श्वनाथ ने धर्म और साधना के क्षेत्र में हिंसक अनुष्ठानों को अनुमति नहीं दी। अग्नि को व्यर्थ में जलाना और पानी को निरर्थक बहा देना भी हिंसा के सूक्ष्म प्रकार हैं ।
महावीर ने जीवन को उन सूक्ष्म स्तरों तक अपनी साधना के द्वारा पहुंचाया, जहाँ हिंसा और तृष्णा असम्भव हो जाए। षट्काय के जीवों की रक्षा में ही धर्म की घोषणा करके महावीर ने पृथ्वी, पानी, वनस्पति, कीड़े-मकोड़े, पशु-पक्षी एवं मानव सबको सुरक्षित करने का प्रयत्न किया तभी उन्होंने कहा- मित्ति मे सव्व भूयेसु वेरं मज्ज ण
ई- मेरी सब प्राणियों से मित्रता है । मेरा किसी से बैर नहीं है। इस सूत्र को जीवन में उतारे बिना संयम नहीं हो सकता, धर्म की साधना नहीं हो सकती, पर्यावरण की सुरक्षा भी नहीं की जा सकती ।
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गृहस्थ जीवन में रहते हुए हिंसा, परिग्रह आदि से बचा नहीं जा सकता, यह ठीक . है। किन्तु जैन साधकों का कहना है कि श्रावक अपनी दृष्टि को सही रखे। जो काम करे, उसके परिणामों से भली भाँति परिचित भी रहे । आवश्यकता की उसे सही पहचान हो। जीवन यापन के लिए किन वस्तुओं की आवश्यकता है, उनको प्राप्त करने के क्या साधन है तथा उनके उपयोग से दूसरों के हित का कितना नुकसान है ? आदि बातों पर विचार कर वह परिग्रह करने में प्रयुक्त हो तो इससे कम से कम कर्मों का बंध होगा। श्रावक के बारह व्रत एवं ग्यारह प्रतिमाएं आदि का पालन गृहस्थ को करना इसी निस्पृही वृत्ति का अभ्यास करना है। इसी से उसके आत्मज्ञान की समझ विकसित होती है।
अपरिग्रही होने के लिए दूसरी बात प्रमाणिक होने की है। उसमें वस्तुओं की मर्यादा नहीं, अपनी मर्यादा करना जरूरी है। सत्य-पालन का अर्थ यह नहीं कि व्यापारिक गोपनीयता को उजागर करता फिरे। इसका आशय केवल इतना है कि आपने जिस प्रतिशत मुनाफे पर व्यापार निश्चित किया है, उसमें खोट ना हो । जिस वस्तु की आप कीमत ले रहे हैं वह मिलावटी न हो और अस्तेय का अर्थ कि आपकी जो व्यापारिक सीमा है उसके बाहर कि वस्तु का आपने अनावश्यक संग्रह नहीं किया है। इन अतिचारों से बचते हुए यदि जैन गृहस्थ व्यापार करता है तो वह देश के व्यापार को प्रमाणिक बनायेगा। आवश्यकता और सामर्थ्य के अनुरूप समृद्ध भी होगा। तब उसकी दुकान और मन्दिर स्थानक में कोई फर्क नहीं होगा। व्यापार और धर्म एक दूसरे के पूरक होंगे। उदार विचार -
मानवीय एवं आर्थिक समानता के साथ-साथ वैचारिक मतभेद भी समाज में द्वन्द को जन्म देते हैं, जिनके कारण समाज रचनात्मक प्रवृत्तियों को विकसित नहीं कर पाता है। वैचारिक मतभेद मानव की सृजनात्मक मानसिक शक्तियों का परिणाम होता है पर इनको उचित रूप में न समझने से मनुष्य मनुष्य के आपसी मतभेद संकुचित संघर्ष के कारण बन जाते हैं और इनसे समाज की शक्ति विघटित हो जाती है। समाज के इस पक्ष को महावीर ने गहराई से समझा और एक ऐसे सिद्धांत की घोषणा की, जिसमें मतभेद भी सत्य को देखने की दृष्टियाँ बन गई और व्यक्ति समझने लगा कि मतभेद दृष्टि पक्षभेद के रूप में ग्राह्य है, मतभेद के रूप में नहीं है । वह सोचने लगा कि मतभेद संघर्ष का कारण नहीं किन्तु विकास का द्योतक है। वह एक उन्मुक्त व्यक्ति की आवाज है। इस तथ्य को प्रकट करने के लिए जैन साधकों ने कहा कि वस्तु एक पक्षीय न होकर, अनेक पक्षीय है । इस वैचारिक उदारता के सामाजिक मूल्य से विचारों का मतभेद भी ग्रहणीय
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बन गया। मनुष्य ने सोचना प्रारम्भ किया कि उसकी दृष्टि से ही सर्वोपरि न होकर दूसरे की दृष्टि भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है। उसने अपने क्षुद्र अहं को गलाना चाहा। अनेकान्त के इस मूल्य ने सत्य के विभिन्न पक्षों को समन्वित करने का एक ऐसा मार्ग खोल दिया कि जिससे सत्य की खोज किसी एक मस्तिष्क की बपौती नहीं रह गई। प्रत्येक व्यक्ति सत्य के एक नये पक्ष की खोज कर समाज को गौरवान्वित कर सकता है। जैन साधकों ने कहा कि ज्ञान की परिसमाप्ति वस्तु के किसी एक पक्ष को जानने में नहीं किन्तु उसके अनन्त पक्षों की खोज में है। भगवान महावीर के इस वैचारिक उदारता के मूल्य ने समाज में व्याप्त अनुचित संघर्ष को समाप्त कर दिया है और लोगों को कन्धे से कन्धा मिलाकर चलने के लिए आह्वान किया । अनेकान्त समाज का गत्यात्मक सिद्धांत है जो जीवन में वैचारिक गति को उत्पन्न करता है। संकीर्णताओं की बन्द खिड़कियों को खोलकर वह उदारता की ताजी हवा से समाज स्वास्थ्य को ठीक रखता है।
आज के युग की सबसे बड़ी समस्या है कि जीवन के प्रति हमारी दृष्टि सही नहीं है। संसार के पदार्थों को, जीवों को, जीवन शैली को हम उस रूप में नहीं देखते हैं या समझते हैं, जैसी वे हैं। इस मिथ्या दृष्टि के कारण ही विश्व की अन्य समस्याएं हमारे सामने हैं । तीर्थंकर महावीर के चिंतन ने प्रमुख कार्य यही किया कि विश्व को समझने के लिए हमें सम्यक् दृष्टि प्रदान की। उन्होंने कहा कि हमको सर्वप्रथम यह समझना होगा कि संसार के सभी प्राणी, पशु, पक्षी, नारी, पुरुष में समानता पूर्वक जीवित रहने की इच्छा है। दुर्घटना या हिंसा से कोई मरना नहीं चाहता। यह भावना कीट, पतंग, पानी, वनस्पति, धरती, पहाड़ तक में है। अतः अपनी आत्मा के समान इन सबके जीवन को भी आदर और सुरक्षा देती है।
जैन आचार संहिता का मूलाधार सम्यक् चरित्र है। जैन ग्रन्थों में चारित्र का विवेचन गृहस्थों और साधुओं की जीवन चर्या को ध्यान में रखकर किया गया है। साधु जीवन के लिए जिस आचरण का विधान किया गया है उसका प्रमुख उद्देश्य आत्मसाक्षात्कार है जबकि गृहस्थों के चरित्र में व्यक्ति और समाज के उत्थान की बात भी सम्मिलित है। इस तरह निवृत्ति एवं प्रवृत्ति मार्ग दोनों का समन्वय जैन आचार-संहिता में हुआ है। आत्म हित और पर हित का सामंजस्य सम्यग्दर्शन और सम्यक्ज्ञान की पृष्ठभूमि में सहज उत्पन्न हो जाता है। निज का स्वार्थ-साधन, दूसरों के प्रति द्वेष और ईर्ष्याभाव तथा हिंसक प्रवृत्ति का त्याग व्यक्ति सम्यक् दर्शन को उपलब्ध होते ही कर देता है। वस्तुओं का सही ज्ञान होते ही वह आत्म कल्याण तथा पर हित की बात सोचने लगता है। उसमें आत्मा के गुणों को जगाने का पुरुषार्थ तथा जगत् के जीवों के प्रति
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करुणा और मैत्री का भाव जागृत हो जाता है । अनेकान्त की वैचारिक उदारता से परिचित होते ही व्यक्ति अनाग्रहपूर्ण जीवन जीने लगता है, अतः उसके कदम सम्यक् चरित्र की भूमि को स्पर्श करने लगते हैं । यहाँ आकर साधक अहिंसा की पूर्ण साधना के लिए ही है | अहिंसा के बिना जैन आचार शून्य है । मानवता का कल्याण अहिंसा में ही सन्निहित है, इसलिए जैन आचार, आहार एवं विचार में इसका सूक्ष्म और मौलिक विवेचन मिलता है ।
विवेक की तलाश :
श्रावक केवल जैन धर्म एवं परम्परा का प्रतिनिधित्व नहीं करता है अपितु वह सम्पूर्ण भारतीय जीवन का संवाहक है। श्रावक के १२ व्रत, उनके ३५ मार्गानुसारी गुण, उसकी सादगी और धर्मपरायणता आदि के विवेचन की पृष्ठभूमि में यदि श्रावक का चित्रांकन कोई करे तो भारत का क्या, विश्व का उससे कोई अच्छा नागरिक नहीं हो सकता है किन्तु इन सभी गुणों से युक्त कोई श्रावक कभी समाज के सामने खड़ा हुआ हो, इतिहास इसका साक्षी नहीं है। आदर्श के इस विशाल मापदण्ड को सामने रख कर परम्परा में अनेक ऐसे श्रावक अवश्य हुए हैं जिन्होंने व्यसन मुक्त जीवन एवं आध्यात्मिक अनुभवों की अनेक सीढ़ियां पार की हैं। इसे मूल्यों के ध्वंस होने का प्रवाह ही कहा जायेगा कि श्रावक का स्वरूप आदर्श की सीढ़ियों पर चढ़ने की बजाय नीचे उतरा है और आज उस धरातल पर पहुँच गया है कि जहाँ श्रावक शब्द की पहिचान मिटने लगी है। भीतर का आदमी भी धूमिल हो गया है। पशुता की श्रेणी में खड़ा हुआ श्रावक का खण्डहर कैसे अपनी पुरानी प्रतिष्ठा को रेखांकित करे, चिंतन क्रियान्विति की ये ही दिशाएं होनी चाहिए।
ज्ञान-विज्ञान और भौतिकता के इस युग में श्रावक का सूर्य उग सकता है। इसके लिए श्रावक को सभी ओर से प्रतिष्ठा और मान्यता देनी होगी । श्रावक भौतिक रूप से आज भले ही उन विधि विधानों और अनुष्ठानों का स्वयं कर्त्ता बन पाये जो कभी उसके लिए अनिवार्य थे। किन्तु उसके प्रति आस्था तो उसे रखनी ही होगी। देव, शास्त्र, गुरु की उपासना पद्धति में आधुनिकता को स्वीकार किया जा सकता है किन्तु उसे नकारा भी नहीं जा सकता है। श्रावक का वेश बदला हुआ हो सकता है किन्तु राग-द्वेष की सीमा रेखा तो उसे ही खींचनी होगी। अष्ठ मूल गुणों का नाम उसे देर से याद हो, कोई बात नहीं किन्तु धन्धे और धर्म की समानता का पाठ उसे पढ़ना ही होगा। अनुप्रेक्षाओं प्रतिमाओं की सीढ़ियां चढ़ने में पीढ़ियां लग जायें तो कोई बात नहीं किन्तु व्यसनों से मुक्त होने की
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शपथ तो उसे हर समय निभानी ही होगी। आधुनिकता की किसी भी कालीन में उसके पांव कितने ही धंसे हों किन्तु उसे आत्मा के निर्मल स्वरूप को मलिन करने का अधिकार श्रावक नहीं दे सकता।
व्यवस्थाओं, अधिकारों, सुविधाओं से उसका आकाश कितना ही भरा हुआ क्यों न हो, प्रार्थना उपासना के कुछ क्षण उसके अपने होने ही चाहिए। यदि ऐसा होता है तो श्रावक फिर जीवित हो उठेगा। श्रावक के जीवित होने का अर्थ है श्रमण धर्म का खिल उठना और श्रमण धर्म खिलने से देश विश्व बिना महके हुए नहीं रहेगा। आज श्रावक रूपी धर्मचक्र खूब गतिशील है किन्तु दुर्भाग्य यह है कि वह श्रमण-धर्म जैन धर्म रूपी गाड़ी में लगा हुआ नहीं है और कोई भी चक्र पहिया अकेला घूमता है तो कहीं पहुंचता नहीं है, केवल अपनी तह में स्याह खड्डा करता है। अत: प्रासंगिकता आज पहिए और गाड़ी को जोड़ने की है। उस विवेक की तलाश है जो नियंत्रण और गति, सिद्धांत और व्यवहार, तब और अब दोनों को जोड़ सके। श्रावकाचार के सभी स्तम्भ तब मंगलकारी बनेंगे विश्व कल्याण के लिए। सन्दर्भ ग्रन्थ : 1. समता : दर्शन और व्यवहार - आचार्यश्री नानेश, बीकानेर, 1985 2. जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप, आचार्यश्री देवेन्द्र मुनि, उदयपुर, 1982 3. डॉ. एस. राधाकृष्णन-धर्म और समाज 4. भगवान महावीर आधुनिक सन्दर्भ में - डॉ. नरेन्द्र भानावत, बीकानेर, 1975 5. अहिंसा के अछूते पहलु, आचार्यश्री महाप्रज्ञ, लाडनूं, 1989 6. तीर्थंकर, श्रावकाचार विशेषांक, सम्पादक - डॉ. नेमीचन्द जैन, इन्दौर, 1985 7. एथिकल डाक्टराइन आफ जैनिज्म - डॉ. के.सी. सोगानी, सोलापुर 8. जैन एथिक्स, डॉ. दयानन्द भार्गव
29, विद्याविहार कॉलोनी उत्तरी सुन्दरवास उदयपुर - 313 001
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श्रावकाचार तब और अब
जितेन्द्र बी. शाह
जैन-धर्म में धर्म आराधना के दो प्रमुख मार्गों का कथन किया गया है। प्रथम मार्ग को अनगार या श्रमण मार्ग कहा गया है। प्रस्तुत मार्ग में साधक सभी सांसारिक बन्धनों का त्याग करके मात्र आत्म कल्याण की साधना में संलग्न रहता है। यह मार्ग आत्म कल्याण की दृष्टि से निश्चित ही श्रेष्ठ होते हुए भी सुलभ और सरल नहीं है। अतः सभी आत्म कल्याण के इच्छुक प्रस्तुत मार्ग के स्वीकार करने में समर्थ नहीं होते हैं। ऐसे साधकों के लिए दूसरे गृहस्थ मार्ग का भी कथन किया गया है। इसी मार्ग को श्रावक या श्रमणोपासक मार्ग कहा गया है। इसमें साधक यथाशक्ति त्याग करके आंशिक व्रत ग्रहण करता है। श्रावक को गृहस्थावस्था में रहते हुए आत्म कल्याण की साधना करनी होती है। अतः उसके लिए व्रताचार आदि का आंशिक आचरण आवश्यक माना गया है।
आज का युग स्पर्धा का युग है। साथ ही साथ बाह्य जगत् में जीवन के मूल्यों में काफी परिवर्तन आ गया है। हालांकि परिवर्तन एक सतत होने वाली प्रक्रिया है तथापि वर्तमान युग में श्रावकों के लिए जो परिवर्तन आया है, वह एक चुनौती रूप में है। आज सारे विश्व में मूल्यों का ह्रास होता जा रहा है। धन ही सर्वस्व बनता जा रहा है। धन प्राप्ति के लिए कोई भी मार्ग का आचरण करना-करवाना वर्ण्य नहीं रहा। तब श्रावक के लिए यह धर्म मार्ग अत्यंत दुष्कर बनता जा रहा है। श्रावक के आचारों का पालन करना - आचरण करना प्रायः मुश्किल बन गया है। अतः प्रस्तुत विषय में चर्चा आवश्यक बन गई है।
वर्तमान में जैन धर्मावलम्बियों के द्वारा वर्ण्य व्यापार के कारण जैन-धर्म का नाम कलंकित हुआ है। एक जमाने में समाज में जो श्रेष्ठी वर्ग सम्माननीय स्थान पर विराजित थे, आज उनका स्थान सामान्य जनता से भी नीचे उतरता जा रहा है। अब वह सम्मान व इज्जत नहीं रही है जो पहले के युग में जैन श्रेष्ठियों को मिलती थी। उसमें भी एक कारण उसके आचार में आई हुई गिरावट ही है।
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इसे व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाए तो श्रावकाचार में काफी गिरावट आई है। जो पूर्वकाल में नहीं रही होगी। किन्तु यहाँ चिन्तनीय प्रश्न यह है कि वर्तमान श्रावकाचार को हम श्रावकाचार कहेंगे या नहीं? यदि हम वर्तमान श्रावकाचार को श्रावकाचार मानें तो शास्त्र विरुद्ध होने से उसे श्रावकाचार होने की कोटि में नहीं रख सकेंगे। यदि वह श्रावकाचार नहीं है तो फिर उससे जैन-धर्म की निन्दा अवश्य होती है। अतः सर्वप्रथम तो हमें यह निर्णय करना होगा कि वर्तमान में दिखाई देने वाला आचार आचार की कोटि में ही नहीं आता, अतः उसे गृहस्थों के लिए सही आचार क्या होना चाहिए? इसका सम्यक्ज्ञान प्रदान करना चाहिए। यह सत्य है कि सही अर्थ में धर्म करने वालों की संख्या हमेशा अल्प ही रहेगी। आठवीं शती के सुप्रसिद्ध समदर्शी आचार्य हरिभद्र ने संबोध प्रकरण में लिखा है कि वर्तमान में सुगुरु एवं श्रावक दुलर्भ है। किन्तु राग द्वेष युक्त गुरु नामधारी गुरुओं एवं श्रावकों की संख्या बहुत है अर्थात् आज से १२०० साल पूर्व भी सम्यक् रूप से श्रावक धर्म का आचरण करने वालों की संख्या तो अल्प ही थी। अत: संख्या के आधार पर आचार की समीक्षा करनी अनुचित ही होगी। हमारा लक्ष्य तो उत्तम श्रावक के लिए उत्तम स्वरूप, आचार कैसा होना चाहिए और उस स्थिति को प्राप्त करने हेतु कैसे, क्या करना चाहिए? यही सोचना है। इस विषय में चर्चा करने से पूर्व स्थानांग सूत्र में वर्जित श्रावकों के विभिन्न प्रकारों की चर्चा आवश्यक है। स्थानांग सूत्र में श्रावक-श्रमणोपासक के चार प्रकार का वर्णन प्राप्त होता है :
१. माता-पिता समान - जिस प्रकार माता-पिता अपने सन्तान का वात्सल्य भाव से पालन पोषण करते हैं, उसी प्रकार साधु साध्वी के प्रति अत्यन्त वात्सल्य भाव रखने वाले केवल उपचार करने से नहीं किन्तु सच्चे मन से साधु की सेवा करने वाले को माता-पिता के समान श्रमणोपासक कहते हैं।
२. भ्रातृ-समान - जिस प्रकार भाई अपने भाई की सदा रक्षा करता है तथापि प्रसंगोपात भाई के हित के लिए एक दो कटु वचन भी कहता है। ऐसा भाई सदृश श्रमणोपासक श्रावक साधु के हित के लिए कभी कटु वचन भी कहता है किन्तु मन में भाई की तरह स्नेह रखता है।
३.मित्र समान - जिस प्रकार मित्र में कुदरती स्नेह नहीं होता है किन्तु औपचारिक स्नेह होता है तथापि उसमें स्वार्थ की भावना नहीं होती है उसी तरह साधु के प्रति स्नेह की वृत्ति रखने वाले श्रावक को मित्र समान श्रावक कहते हैं।
४. सपत्नी समान - जिस तरह सपत्नी अपने प्रियतम की पत्नी के दोष देखने में ही अनुरक्त रहती है उसी तरह ईर्ष्यावश साधु के दोष को देखने की वृत्ति रखने वाले श्रावक को सपत्नी सदृश श्रावक माना गया है।
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इन लक्षणों से हमें ज्ञात होता है कि उस युग में विभिन्न मनोवृत्ति वाले श्रावक होते थे। किन्तु यहाँ ध्यान देने वाली एक प्रमुख बात यह है कि उक्त चारों भेदों में श्रावक का साधु के प्रति आचरण ही प्रमुख रूप से वर्णित है। साधु गुरु पद पर विराजमान होने से गुरु के प्रति जैसा भाव रखा जायेगा वैसा ही जीवन निर्मित होगा, ऐसा इसके पीछे. कारण रहा होगा या जैन-धर्म में श्रावक को श्रमणोपासक माना गया है, अत: श्रमण के प्रति जैसी मनोवृत्ति होगी वैसा ही जीवन निर्मित होगा। प्रस्तुत आगम ग्रन्थ में श्रावक के चार अन्य भेद भी बताये गये हैं, यथा
१. दर्पण सदृश - दर्पण जैसा अर्थात् साधु के उपदेश को यथावत् ग्रहण करके विचलित न होने वाला।
२. पताका सदृश - हवा की दिशा में उड़ने वाली पताका की तरह सतत चंचल चित्त वाला।
३. स्थाणु सदृश - जिस प्रकार शुष्क निरर्थक स्थाणु कभी चलित नहीं होता. उसी प्रकार गुरु के उपदेश से भी जिसका मन प्रतिबोधित न होने वाला |
४. खर कंटक सदृश - जिस प्रकार खर कंटक तीक्ष्ण है और दूसरों को भी पीड़ा देते हैं, उसी प्रकार जो अपने दुराग्रह से चलित न होकर साधु को भी पीड़ा देने वाला श्रावका
उक्त चारों प्रकारों में केवल प्रथम दर्पण सदृश को छोड़कर अन्य तीनों प्रकार के श्रावक त्याज्य ही हैं। जो स्वयं दोषयुक्त परिणाम वाले हैं और दूसरों को पीड़ा देने वाले होते हैं । यहाँ भी देखा जाए तो आदर्श श्रावक की अपेक्षा नामधारी श्रावक को इंगित करने वाले दृष्टांत अधिक हैं, इसीलिए आगम के टीका ग्रन्थों में निक्षेप के आधार पर श्रावक के चार भेदों का वर्णन मिलता है -
१. नाम श्रावक - किसी व्यक्ति का नाम श्रावक हो तो वह संज्ञा वाचक - नामधारी व्यक्ति को नाम श्रावक कहा जाएगा।
२.स्थापना श्रावक - पुस्तक या चित्र में किसी श्रावक विशेष का चित्र या श्रावक की पाषाण प्रतिमा को स्थापना श्रावक कहा जाएगा।
३. द्रव्य श्रावक - जिन्होंने केवल आजीविका के लिए या पद प्रतिष्ठा के लिए श्रावक वेष को धारण किया हो, उसे द्रव्य श्रावक कहा जाएगा।
४. भाव श्रावक - शास्त्र में वर्णित सभी प्रकार के श्रावकों के गुणों से युक्त एवं देव, गुरु, धर्म की आराधना करने वाले को भाव श्रावक माना गया है।
इन चारों भेदों से ज्ञात हो जाता है कि वर्तमान काल में द्रव्य श्रावक की संख्या
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निश्चित रूप से अधिक मिलेगी जबकि भाव श्रावकों की संख्या अल्प ही रहेगी। आगमों में अनेक स्थलों पर श्रावकों के आचार का वर्णन प्राप्त होता है। उवासगदसांग सूत्र में तो श्रावकाचार का विस्तार से वर्णन प्राप्त होता है। उनकी टीकाओं में, नियुक्ति में, चूर्णी में, आवश्यक सूत्र की नियुक्ति, भाष्य एवं चूर्णि में भी श्रावकाचार का विस्तार से वर्णन किया गया है। तत्पश्चात् तत्वार्थाधिगमसूत्र, स्वोपज्ञभाष्य, सावयपण्णत्ति, विशेषावश्यक भाष्य, आचार्य हरिभद्रसूरि कृत धर्म बिन्दु, पंचाशक की अभयदेवसूरीकृत टीका, वंदुत्तु सूत्र एवं उसकी वृत्ति में आचार्य हेमचन्द्र कृत योगशास्त्र में तथा धर्म संग्रह ग्रन्थों में विस्तार से श्रावक धर्म का वर्णन पाया गया है। कर्म ग्रन्थों में गुणस्थानकों के वर्णन में पंचम गुणस्थानक के रूप में श्रावक के आचार का वर्णन प्राप्त होता है। इस वर्णन के आधार पर श्रावक की अवस्था का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है :
जिसने मोह की प्रधान शक्ति दर्शन मोह को शिथिल कर दिया हो और उसके परिणाम स्वरूप सम्यक्दर्शन अर्थात् विवेक की प्राप्ति कर ली हो तथापि जब तक मोहनीय कर्म की चारित्र मोह की स्थिति को शिथिल करने में न आई हो तब तक स्वरूप में स्थिरता प्राप्त नहीं होती है। इसलिए विकासगामी आत्मा विवेक लाभ के पश्चात् चारित्र मोह की स्थिति पर विजय प्राप्त करने का प्रयास करता है। इस प्रयास में अंशत: सफलता प्राप्त होते ही वह विरताविरत की स्थिति अर्थात् देशविरति-श्रावक की अवस्था को प्राप्त करता होता है। इस दशा में साधक अधिक शान्ति का अनुभव करता है। यद्यपि इस अवस्था में वह सम्पूर्ण पाप-व्यापार से मुक्त नहीं होता है, अत: इस अवस्था प्राप्त साधकों के त्याग की अपेक्षा से अनेक प्रकार हो सकते हैं। कोई साधक एक या एक से अधिक व्रत स्वीकार करता है और कोई साधक उससे भी आगे चलकर सभी पाप व्यापार का त्याग करता है, केवल अनुमति रूप व्यापार की ही छूट रखता है, इस प्रकार के साधक सबसे आगे निकलते हैं और जब वे अनुमति का भी त्याग कर देते हैं तब वे सर्वविरति की दशा को प्राप्त हो जाते हैं। इस प्रकार प्राचीन काल में श्रावक की अवस्था का वर्णन प्राप्त होता है।
सातवीं शती के पूर्व तक श्रावक के आचार का वर्णन मुख्य रूप से व्रत ग्रहण के आधार पर ही किया गया है। संबोध प्रकरण पंचाशक एवं धर्म बिन्दु में बताया गया है कि- १. रात्री भोजन का त्यागी, नवकारसी आदि प्रत्याख्यान करने वाला, बावीस अभक्ष्य एवं बत्तीस अनन्तकाय का त्यागी, जिनेश्वर देव का पूजक, सुदेव, सुगुरु एवं सुधर्म को मानने वाला साधक जघन्य श्रावक है। २. बारह व्रतों में से कुछ व्रतों का पालन करने वाला मध्यम श्रावक है। ३. सभी व्रतों का आचरण करने वाला उत्कृष्ट श्रावक माना गया है । - आचार्य हरिभद्र ने इन व्रतों के साथ ही कई अनेक गुणों की आवश्यकता पर जोर
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दिया है। केवल व्रत पालन करना ही पर्याप्त न मानकर जीवन को अधिक गुणवान बनाने वाले गुणों की बात करके एक नई क्रान्तिकारी विचारणा प्रस्तुत की है। इन गुणों की सूची प्राकृत भाषामय गाथाओं में निबद्ध की गई है जो बाद में मन्नह जिणाणं सूत्र के नाम से सुप्रसिद्ध हो गई और पर्व दिनों में उसका प्रतिक्रमण में पाठ करना श्रावकों के . लिए आवश्यक माना गया। प्रस्तुत परम्परा आज भी श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैनों में चली आ रही है। उसमें बताए गए गुणों का वर्णन इस प्रकार है
पर्व के दिनों में पौषध व्रत करने वाला, दान, शील, तप, भावना, स्वाध्याय, नमस्कार, परोपकार,जयणा युक्त आचरण, जिनेश्वर की स्तुति, गुरु की स्तवना, साधर्मिक बंधुओं के प्रति वात्सल्य भाव, शुद्ध आहार में प्रवृत्त, रथ यात्रा और तीर्थयात्रा करने वाला, उपशम विवेक और संवर का आचरण करने वाला, भाषा समिति का पालन करने वाला, छः काय के जीवों पर करुणाभाव रखने वाला, इन्द्रियों का दमन करने वाला, चारित्र के परिणामों को धारण करने वाला, संघ पर बहुमान धारण करने वाला, पुस्तक लिखने व लिखवाने में प्रवृत्त, जिनशासन की प्रभावना करने वाला, जिनशासन के प्रति अनुरक्त और सुगुरु के विनय में तत्पर, इस प्रकार के गुणों से युक्त श्रावक को श्रावक माना गया है। इसके अतिरिक्त श्रावक के २१ गुणों का वर्णन भी प्राप्त होता है । यथा - क्षुद्रता से रहित, रूपवान, स्वभाव से सौम्य, लोकप्रिय, अक्रूर, भवभीरू, अशठ, दाक्षिण्य गुणों से युक्त, लज्जावान, दयालु, माध्यस्थ, सौम्य दृष्टि वाला, गुणानुरागी, सत्यवचनी, अतिदीर्घदर्शी, विशेषज्ञ, वृद्धों के अनुसार आचरण करने वाला, विनयवान, कृतज्ञ, परहितकारी, लब्धलक्ष्यवाला श्रावक कहलाता है । आचार्य हरिभद्र सूरी ने द्रव्य श्रावक के ३५ गुणों की चर्चा की है जो हरिभद्र सूरी का मौलिक अवदान है और बाद के सभी आचार्यों ने उसी का अनुसरण किया है । यथा - १. न्याय सम्पन्न, २. शिष्टाचार प्रशंसक, ३. समान कुलशील वालों के साथ व्यवहार करने वाला, ४. पापभीरू, ५. देशाचार पालक, ६. अवर्णवाद त्यागी, ७. अतिगुप्तग्रह में न रहने वाला, ८. सत्संग करने वाला, ९. अनेक द्वार वाले घर को त्यागने वाला, १०. सुविहित साधुओं का संग करने वाला, ११. माता पिता का पूजक, १२. उपद्रव वाले स्थान का त्याग करने वाला, १३. निंद्य व्यापार निवर्तक, १४. उचित व्यय करने वाला, १५. उद्भटवेश त्यागी, १६. बुद्धि के आठ गुणों से युक्त, १७. धर्म का श्रवण करने वाला, १८. अवसर अनुसार भोजन करने वाला, १९. संतोषी, २०. दानगुणयुक्त, २१. तीन पुरुषार्थ की साधना करने वाला, २२. पवित्र, २३. कदाग्रह रहित, २४. सद्गुणी, २५. गुणपक्षपाती, २६. देशकालानुसार आचरण करने वाला, २७. बलाबल का ज्ञाता, २८. साधु दीन आदि की भक्ति करने वाला,
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२९. अतिदीर्घदर्शी, ३०. विशेषज्ञ, ३१. कृतज्ञ, ३२. पोष्यपाषक, ३३. लोकप्रिय, ३४. लज्जावान्, ३५. सौम्य प्रकृतिवान्।
इस प्रकार आचार्य हरिभद्र ने इन ३५ गुणों की श्रावक में आवश्यकता मानी है। इन गुणों में स्वास्थ्य सम्बंधी, आवास सम्बंधी, व्यवहार संबंधी, जीवन संबंधी सामान्य गुणों की चर्चा की है। यही ३५ गुण मार्गानुसारी के पैंतीस गुण के रूप में भी प्रसिद्ध है । आज इन गुणों का विस्मरण हो चुका है। अतः श्रावक जीवन भी अनेक विपदाओं से युक्त हो गया है। एक तरफ आज व्यक्तित्व विकास और पर्सनालिटी डेवलपमेंट के रूप में लोग हजारों रुपयों का खर्च करके इन्ही गुणों का अभ्यास करते हैं जिनको जैन धर्म के आचार्यों ने श्रावक जीवन के आवश्यक गुणों के रूप में स्वीकार किया है। अतः इन गुणों का जीवन में आविष्कार हो, ऐसे प्रयत्न करने से वर्तमान काल में श्रावक जीवन में आई गिरावट को कुछ हद तक पुनः जीवित कर सकते हैं।
20, सुदर्शन सोसाइटी-2 नारायणपुरा अहमदाबाद - 380013
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श्रावक - आचार की प्रासंगिकता का प्रश्न
जैन-धर्म श्रमण-परम्परा का धर्म है । दूसरे शब्दों में वह निवृत्तिमार्गी या संन्यासमार्गी धर्म है । यह बात भी निस्संकोच रूप से स्वीकार की जा सकती है कि वैदिक - परम्परा के विपरीत इसमें संन्यास को ही जीवन का चरम आदर्श स्वीकार किया है, किन्तु इस आधार पर यह निष्कर्ष निकाल लेना कि जैनधर्म में गृहस्थ या उपासक वर्ग का महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं है, अनुचित ही होगा । चाहे जैनधर्म के प्रारम्भिक युग में संन्यास को अधिक महत्ता मिली हो, किन्तु आगे चलकर जैन-परम्परा में गृहस्थ धर्म को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हो गया है। जैनधर्म में जो चतुर्विध संघ व्यवस्था हुई उसमें साधु-साध्वियों के साथ ही साथ श्रावकों एवं और श्राविकाओं को भी स्थान दिया गया । मात्र यही नहीं, श्रावक और श्राविकाओं को श्रमणों और श्रमणियों के माता-पिता के रूप में स्वीकार किया गया। दूसरे शब्दों में उन्हें साधु साध्वियों का संरक्षक मान लिया गया। वैदिक परम्परा में भी गृहस्थ आश्रम को सभी आश्रमों का मूल बताया गया था । प्रकारान्तर से इसे जैन परम्परा में गृहस्थ वर्ग को श्रमण वर्ग का संरक्षक एवं आधार स्वीकार कर लिया गया। जैन परम्परा में गृहस्थ उपासक न केवल इसलिए महत्त्वपूर्ण था कि वह श्रमणों के भोजन, स्थान आदि आवश्यकताओं की पूर्ति करता था अपितु उसे श्रमण साधकों के चारित्र का प्रहरी भी मान लिया गया। कुछ समय पूर्व तक श्रावक वर्ग की यह महत्ता अक्षुण्ण थी। उसे यह अधिकार प्राप्त था कि यदि कोई साधु या साध्वी श्रमण मर्यादाओं का सम्यक्रूपेण पालन नहीं करता है तो वह उनका वेश लेकर उन्हें श्रमण संघ से पृथक् कर दे। इसी प्रकार मुनि एवं आर्यिका वर्ग में प्रवेश के लिए भी श्रावक संघ की अनुमति आवश्यक थी ।
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प्रो. सागरमल जैन
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वर्तमान युग में साधु साध्वियों के आचार में जो शिथिलता होती जा रही है, उसका एक मात्र कारण यही है कि गृहस्थवर्ग मुनि आचार से अवगत न रहने के कारण अपने उपर्युक्त कार्य को भूल गया है। आज हमें इस बात को बहुत स्पष्ट समझ लेना होगा कि जैन धर्म और संस्कृति की रक्षा का दायित्व मुनि वर्ग की अपेक्षा गृहस्थ वर्ग पर ही अधिक है और यदि वह अपने इस दायित्व की उपेक्षा करेगा, तो अपनी संस्कृति एवं धर्म की सुरक्षा करने में असफल रहेगा।
यह तो हुआ केवल समाज या संघ व्यवस्था की दृष्टि से श्रावक वर्ग का महत्त्व एवं उत्तरदायित्व किन्तु न केवल सामाजिक दृष्टि से अपितु आध्यात्मिक एवं साधनात्मक दृष्टि से भी गृहस्थ का स्थान उतना निम्न नहीं है, जितना कि सामान्यतया मान लिया जाता है। सूत्रकृतांग (२.२.३१) में स्पष्ट रूप में निर्देश है कि 'आरम्भ नो आरम्भ' (गृहस्थधर्म) का यह स्थान भी आर्य है तथा समस्त दुःखों का अन्त करने वाला मोक्ष मार्ग है। यह जीवन भी पूर्णतया सम्यक् एवं साधु है। मात्र यही नहीं, उत्तराध्ययन सूत्र (४.२०) में तो स्पष्ट रूप से यहाँ तक कह दिया है कि चाहे सभी सामान्य गृहस्थों की अपेक्षा श्रमणों को श्रेष्ठ मान लिया जाये किन्तु कुछ गृहस्थ ऐसे भी हैं जो श्रमणों की अपेक्षा संयम के परिपालन में श्रेष्ठ होते हैं। बात स्पष्ट और साफ है कि आध्यात्मिक साधना का सम्बन्ध न केवल वेश से है और न केवल आचार के बाह्य नियम से । यद्यपि समाज या संघ व्यवस्था की दृष्टि में बाह्य आचार नियमों का पालन आवश्यक है। उत्तराध्ययन सूत्र (३६.४१) में स्पष्ट रूप से यह बात भी स्वीकार कर ली गई है कि गृहस्थ जीवन से भी निर्वाण को प्राप्त किया जा सकता है। इस संदर्भ में मरू देवी और भरत के उदाहरण लोकविश्रुत हैं। यदि गृहस्थ धर्म से भी परिनिर्वाण या मुक्ति संभव है तो इस विवाद का कोई अधिक मूल्य नहीं रह जाता कि मुनि धर्म और गृहस्थ धर्म में साधना का कौन सा मार्ग श्रेष्ठ है। वस्तुतः आध्यात्मिक विकास के क्षेत्र में श्रेष्ठता और निम्नता का आधार आध्यात्मिक जागरूकता, अप्रमत्तता और निराकुलता है। जिसने अपनी विषय वासनाओं और कषायों पर नियंत्रण पा लिया है, जिसका चित्त निराकुल और शान्त हो गया है, जो अपने कर्तव्यपथ पर पूरी ईमानदारी से चल रहा है, फिर चाहे वह गृहस्थ हो या मुनि, उसकी आध्यात्मिक श्रेष्ठता में कोई अन्तर नहीं पड़ता। आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में न तो वेश महत्त्वपूर्ण है और न बाह्य आचार अपितु उसमें महत्त्वपूर्ण है अन्तरात्मा की निर्मलता और विशुद्धता। अन्त:करण की निर्मलता ही साधना का मूलभूत आधार है। गृहस्थ धर्म की श्रेष्ठता का प्रश्न :
गृहस्थ धर्म और मुनि धर्म में यदि साधना की दृष्टि से हम श्रेष्ठता की बात करें
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तो भी वस्तुत: गृहस्थ जीवन ही अधिक श्रेष्ठ प्रतीत होगा। वीतरागता की साधना के लिए संन्यास एक निरापद मार्ग है, क्योंकि गृहस्थ जीवन में रहकर वीतरागता की साधना करना अधिक कठिन है। साधक जीवन में विघ्नों से दूर रहकर निर्दोष चरित्र का पालन करना उतना कठिन नहीं है, जितना कि विघ्नों के बीच रह कर उसका पालन करना । संन्यास मार्ग एक ऐसा मार्ग है,जिसमें अनासक्ति या वीतरागता की साधना के लिए विघ्न बाधाओं की सम्भावना कम होती है। संन्यास मार्ग की साधना कठोर होते हुए भी सुसाध्य है, जबकि गृहस्थ मार्ग की साधना व्यावहारिक दृष्टि से सुसाध्य प्रतीत होते हुए भी दुःसाध्य है, क्योंकि आध्यात्मिक विकास के लिए जिस अनासक्त चेतना की आवश्यकता है, वह संन्यस्त जीवन में सहज प्राप्त हो जाती है उसमें चित्त विचलन के अवसर अतिन्यून होते हैं,जबकि गृहस्थ जीवन में चित्त विचलन के अवसर अत्यधिक है। गिरि कन्दरा में रहकर ब्रह्मचर्य का पालन उतना कठिन नहीं है जितना कि नारियों के मध्य रहकर उनका पालन करना कठिन है। प्रेमिका वेश्या के घर में चातुर्मास के लिए स्थित होकर ब्रह्मचर्य की साधना करने वाले स्थूलभद्र को उन सैकड़ों हजारों मुनियों की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ माना गया है, जो गिरिकन्दराओं में रहकर मुनि धर्म की साधना कर रहे थे। क्या विजय सेठ और सेठानी की ब्रह्मचर्य की कठोर साधना की तुलना किसी गृहस्थ जीवन का परित्याग करने वाले मुनि की ब्रह्मचर्य की साधना से की जा सकती है? राग-द्वेष, आसक्ति और ममत्व के प्रसंगों की उपस्थिति गृहस्थ जीवन में अधिक होती है। उन प्रसंगों में जो अपने को निराकुल और नियंत्रित रख सकता है, वह महान् है। - संन्यास मार्ग में तो इन प्रसंगों की उपस्थिति के अवसर ही अत्यल्प होते हैं। अतः संन्यास मार्ग निरापद और सरल है। गृहस्थ धर्म से आध्यात्मिक विकास की ओर जाने वाला मार्ग फिसलन भरा है, जिसमें कदम कदम पर सजगता की आवश्यकता है। यदि साधक एक क्षण के लिए भी वासना के आवेगों में नहीं सम्भला तो उसका पतन हो जाता है। वासनाओं के बवण्डर के मध्य रहते हुए भी उनसे अप्रभावित रहना सरल नहीं है। अतः कह सकते हैं कि गृहस्थ जीवन की साधना मुनि जीवन की साधना की अपेक्षा अधिक दुःसाध्य है और जो ऐसे साधना पथ पर चलकर आध्यात्मिक उच्चता को प्राप्त करता है वह मुनियों की अपेक्षा कई गुना श्रेष्ठ है।
वस्तुतः गृहस्थ धर्म का पालन इसलिए अधिक दुःसाध्य है कि उसमें काजल की कोठरी में रहकर भी अपनी चरित्र रूपी चादर को बेदाग रखना होता है। काजल की कोठरी से बाहर रहकर तो कोई भी चरित्र रूपी चादर को बेदाग रख सकता है, किन्तु कोठरी में रहते हुए उसे बेदाग रख पाना अधिक सजगता और आत्मनियंत्रण की अपेक्षा
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रखता है। फिसलन भरे रास्ते में चलकर जो साधना की ऊंचाइयों तक पहुँचता है, उसकी महत्ता तो कुछ और है। संसाररूपी और वासनारूपी कर्दम में रहकर भी कमल पत्र के समान अलिप्त रहना निश्चय ही महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है।
यद्यपि मेरे यह सब कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि मैं मुनि जीवन की महत्ता और गरिमा को नकार रहा हूँ, इस विषय-वासना रूपी काजल की कोठरी से निकलकर उन पर नियंत्रण कर लेना भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। मुनि जीवन की अपनी साधनागत गरिमा और महत्ता है, उसे मैं अस्वीकार नहीं करता। मेरे कहने का तात्पर्य यही है कि जो गृहस्थ जीवन में रहकर भी साधना की आध्यात्मिक उंचाइयों को छू लेता है तो वह गृहस्थ मुनि से श्रेष्ठ है। उत्तराध्ययन में गृहस्थ को मुनि की अपेक्षा जो श्रेष्ठ कहा गया है, वह इसी अपेक्षा से कहा गया है। अपनी अस्मिता को पहचाने :
___गृहस्थ धर्म की इस महत्ता के प्रतिपादन का एकमात्र उद्देश्य यही है कि हम अपने पद की महत्ता और गरिमा को समझें। वर्तमान संदर्भो में इस महत्ता और गरिमा का प्रतिपादन इसलिए आवश्यक है कि आज का श्रावक वर्ग न केवल अपने कर्तव्यों और दायित्वों को भूल बैठा है, अपितु वह अपनी अस्मिता को भी खो बैठा है। आज ऐसा समझा जाने लगा है कि धर्म और संस्कृति का संरक्षण तथा आध्यात्मिक साधना सभी कुछ साधुओं का काम है। गृहस्थ तो मात्र उपासक है। उसके कर्तव्य की इति श्री साधुसाध्वियों को दान देने तक ही है। आज हमें इस बात का अहसास करना होगा कि जैन धर्म की संघ व्यवस्था में हमारा क्या और कितना गरिमामय स्थान है ? खाट के चार पायों में अगर एक चरमराता और एक टूटता है तो दूसरों का अस्तित्व निरापद नहीं रह सकता। यदि श्रावक वर्ग अपने कर्तव्यों, दायित्वों एवं अपनी गरिमा को विस्मृत करता है तो संघ के शेष घटकों का अस्तित्व निरापद नहीं रह सकता ।
आज गृहस्थ वर्ग न केवल अपने संरक्षक होने के दायित्व को भूला है, अपितु वह स्वयं अपनी अस्मिता को खोकर चारित्रिक पतन की ओर तेजी से गिरता जा रहा है। जब हम ही नहीं संभलेंगे तो दूसरों को सम्भालने की बात क्या करेंगे। आज का गृहस्थ वर्ग जिस पर जैन धर्म और संस्कृति के संरक्षण का दायित्व है उसका ज्ञान आचरण दोनों ही दिशाओं में तेजी से पतन हुआ है। आज हमारी स्थिति यह है कि हमें न तो श्रमण जीवन के नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों का बोध है और न हम गृहस्थ जीवन के आवश्यक कर्तव्यों और दायित्वों के सन्दर्भ में भी कोई जानकारी रखते हैं। आगम-ज्ञान तो बहुत दूर
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की बात है, हमें श्रावक-जीवन के सामान्य नियमों का भी बोध नहीं है। दूसरी ओर जिन सप्त व्यसनों से बचना श्रावक-जीवन की सर्वप्रथम भूमिका है और आध्यात्मिक साधना का प्रथम चरण है और जिनके आधार पर वैयक्तिक, पारिवारिक और सामाजिक सुखशान्ति निर्भर है, वे दुर्व्यसन तेजी से समाज में प्रविष्ट होते जा रहे हैं और वे जितने तेजी से व्याप्त होते जा रहे हैं, हमारे धर्म और संस्कृति के अस्तित्व के लिए एक बहुत बड़ा खतरा है। जैन परिवारों में प्रविष्ट होता हुआ मद्यपान और सामिष आहार क्या हमारी सांस्कृतिक गरिमा के मूल पर ही प्रहार नहीं है? किसी भी धर्म या संस्कृति का टिकाव और विकास उसके ज्ञान और चरित्र के दो पक्षों पर निर्भर करता है, किन्तु आज का गृहस्थ वर्ग इन दोनों ही क्षेत्रों में तेजी से पतन की ओर बढ़ रहा है। आज स्थिति यह है कि धर्म केवल दिखावे में रह गया है। वह जीवन से समाप्त होता जा रहा है।
किन्तु हमें यह याद रखना होगा कि धर्म यदि जीवन में नहीं बचेगा तो उसका बाह्य कलेवर बहुत अधिक दिनों तक कायम नहीं रह पायेगा। जिस प्रकार शरीर से चेतना निकल जाने के बाद शरीर सड़ांध मारने लगता है, वही स्थिति आज धर्म में हो रही है। कुछ व्यक्तिगत उदाहरणों को छोड़कर यदि सामान्य रूप से कहूँ तो आज चाहे वह मुनि वर्ग हो या गृहस्थ वर्ग, जीवन से धर्म की आत्मा निकल चुकी है। हमारे पास केवल धर्म का कलेवर शेष बचा है और हम उसे ढो रहे हैं। यह सत्य है कि विगत कुछ वर्षों में धर्म के नाम पर शोर-शराबा बढ़ा है। भीड़ अधिक इकट्ठी होने लगी है। मजमें जमने लगे हैं। किन्तु मुझे ऐसा लगने लगा है कि यह सब धर्म के कलेवर की अंत्येष्टि की तैयारी से अधिक कुछ नहीं है। ___ सम्भवतः अब हमें सावधान होना चाहिए, अन्यथा हम अपने अस्तित्व को खो चुके होंगे। जैसा कि मैंने पूर्व में कहा- इन सबके लिए अन्तिम रूप से कोई उत्तरदायी ठहराया जायेगा तो वह गृहस्थ वर्ग ही होगा। जैन-धर्म में गृहस्थ वर्ग की भूमिका दोहरी है। वह साधक भी है और साधकों का प्रहरी भी । आज हम श्रावक धर्म की प्रासंगिकता की चर्चा करना चाहते हैं तो हमें पहले उस यथार्थ की भूमिका को देख लेना होगा, जहाँ आज श्रावक वर्ग जी रहा है। श्रावक जीवन के जो आदर्श और नियम हमारे आचार्यों ने प्रस्तुत किए हैं, उनकी प्रासंगिकता तो आज भी उतनी ही है, जितनी उस समय थी। जबकि उनका निर्माण किया गया होगा। क्या सप्त दुर्व्यसनों के त्याग, मार्गानुसारी गुणों के पालन एवं श्रावक के अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रतों की उपयोगिता और प्रासंगिकता को कभी भी नकारा जा सकता है? वे तो मानव जीवन के शाश्वत मूल्य हैं। उनके अप्रासंगिक होने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता है।
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सम्यक् दर्शन : गृहस्थ धर्म का प्रवेश द्वार
श्रावक धर्म की भूमिका प्राप्त करने के पूर्व सम्यग्दर्शन की प्राप्ति आवश्यक मानी गई है। जैन परम्परा में सम्यग्दर्शन के अर्थ में एक विकास देखा जाता है। सम्यग्दर्शन का प्राथमिक अर्थ आग्रह और व्यामोह से मुक्त यथार्थ दृष्टिकोण रहा है, वह यथार्थ वीतराग जीवन दृष्टि था। कालान्तर में वह जिन प्रणीत तत्त्वों के प्रति निश्चल श्रद्धा के रूप में प्रचलित हुआ। वर्तमान संदर्भो में सम्यग्दर्शन का अर्थ देव, गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धा है। सामान्यतया वीतरागी को देव, निर्ग्रन्थ मुनि को गुरु और अहिंसा को धर्म मानने को सम्यक् दर्शन कहा गया है। यह सत्य है कि साधना के क्षेत्र में बिना अटल श्रद्धा या निश्चल आस्था के आगे बढ़ना सम्भव नहीं है 'संशयात्मा विनश्यति' की उक्ति सत्य है। जब तक साधक में श्रद्धा का विकास नहीं होता, तब तक वह साधना के क्षेत्र में प्रगति नहीं कर सकता। न केवल धर्म के क्षेत्र में श्रद्धा की आवश्यकता है अपितु हमारे व्यावहारिक जीवन में भी आवश्यक है। वैज्ञानिक गवेषणा का प्रारम्भ बिना किसी परिकल्पना (Hypothesis) की स्वीकृति के नहीं होता है। गणित के अनेक सवालों को हल करने के लिये प्रारम्भ में हमें मान कर ही चलना होता है। कोई भी व्यवसायी बिना इस बात पर आस्था रखे कि ग्राहक आयेंगे और माल बिकेगा, अपने व्यवसाय का प्रारम्भ नहीं कर सकता। कोई भी पथिक अपने गन्तव्य को जाने वाले मार्ग के प्रति आस्थावान हुए बिना उस दिशा में कोई गति नहीं करता। लोक-जीवन और साधना सभी क्षेत्रों में आस्था और विश्वास अपेक्षित है, किन्तु हमें आस्था (श्रद्धा) और अन्धश्रद्धा में भेद करना होगा। जैन आचार्यों ने गृहस्थोपासक के लिए जिस सम्यक् श्रद्धा की आवश्यकता बताई, वह विवेक समन्वित श्रद्धा है। आचार्य समन्तभद्र ने अपने श्रावकाचार में धर्म के नाम पर प्रचलित लौकिक मूढताओं से बचने का स्पष्ट निर्देश किया है। किन्तु वर्तमान संदर्भो में हमारा सम्यक् दर्शन स्वयं इन मूढ़ताओं से आक्रान्त होता जा रहा है। आज सम्यक् दर्शन को, जो कि आन्तरिक आध्यात्मिक अनुभूति से फलित उपलब्धि है, लेन देन की वस्तु बना दिया गया है। आज हमारे तथाकथित गुरुओं के द्वारा सम्यक्त्व दिया और लिया जा रहा है। कहा जाता है कि अमुक गुरु का सम्यक्त्व वोसरा दो (छोड़ दो) और हमारा सम्यक्त्व ग्रहण कर लो। यह तो सत्य है कि गुरुजन साधक को देव, गुरु और धर्म का यथार्थ स्वरूप बता सकते हैं, किन्तु सम्यक्त्व भी कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जिसे किसी को दिया और लिया जा सकता है। मेरी तुच्छ बुद्धि में यह बात समझ में नहीं आती कि सम्यक्त्व कोई बाहरी वस्तु है जिसे कोई दे या ले सकता है। सम्यक्त्व परिवर्तन के नाम पर आज जो साम्प्रदायिक घेराबंदी की जा रही है, वह मिथ्यात्व के पोषण के अतिरिक्त
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अन्य कुछ नहीं है। उसके आधार पर श्रावकों में दरार डाली जा रही है और लोगों के मन में यह बात बिठाई जा रही है कि हम ही केवल सच्चे गुरु हैं और हम जो कह रहे हैं, वह वीतराग की वाणी है। सम्यक्त्व के यथार्थ रूप से अनभिज्ञ हम गुरुडमवाद के दल-दल में फंसते चले जा रहे हैं।
आज वीतरागता के प्रति हमारी श्रद्धा कितनी जर्जर हो चुकी है इसका प्रमाण यही है कि आज सामान्य मुनिजनों, आचार्यों से लेकर गृहस्थ उपासक तक के लिए सभी लौकिक एषणाओं की पूर्ति के लिए वीतराग की निष्काम भक्ति को भूलकर तीर्थंकर या देवी देवताओं के स्थान पर पद्मावती, चक्रेश्वरी, भोमियां जी, घन्टाकर्ण महावीर और नाकोड़ा भैरव अधिक महत्त्वपूर्ण हो गये हैं। हमारे अधिकांश साधु-साध्वी ही नहीं, आचार्य तक यज्ञों और देवियों की साधना में लगे हुए हैं। वीतरागता के उपासक इस धर्म में आज तन्त्र-मंत्र व जादू टोना सभी कुछ प्रविष्ट होते जा रहे हैं । वीतरागता के साधक कहे जाने वाले मुनि जन भी अपनी चमत्कार-शक्ति का बड़े गौरव के साथ बखान करते हैं। जिस धर्म की उत्पत्ति लौकिक मूढताओं और अन्ध-श्रद्धाओं को समाप्त करने के लिए हुई हो, वही आज अन्ध-विश्वासों में आकण्ठ डूबता जा रहा है । हमारी आस्थाएं वीतरागता के साथ न जुड़कर लौकिक-एषणाओं की पूर्ति के लिए जुड़ रही हैं। आज महावीर के पालने की अपेक्षा लक्ष्मी जी का स्वप्न मंहगा बिकता है। अगर हमारी आस्थाएं धर्म के नाम पर लौकिक एषणाओं की पूर्ति तक ही सीमित है तब फिर हमारा वीतराग के उपासक होने का दावा करना व्यर्थ है। आज जब हम गृहस्थ धर्म की प्रासंगिकता की चर्चा करना चाहते हैं, हमें इस यथार्थ स्थिति को समझ लेना होगा। जीवन में या साधना के क्षेत्र में सम्यक् श्रद्धा की कितनी आवश्यकता है? यह निर्विवाद रूप से सिद्ध है, किन्तु श्रद्धा के नाम पर अन्धविश्वासों का दुश्चक्र हम पर हावी होता जा रहा है, उससे कैसे बचा जाये? आज का महत्त्वपूर्ण प्रश्न है । वस्तुतः इस सबका मूल कारण यह है कि आज श्रावक वर्ग को धर्म के यथार्थ रूप का कोई बोध नहीं रह गया है। हमारी श्रद्धा समझपूर्वक स्थिर नहीं हो रही है, श्रद्धा का तत्त्व व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास कर सकता है। लेकिन वह तभी सम्भव है जब श्रद्धासम्मत हो और हमारी विवेक की आंखें खुली हो। आज हम उस उक्ति को भूल गये हैं, जिसमें कहा गया है कि 'पण्णा समिक्खा धम्मो' अर्थात् धर्म के स्वरूप की प्रज्ञा के द्वारा समीक्षा करो। गृहस्थ धर्म की साधना की आधार-भूमि- कषाय जय
श्रावक धर्म और उनकी प्रासंगिकता की चर्चा करते समय हमें श्रावक आचार के मूलभूत नियमों की वर्तमान युग में क्या उपयोगिता है ? इस पर विचार कर लेना होगा ।
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जैन धर्म के अनुसार श्रावकत्व की भूमिका को प्राप्त करने के लिए सर्व प्रथम व्यक्ति को क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायों की अतितीव्र, अनियन्त्रित, नियंत्रित और अत्यल्प इन चार अवस्थाओं में से प्रथम दो अवस्थाओं पर विजय प्राप्ति अपरिहार्य मानी गयी है। साधक जब तक अपने क्रोध, मान, माया और लोभ पर नियंत्रण रखने की क्षमता को विकसित नहीं कर लेता, तब तक श्राकत्व की भूमिका को प्राप्त करने योग्य नहीं होता है। श्रावक धर्म के पालन के लिए उपर्युक्त चतुर्विध कषायों पर नियन्त्रण की क्षमता का विकास आवश्यक है। जब तक व्यक्ति अपने क्रोध, मान, माया, लोभ- इन चार कषायों पर किसी भी प्रकार का नियंत्रण कर पाने में अक्षम होता है, तब तक वह श्रावक धर्म की साधना नहीं कर सकता । क्रोध, मान, माया और लोभ की प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण कर लेने की क्षमता का विकसित हो जाना ही श्रावक धर्म की उपलब्धि का प्रथम चरण है।
वर्तमान सन्दर्भों में इन चारों अशुभ आवेगों के नियंत्रण की उपयोगिता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। जैनागमों के अनुसार क्रोध का तत्व पारस्परिक सौहार्द (प्रीति) को समाप्त करता है और सौहार्द के अभाव में एक दूसरे के प्रति सन्देह और आशंका होती है । यह स्पष्ट है कि सामाजिक जीवन में पारस्परिक अविश्वास और आशंकाओं के कारण असुरक्षा का भाव पनपता है और फलतः हमें अपनी शक्ति का बहुत कुछ अपव्यय करना पड़ता है। आज अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में जो शस्त्र संग्रह और सैन्य बल बढ़ाने की प्रवृत्ति परिलक्षित हो रही है और जिस पर अधिकांश राष्ट्रों की राष्ट्रीय आय का ५० प्रतिशत से अधिक व्यय हो रहा है। वह सब इन पारस्परिक अविश्वास का परिणाम है। आज धार्मिक और सामाजिक जीवन में जो असहिष्णुता है, उसके मूल में घृणा, विद्वेष एवं आक्रोश का तत्व ही है । यह ठीक है कि व्यक्ति जब तक परिवार, समाज एवं राष्ट्र से जुड़ा है, उसमें किसी सीमा तक क्रोध या आक्रोश होना आवश्यक है अन्यथा उसका अस्तित्व ही खतरे में होगा । किन्तु उसे नियन्त्रण में होना चाहिए और अपरिहार्य स्थिति में ही उसका प्रकटन होना चाहिए।
हमारे पारस्परिक सामाजिक सम्बंधों में दरार का दूसरा महत्त्वपूर्ण कारण व्यक्ति का अहंकार या घमण्ड है। एक गृहस्थ के लिए यह आवश्यक है कि वह अपनी अस्मिता एवं स्वाभिमान का बोध रखे किन्तु उसे अपने अहंकार पर नियंत्रण रखना आवश्यक है I समाज में जो विघटन या टूटन पैदा होती है, उसका मुख्य कारण समाज के कर्णधारों, फिर चाहे वे गृहस्थ हों या मुनि, का अहंकार ही है । अहंकार और उसके परिणाम स्वरूप सामाजिक सम्बन्धों में दरार पड़ने लगती है । अहंकार पर चोट लगते ही व्यक्ति अपना
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अलग अखाड़ा जमा लेता है, जिसके परिणाम स्वरूप धार्मिक एवं साम्प्रदायिक संघर्ष होते हैं। सभी साम्प्रदायिक अभिनिवेशों के पीछे कुछ व्यक्तियों के अपने अहं के पोषण की भावना के अतिरिक्त अन्य कोई कारण नहीं है। कपट-वृत्तियाँ दोहरा जीवन का एक सबसे बड़ा अभिशाप है। झूठे अहं के पोषण के निमित्त अथवा अपने व्यक्तिगत स्वार्थों को साधने के लिए छल-दम्भ सामाजिक जीवन में बढ़ रहे हैं, उनका मूलभूत कारण कपट वृत्ति माया ही है।
इस प्रकार अनियंत्रित लोभ संग्रह-वृत्ति का विकास करता है और उसके कारण शोषण पनपता है और परिणाम स्वरूप समाज में गरीब और अमीर की खाई बढ़ती जाती है। पूँजीपति और श्रमिकों के मध्य होने वाला वर्ग संघर्ष इसी लोभ वृत्ति या संग्रह वृत्ति का परिणाम है। आज जैन समाज में अपरिग्रह की अवधारणा का कोई अर्थ ही नहीं रह गया है। उसे केवल मुनियों के सन्दर्भ में ही समझा जाने लगा है। जैनधर्म में गृहस्थोपासक के लिए धनार्जन का निषेध नहीं किया गया, पर यह अवश्य कहा गया है कि व्यक्ति को एक सीमा से अधिक संचय नहीं करना चाहिए। उसकी संचय वृत्ति या लोभ पर नियंत्रण होना चाहिए। आज समाज में जो आर्थिक वैषम्य बढ़ता जा रहा है,उसके पीछे अनियंत्रित लोभ या संग्रह-वृत्ति ही मुख्य है। यदि धनार्जन के साथ ही व्यक्ति की अपने भोग की वृत्ति पर अकुंश होता है और संग्रह वृत्ति का परिसीमन होता है, तो वह अर्जित धन का प्रवाह लोक-मंगल के कार्यों में बहता है। जिससे सामाजिक सौहार्द और सहयोग बढ़ता है तथा धनवानों के प्रति अभावग्रस्तों के मन में सद्भाव उत्पन्न होता है। जैन धर्म के इतिहास में ऐसे अनेक श्रावक रत्नों के उदाहरण हैं, जिन्होंने अपनी समग्र सम्पत्ति को समाज हित में समर्पित कर दी, आज उसी आदर्श के पुनर्जागरण की आवश्यकता है।
संक्षेप में सामाजिक जीवन में जो भी विषमता और संघर्ष वर्तमान में है, उन सबके पीछे कहीं न कहीं अनियंत्रित आवेश, अहंकार, छल-दम्भ, कपट वृत्ति तथा संग्रह वृत्ति है। इन्हीं अनियंत्रित कषायों के कारण सामाजिक जीवन में विषमता और अशान्ति उत्पन्न होती है। आवेश या अनियंत्रित क्रोध के कारण पारस्परिक संघर्ष, आक्रमण, युद्ध एवं हत्याएं होती हैं। आवेशपूर्ण व्यवहार दूसरों के मन में अविश्वास उत्पन्न करता है और फलतः सामान्य जीवन में जो सौहार्द होना चाहिए, वह भंग हो जाता है। वर्ग या अहंकार की मनोवृत्ति के कारण ऊंच नीच का भेद भाव, पारस्परिक घृणा और विद्वेष पनपते हैं। सामाजिक जीवन में जो दरारें उत्पन्न होती हैं, उनका आधार अहंकार ही होता है। माया या कपट की मनोवृत्ति भी जीवन को छल दम्भ से युक्त बनाती है। इससे जीवन में दोहरापन
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आता है तथा अन्तः बाह्य की एकरूपता समाप्त हो जाती है। फलतः मानसिक एवं सामाजिक शान्ति भंग होती है। सग्रह की मनोवृत्ति के कारण शोषण और व्यावसायिक जीवन में अप्रामाणिकता फलित होती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि श्रावक जीवन में कषाय-चतुष्टय पर जो नियंत्रण लगाने की बात कही गई है, वह सौहार्द एवं सामंजस्यपूर्ण जीवन एवं मानसिक तथा सामाजिक शान्ति के लिए आवश्यक है। उसकी प्रासंगिकता कभी भी नकारी नहीं जा सकती है। सप्त दुर्व्यसन-त्याग और उसकी प्रासंगिकता:___सप्त दुर्व्यसनों का त्याग गृहस्थ-धर्म की साधना का प्रथम चरण है। उनके त्याग को गृहस्थ आचार के प्राथमिक नियम या मूल गुणों के रूप में स्वीकार किया गया है। वसुनन्दि श्रावकाचार में सप्त दुर्व्यसनों के त्याग का विधान है। आज भी दुर्व्यसन-त्याग गृहस्थ धर्म का प्राथमिक एवं अनिवार्य चरण माना जाता है। सप्त दुर्व्यसन निम्न हैं - १ द्यूत-क्रीड़ा (जुआ) २ मांसाहार ३ मद्यपान ४ वेश्यागमन ५ परस्त्रीगमन ६ शिकार
और ७ चौर्य-कर्म - इन सप्त दुर्व्यसनों के सेवन से व्यक्ति का कितना चारित्रिक पतन होता है, इसे हर कोई जानता है।
१. द्यूत-क्रीड़ा- वर्तमान युग में सट्टा, लाटरी आदि द्यूत-क्रीड़ा के विविध रूप प्रचलित हो गये हैं। इनके कारण अनेक परिवारों का जीवन संकट में पड़ जाता है। अतः इस दुर्व्यसन के त्याग को कौन अप्रासंगिक कह सकता है। द्यूत-क्रीड़ा के त्याग की प्रासंगिकता के सम्बन्ध में कोई भी विवेकशील मनुष्य दो मत नहीं हो सकता। वस्तुतः वर्तमान युग में द्यूत-क्रीड़ा के जो विविध रूप हमारे सामने आये हैं, उनका आधार केवल मनोरंजन नहीं है। अपितु उसके पीछे बिना किसी श्रम के अर्थोपार्जन की दुष्प्रवृत्ति है। सटटे के व्यवसाय का प्रवेश जैन परिवारों में सर्वाधिक हुआ है। व्यक्ति जब इस प्रकार के धन्धे में अपने को नियोजित कर लेता है, तो श्रमपूर्वक अर्थोपार्जन के प्रति उसकी निष्ठा समाप्त हो जाती है। ऐसी स्थिति में चोरी, ठगी आदि दूसरी बुराइयाँ पनपती हैं। आज इसके प्रकट-अप्रकट विविध रूप हमारे समक्ष आ रहे हैं। उनसे सतर्क रहना आवश्यक है अन्यथा हमारी भावी पीढ़ी में श्रमपूर्वक अर्थोपार्जन की निष्ठा समाप्त हो जायेगी। यद्यपि इस दुर्गुण का प्रारम्भ एक मनोरंजन के साधन के रूप में होता है, किन्तु आगे चलकर भयंकर परिणाम उपस्थित कर सकता है। जैन समाज के सम्पन्न परिवारों में और विवाह आदि प्रसंगों पर इसका जो प्रचलन बढ़ता जा रहा है, उसके प्रति हमें सजग दृष्टि रखनी होगी अन्यथा उनकी दुष्परिणामों को भुगतना होगा। आज का युवा वर्ग जो इन प्रवृत्तियों में रस लेता है, इसके दुष्परिणामों को जानते हुए अपनी भावी पीढ़ी को इससे रोक पाने में असफल रहेगा।
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२. मांसाहार — विश्व में यदि शाकाहार का पूर्ण समर्थक कोई धर्म है, तो वह मात्र जैन-धर्म है। जैन धर्म में गृहस्थोपासक के लिए मांसाहार सर्वथा त्याज्य माना गया है किन्तु आज समाज में मांसाहार के प्रति एक ललक बढ़ती जा रही है और अनेक जैन परिवारों में उसका प्रवेश हो गया है । अतः इसकी प्रासंगिकता पर चर्चा करना अति आवश्यक है। मांसाहार पर निषेध के पीछे मात्र हिंसा और अहिंसा का प्रश्न ही नहीं, अपितु अन्य दूसरे भी कारण हैं । यह सत्य है कि मांस का उत्पादन बिना हिंसा के सम्भव नहीं है और हिंसा क्रूरता के बिना सम्भव नहीं है। यह सही है कि मानवीय आहार के अन्य साधनों में भी किसी सीमा तक हिंसा जुड़ी हुई है किन्तु मांसाहार के निमित्त जो हिंसा या वध, कर्त्ता का अधिक क्रूर होना अनिवार्य है । क्रूरता के कारण दया, करुणा, आत्मीयता जैसे कोमल गुणों का ह्रास होता है और समाज में भय, आतंक एवं हिंसा का ताण्डव प्रारम्भ हो जाता है । यह अनुभूत सत्य है कि सभी देश एवं कौमें, जो मांसाहारी हैं और हिंसा जिनके धर्म का एक अंग मान लिया गया है, उनमें होने वाले हिंसक ताण्डव को देखकर आज भी दिल दहल उठता है। मुस्लिम राष्ट्रों में आज मनुष्य के जीवन का मूल्य गाजर और मूली से अधिक नहीं रह गया है । केवल व्यक्तिगत हितों के लिए ही धर्म और राजनीति के नाम पर वहाँ जो कुछ हो रहा है, वह हम सभी जानते हैं । यदि हम यह मानते हैं कि मानव जीवन से क्रूरता समाप्त हो और कोमल गुणों का विकास हो, तो हमें उन कारणों को भी दूर करना होगा, जिनसे जीवन में क्रूरता आती है। मांसाहार और क्रूरता पर्यायवाची है । यदि दया, करुणा, वात्सल्य का विकास करना है, तो मांसाहार का त्याग अपेक्षित है। दूसरे, मांसाहार की निरर्थकता को मानव शरीर की संरचना के आधार पर भी सिद्ध किया जा सकता है। मानव शरीर की संरचना उसे निरामिष प्राणी ही सिद्ध करती है । मांसाहार मानव स्वास्थ्य के लिए कितना हानिकारक है, यह बात अनेक वैज्ञानिक अनुसंधानों से प्रमाणित हो चुका है । इस लघु निबंध में उस सब की चर्चा कर पाना तो सम्भव नहीं है, किन्तु यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि मांसाहार शारीरिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है और मनुष्य स्वभावतः शाकाहारी प्राणी है I
मांसाहार के समर्थन में सबसे बड़ा तर्क यह दिया जाता है कि बढ़ती हुई मानवजाति की आबादी को देखते हुए भविष्य में मांसाहार के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प शेष नहीं रहेगा जिससे मानव जाति की क्षुधा को शान्त किया जा सके। उसके विपरीत कृषि के क्षेत्र में भी ऐसे अनेक वैज्ञानिक प्रयोग हुए हैं और हो रहे हैं जो स्पष्ट रूप से यह प्रतिपादित करते हैं कि मनुष्य को अभी शताब्दियों तक निरामिष भोजी बनाकर जिलाया जा सकता है। अनेक आर्थिक सर्वेक्षणों में यह भी प्रमाणित हो चुका है कि शाकाहार
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मांसाहार की अपेक्षा अधिक सुलभ और सस्ता है। अतः मनुष्य की स्वाद-लोलुपता के अतिरिक्त और कोई तर्क ऐसा नहीं है, जो मांसाहार का समर्थक हो सके। शक्तिदायक आहार के रूप में मांसाहार के समर्थन का एक खोखला दावा है। यह सिद्ध हो चुका है कि मांसाहारियों की अपेक्षा शाकाहारी अधिक शक्ति सम्पन्न होते हैं और उनमें अधिक काम करने की क्षमता होती है। शेर आदि मांसाहारी प्राणी शाकाहारी प्राणियों पर जो विजय प्राप्त कर लेते हैं, उसका कारण उनकी शक्ति नहीं बल्कि उनके नख, दांत आदि क्रूर शारीरिक अंग ही हैं। __ जैन समाज के लिए आज यह विचारणीय प्रश्र है कि वह समाज में बढ़ती जा रही सामिष-भोजन की ललक को कैसे रोके? आज आवश्यकता इस बात की है कि हमें मांसाहार और शाकाहार के गुण दोषों की समीक्षा करते हुए तुलनात्मक विवरण से युक्त ऐसा साहित्य प्रकाशित करना होगा, जो आज के युवक को तर्क-संगत रूप से यह अहसास करवा सके कि मांसाहार की अपेक्षा शाकाहार एक उपयुक्त भोजन है। दूसरे समाज में जो मांसाहार के प्रति ललक बढ़ती जा रही है,उसका कारण समाज-नियंत्रण का अभाव तथा मांसाहारी समाज में बढ़ता हुआ घनिष्ठ परिचय है, जिस पर किसी सीमा तक अंकुश लगाना आवश्यक है।
३. मद्यपान - तीसरा दुर्व्यसन मद्यपान माना गया है और गृहस्थोपासक को इसके त्याग का स्पष्ट निर्देश दिया गया है। बुद्ध ने तो इस दुष्प्रवृत्ति को रोकने के लिए अपने पंचशील में अपरिग्रह के स्थान पर मद्यपान निषेध को स्थान दिया था। यह एक ऐसी बुराई है जो मानव समाज के गरीब और अमीर दोनों ही वर्गों में हावी है। जैन परम्परा में मद्यपान का निषेध न केवल इसलिये किया गया कि वह हिंसा से उत्पादित है, अपितु इसलिए कि इससे मानवीय विवेक कुण्ठित होता है और जब मानवीय विवेक कुण्ठित हो जायेगा तो दूसरी सारी बुराइयाँ व्यक्ति के जीवन में स्वभाविक रूप से प्रविष्ट हो जायेगी। आर्थिक और चारित्रिक सभी प्रकार के दुराचरणों के मूल में नशीले पदार्थों का सेवन है। सामान्यतया यह कहा जा सकता है कि मादक द्रव्यों के सेवन से मनुष्य अपनी मानसिक चिंताओं को भूलकर अपने तनावों को कम करता है, किन्तु यह एक भ्रान्त धारणा ही है। तनाव के कारण जीवित रखकर केवल क्षण भर के लिए अपने विवेक को खोकर विस्मृति के क्षणों में जाना, तनावों के निराकरण एवं परिमार्जन का सार्थक उपाय नहीं है। मद्यपान को सभी दुर्गुणों का द्वार कहा गया है। वस्तुत: उसकी समस्त बुराइयों पर विचार करने के लिए एक स्वतंत्र निबंध आवश्यक होगा। यहाँ केवल इतना कहना पर्याप्त है कि सारी बुराइयाँ विवेक के कुण्ठित होने पर पनपती हैं और मद्यपान विवेक
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को कुण्ठित करता है। अतः मनुष्य के मानवीय गुणों को जीवित रखने के लिए इसका त्याग आवश्यक है।
मनुष्य और पशु के बीच यदि कोई विभाजक रेखा है तो वह विवेक ही है और जब विवेक ही समाप्त हो जायेगा तो मनुष्य और पशु में कोई अन्तर ही नहीं रह जायेगा। मादक द्रव्यों का सेवन मनुष्य को मानवीय स्तर से गिराकर उसे पाशविक स्तर पर पहुँचा देता है। यह भी एक सुविदित तथ्य है कि जब यह दुर्व्यसन गले लग जाता है तो अपनी अति पर पहुँचाए बिना समाप्त नहीं होता । वह न केवल विवेक को समाप्त करता है अपितु आर्थिक और शारीरिक दृष्टि से व्यक्ति को जर्जर बना देता है। आज जैन समाज के सम्पन्न परिवारों में यह दुर्व्यसन भी प्रवेश कर चुका है। मैं ऐसे अनेक परिवारों को जानता हूँ जो धर्म के क्षेत्र में अग्रणी श्रावक माने जाते हैं किन्तु इस दुर्व्यसन से मुक्त नहीं हैं। आज हमें इस प्रश्न पर गम्भीरता से विचार करना होगा कि समाज को इससे किस प्रकार बचाया जाए। जैन समाज ने जो चारित्रिक गरिमा, आर्थिक सम्पन्नता तथा समाज में प्रतिष्ठा अर्जित की थी उसका मूलभूत आधार इन दुर्व्यसनों से दूर रहना ही था। इन दुर्व्यसनों के प्रवेश के साथ हमारी चारित्रिक उच्चता और सामाजिक प्रतिष्ठा धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है। और तब एक दिन ऐसा भी आयेगा जब हम अपनी आर्थिक सम्पन्नता से हाथ धो बैठेंगे। यदि हम सजग नहीं हुए तो भविष्य हमें क्षमा नहीं करेगा।
४. वेश्यागमन- श्रावक के सप्त दुर्व्यसन-त्याग के अन्तर्गत वेश्यागमन के त्याग का भी विधान किया गया है। यह सुनिश्चित सत्य है कि वेश्यागमन न केवल सामाजिक दृष्टि से अवांछनीय है अपितु आर्थिक एवं शारीरिक-स्वास्थ्य की दृष्टि से भी अवांछनीय माना गया है। उसके अनौचित्य पर यहाँ कोई विशेष चर्चा करना आवश्यक प्रतीत नहीं होती। सामाजिक सदाचार और पारिवारिक सुख शान्ति के लिए वेश्यागमन का त्याग उचित ही है।
यह एक शुभ संकेत ही है कि न केवल जैन समाज में अपितु समग्र भारतीय समाज में वेश्यागमन की प्रवृत्ति और वेश्यावृत्ति धीरे-धीरे क्षीण होती जा रही है। यद्यपि इस प्रवृत्ति के जो दूसरे रूप सामने आ रहे हैं वे उसकी अपेक्षा अधिक चिन्तनीय है। यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि चाहे खुले रूप में वेश्यावृत्ति पर कुछ अंकुश लगा हो, किन्तु छद्मरूप में यह प्रवृत्ति बढ़ी ही है। जैन समाज के सम्पन्न वर्ग में इन छद्मरूपों के प्रति ललक बढ़ती जा रही है, जिस पर अंकुश लगाना आवश्यक है।
५. परस्त्रीगमन - परस्त्रीगमन परिवार एवं समाज व्यवस्था का घातक है, इसके परिणाम स्वरूप न केवल एक ही परिवार का जीवन दूषित एवं अशान्त बनता है, अपितु
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अनेक परिवारों के जीवन अशान्त बन जाते हैं । वेश्यावृत्ति की अपेक्षा यह अधिक दोषपूर्ण है क्योंकि इसमें छद्म, और जीवन का दोहरापन भी जुड़ जाता है । अत: सामाजिक दृष्टि से यह बहुत बड़ा अपराध है । आज कामवासना की तृप्ति का यह छद्म रूप अधिक फैलता जा रहा है। पाश्चात्य देशों की वासनात्मक उच्छृंखलता का प्रभाव हमारे देश में हुआ है। क्लबों और होटलों के माध्यम से यह विकृति अधिक तेजी से व्याप्त होती जा रही है। जैन समाज का कुछ सम्पन्न एवं धनी वर्ग इसकी गिरफ्त में आने लगा है। यद्यपि अभी समाज का बहुत बड़ा भाग इस दुगुर्ण से मुक्त है किन्तु धीरे-धीरे फैल रही विकृति के प्रति सजग होना आवश्यक है।
६. शिकार - मनोरंजन के निमित्त अथवा मांसाहार के लिए जंगल के प्राणियों का वध करना शिकार कहा जाता है। यह व्यक्ति को क्रूर बनाता है । यदि मनुष्य के मानवीय गुणों से युक्त बनाये रखना है तो इस प्रवृत्ति का त्याग अपेक्षित है । आज शासन द्वारा भी वन्य प्राणियों के संरक्षण के लिए शिकार की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया जा रहा है । अत: इस प्रवृत्ति के त्याग का औचित्य निर्विवाद है । आज हम इस बात को गौरव से कह सकते हैं कि जैन समाज इस दुगुर्ण से मुक्त है, किन्तु आज सौंदर्य-प्रसाधनों, जिनका उपयोग समाज में धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है, इस निमित्त अव्यक्त रूप से हो रही हिंसा के प्रति सजग रहना आवश्यक है, क्योंकि उनका उत्पादन उपभोक्ताओं के निमित्त ही होता है और यदि हम उनका उपभोग करते हैं तो उस हिंसा व क्रूरता से अपने को बचा नहीं सकते। सौन्दर्य प्रसाधनों के निर्माण एवं परीक्षण के निमित्त हिंसा के जो क्रूरतम रूप अपनाये हैं वे जैन पत्र-पत्रिकाओं में बहुचर्चित रहे हैं । अतः उन सब पर यहाँ विचार करना आवश्यक प्रतीत नहीं होता । किन्तु इस सन्दर्भ में हमें सजग अवश्य रहना चाहिए कि हम क्रूरता के भागी न बनें।
७. चौर्य-कर्म - दूसरों की सम्पत्ति या दूसरों के अधिकार की वस्तुओं को उनकी बिना अनुमति के ग्रहण करना चोरी है। अपनी आवश्यकता से अधिक संग्रह और संचय को भी चोरी कहा जा सकता है। जैनाचार्यों ने व्यावसायिक अप्रामाणिकता कर, अप्रवंचन तथा राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध कार्य करना आदि को भी चोरी के अन्तर्गत माना है । यद्यपि सामान्यतया जैन परिवार इस दुर्व्यसन से मुक्त कहे जा सकते हैं किन्तु जैनाचार्यों ने इसकी जो सूक्ष्म व्याख्या की है, उस आधार पर आज का गृहस्थ वर्ग इस दुर्व्यसन से कितना मुक्त है, यह कहना कठिन है । व्यावसायिक अप्रामाणिकता और कर अप्रवंचन आज सामान्य हो गये हैं । व्यावसायिक अप्रामाणिकता के इस युग में इसकी प्रासंगिकता को नकारा तो नहीं जा सकता किन्तु वर्तमान युग में कौन इससे कितना बच सकेगा, इस पर व्यावहारिक दृष्टि से विचार करना अपेक्षित है।
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गृहस्थ जीवन की व्यावहारिक नीति :
गृहस्थ-जीवन में कैसे जीना चाहिए ? इस सन्दर्भ में थोड़ा निर्देश आवश्यक है । गृहस्थ उपासक का व्यावहारिक जीवन कैसा हो, इस सन्दर्भ में जैन आगमों में यत्र-तत्र बिखरे हुए कुछ निर्देश मिल जाते हैं। लेकिन बाद के जैन विचारकों ने कथा साहित्य, उपदेश साहित्य एवं आचार - सम्बंधी साहित्य में इस सन्दर्भ में एक निश्चित रूप रेखा प्रस्तुत की है, यह एक स्वतन्त्र शोध का विषय है । हम अपने विवेचन को आचार्य नेमीचंद्र के प्रवचनसारोद्धार, आचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र तथा पं. आशाधर जी के सागरधर्मामृत तक ही सीमित रखेंगे।
सभी विचारकों की यह मान्यता है कि जो व्यक्ति जीवन के सामान्य व्यवहारों में कुशल नहीं है, वह आध्यात्मिक जीवन की साधना में आगे नहीं बढ़ सकता । धार्मिक या आध्यात्मिक होने के लिए व्यावहारिक या सामाजिक होना पहली शर्त है । व्यवहार से ही परमार्थ साधा जा सकता है। धर्म की प्रतिष्ठा के पहले जीवन में व्यवहार पटुता एवं सामाजिक जीवन जीने की कला का आना आवश्यक है। जैनाचार्यों ने इस तथ्य को बहुत पहले ही समझ लिया था । अतः अणुव्रत साधना के पूर्व ही इन योग्यताओं का सम्पादन आवश्यक है ।
आचार्य हेमचन्द्र ने इसे मार्गानुसारी गुण कहा है। धर्म मार्ग का अनुसरण करने के लिए इन गुणों का होना आवश्यक है। उन्होंने योगशास्त्र के द्वितीय और तृतीय प्रकाश में निम्न ३५ मार्गानुसारी गुणों का विवेचन किया है :
१. न्याय - नीतिपूर्वक ही धनोपार्जन करना । २. समाज में जो ज्ञानवृद्ध और वयोवृद्ध शिष्ट- जन हैं, उनका यथोचित सम्मान करना, उनसे शिक्षा ग्रहण करना और उनके आचार की प्रशंसा करना । ३. समान कुल और आचार विचार वाले, स्वधर्मी किन्तु भिन्न गोत्रोत्पन्न जनों की कन्या के साथ विवाह करना । ४. चोरी, परस्त्रीगमन असत्यभाषण आदि उपक्रमों का ऐहिक - पारलौकिक, कटुक - विपाक जानकर पापाचार का त्याग करना । ५. अपने देश के कल्याणकारी आचार-विचार एवं संस्कृति का पालन करना, संरक्षण करना । ६. दूसरों की निन्दा न करना । ७. ऐसे मकान में निवास करना जो न अधिक खुला, न अधिक गुप्त हो, जो सुरक्षा वाला भी हो और जिसमें अव्याहत वायु एवं प्रकाश आ सके । ८. सदाचारी जनों की संगति करना । ९ माता-पिता का सम्मानसत्कार करना, उन्हें सब प्रकार से सन्तुष्ट रखना । १०. जहाँ वातावरण शान्तिप्रद न हो जहाँ निराकुलता के साथ जीवन यापन करना कठिन हो, ऐसे ग्राम या नगर में निवास न करना । ११. देश जाति एवं कुल से विरुद्ध कार्य न करना जैसे मदिरा पान आदि ।
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१२. देश और काल के अनुसार वस्त्राभूषण धारण करना। १३. आय से अधिक व्यय न करना और अयोग्य क्षेत्र में व्यय न करना। आय के अनुसार वस्त्र पहनना। १४. धर्मश्रवण की इच्छा रखना, अवसर मिलने पर श्रवण करना, शास्त्रों का अध्ययन करना, उन्हें स्मृति में रखना, जिज्ञासा से प्रेरित होकर शास्त्र-चर्चा करना विरुद्ध अर्थ से बचना, वस्तुस्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना, तत्त्वज्ञ बनना, बुद्धि के आठ गुणों को प्राप्त करना। १५. धर्म श्रवण करके जीवन को उत्तरोत्तर उच्च और पवित्र बनाना। यह एक शुभ संकेत ही है। १६. अजीर्ण होने पर भोजन न करना। यह स्वास्थ्य रक्षा का मूल मन्त्र है। १७. समय पर प्रमाणोपेत भोजन करना, स्वाद के वशीभूत हो अधिक न खाना। १८. धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ का इस प्रकार सेवन करना कि जिससे किसी में बाधा उत्पन्न न हो। धनोपार्जन के बिना गृहस्थाश्रम चल नहीं सकता और गृहस्थ काम-पुरुषार्थ का सर्वथा त्यागी नहीं हो सकता, तथापि धर्म को बाधा पहुँचा कर अर्थ-काम का सेवन न करना चाहिए। १९. अतिथि साधु और दीन जनों को यथायोग्य दान देना। २०. आग्रहशील न होना। २१. सौजन्य, औदार्य, दाक्षिण्य आदि गुणों को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील होना। २२. अयोग्य देश और अयोग्य काल में गमन न करना। २३. देश, काल, वातावरण और स्वकीय सामर्थ्य का विचार करके ही कोई कार्य प्रारम्भ करना। २४. आचारवृद्ध और ज्ञानवृद्ध पुरुषों को अपने घर आमंत्रित करना, आदर पूर्वक बिठलाना, सम्मानित करना और उनकी यथोचित सेवा करना। २५. माता पिता, पत्नी, पुत्र आदि आश्रितों का यथायोग्य भरण-पोषण करना, उनके विकास में सहायक बनना। २६. दीर्घदर्शी होना। किसी भी कार्य को प्रारम्भ करने के पूर्व ही उसके गुणावगुण पर विचार कर लेना। २७. विवेकशील होना। जिसमें हित-अहित, कृत्य-अकृत्य का विवेक नहीं होता, उस पशु के समान पुरुष को अन्त में पश्चात्ताप करना पड़ता है। २८. गृहस्थ को कृतज्ञ होना चाहिए। उपकारी के उपकार को विस्मरण कर देना उचित नहीं है। २९. अहंकार से बचकर विनम्र होना। ३०. लज्जाशील होना। ३१. करुणाशील होना । ३२. सौम्य होना। ३३. यथाशक्ति परोपकार करना। ३४. काम, क्रोध, मोह, मद
और मात्सर्य, इन आन्तरिक रिपुओं से बचने का प्रयत्न करना और ३५. इन्द्रियों को उ खल न होने देना। इन्द्रियविजेता ही धर्म की पात्रता प्राप्त करता है।
आचार्य नेमिचन्द्र ने प्रवचनोद्धार में भिन्न रूप से श्रावक के २१ गुणों का उल्लेख किया है और यह माना है कि इन २१ गुणों को धारण करने वाला व्यक्ति ही अणुव्रतों की साधना का पात्र होता है। आचार्य द्वारा निर्देशित श्रावक के २१ गुण निम्न हैं :
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१. अक्षुद्रपन २. स्वस्थ ३. सौम्यता ४. लोकप्रियता ५. अक्रूरता ६. पापभीरूता ७. अशठता ८. सुदक्षता, दानशीलता ९. लज्जाशीलता १०. दयालुता ११. गुणानुरागता १२. प्रियसम्भाषण या सौम्यदृष्टि १३ माध्यस्थवृत्ति १४. दीर्घदृष्टि १५ सत्कथक एवं सुपक्षयुक्त, १६. नम्रता १७. विशेषज्ञता १८. वृद्धानुगामी १९. कृतज्ञ २०. परहितकारी (परोपकारी) और २१. लब्धलक्ष्य (जीवन के साध्य का ज्ञाता) ___पं. आशाधरजी ने अपने ग्रंथ सागर धर्मामृत में निम्न गुणों का निर्देश किया है१. न्यायपूर्वक धन का अर्जन करने वाला, २. गुणीजनों को मानने वाला ३. सत्य भाषी ४. धर्म, अर्थ और काम (त्रिवर्ग) का परस्पर विरोध रहित सेवन करने वाला ५. योग्य स्त्री ६. योग्य स्थान (मोहल्ला) ७. योग्य मकान से युक्त ८. लज्जाशील ९. योग्य आहार १०. योग्य आचरण ११. श्रेष्ठ पुरुषों की संगति १२. बुद्धिमान १३. कृतज्ञ १४. जितेन्द्रिय १५ धर्मोपदेश श्रवण करने वाला १६. दयालु १७. पापों से डरने वाला - ऐसा व्यक्ति सागर धर्म का आचरण करे । पं. आशाधर जी ने जिन गुणों का निर्देशन किया है उनमें से अधिकांश का निर्देशन दोनों पूर्ववर्ती आचार्यों के द्वारा किया जा चुका है।
उपर्युक्त विवेचना से जो बात स्पष्ट होती है वह यह कि जैन आचार दर्शन मनुष्य जीवन के व्यावहारिक पक्ष की उपेक्षा करके नहीं चलता। जैनाचार्यों ने जीवन के व्यावहारिक पक्ष को गहराई से परखा है और उसे इतना सुसंस्कृत बनाने का प्रयास किया है कि जिसके द्वारा व्यक्ति इस जगत् में भी सफल जीवन जी सकता है। यही नहीं, इन सद्गुणों में से अधिकांश का सम्बंध हमारे सामाजिक जीवन से है। वैयक्तिक जीवन में इनका विकास सामाजिक जीवन के मधुर सम्बंधों का सृजन करता है यह वैयक्तिक जीवन के लिए जितने उपयोगी हैं, उससे अधिक सामाजिक जीवन के लिए आवश्यक हैं। जैनाचार्यों के अनुसार ये आध्यात्मिक साधना के प्रवेश द्वार हैं । साधक इनका योग्य रीति से आचरण करने के बाद ही अणुव्रतों और महाव्रतों की साधना की दिशा में आगे बढ़ सकता है। श्रावक के बारह व्रतों की प्रासंगिकता
जैनधर्म में श्रावक के निम्न बारह व्रत हैं -
(१) अहिंसा, (२) सत्य, (३) औचार्य, (४) स्वपत्नी-संतोष, (५) परिग्रहपरिमाण, (६) दिक् - परिमाण, (७) उपभोग-परिभोग-परिमाण, (८) अनर्थदण्ड विरमण, (९) सामायिक, (१०) देशावकाशिक, (११) प्रोषधोपवास, (१२) अतिथिसंविभाग।
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अहिंसा-अणुव्रत - गृहस्थोपासक संकल्पपूर्वक त्रसप्राणियों (चलने फिरने वाले) की हिंसा का त्याग करता है। हिंसा के चार रूप हैं -१. आक्रामक संकल्पी २. सुरक्षात्मक (विरोधजा) ३. औद्योगिक(उद्योगजा) ४. जीवन यापन के अन्य कार्यों में होने वाली (आरम्भजा)। हिंसा के चारों रूप भी दो वर्गों में विभाजित किए गये हैं -१. हिंसा की जाती है और २. हिंसा करनी पड़ती है। इसमें आक्रामक में हिंसा की जाती है जबकि सुरक्षात्मक, औद्योगिक और आरम्भजा में हिंसा का निर्णय तो होता है, किन्तु वह निर्णय विवशता में लेना होता है, अतः उसे स्वतंत्र ऐच्छिक निर्णय तो नहीं कह सकते हैं। इन स्थितियों में हिंसा की नहीं जाती, अपितु करनी पड़ती है। सुरक्षात्मक हिंसा और
औद्योगिक हिंसा में त्रस जीवों की हिंसा भी करनी पड़ सकती है, यद्यपि औद्योगिक हिंसा में त्रस जीवों की हिंसा केवल सुरक्षात्मक दृष्टि से ही करनी पड़ती है। इसके अतिरिक्ति हिंसा का एक रूप वह है, जिसमें हिंसा हो जाती है
जैसे कृषि कार्य करते हुए सावधानी के बावजूद होने वाली त्रस-हिंसा । जीवन रक्षण एवं आजीविकोपार्जन में होने वाली हिंसा से उसका व्रत दूषित नहीं माना जाता है। सामान्यतया यह कहा गया है कि जैनधर्म में अहिंसा का पालन जिस सूक्ष्मता के साथ किया जाता है,वह उसे अव्यावहारिक बना देता है किन्तु हम गृहस्थ उपासक के अहिंसा-अणुव्रत के उपर्युक्त विवेचन को देखते हैं तो यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि अहिंसा की जैन अवधारणा किसी भी स्थिति में अप्रासंगिक और अव्यावहारिक नहीं है। वह न तो व्यक्ति या राष्ट्र के आत्म सुरक्षा के प्रयत्न में बाधक है और न उसकी
औद्योगिक प्रगति में। उसका विरोध है तो मात्र आक्रामक हिंसा से और आज कोई भी विवेकशील प्राणी या राष्ट्र आक्रामक हिंसा का समर्थक नहीं हो सकता है।
गृहस्थ उपासक के अहिंसाणुव्रत के जो पांच अतिचार (दोष) बताये गये हैं, वे भी पूर्णतया व्यावहारिक और प्रासंगिक हैं। इन अतिचारों की प्रासंगिक व्याख्या निम्न है
१. बन्धन - प्राणियों को बंधन में डालना। आधुनिक संदर्भ में अधिनस्थ कर्मचारियों को निश्चित समयावधि से अधिक रोककर कार्य लेना अथवा किसी की स्वतंत्रता का अपहरण करना भी इसी कोटि में आता है।
२. वध- अंगोपांग का छेदन और घातक प्रहार करना । ३. वृत्तिच्छेद - किसी की आजीविका को छीनना या उसमें बाधा डालना। ४. अतिभार - प्राणि की सामर्थ्य से अधिक बोझ लादना या कार्य लेना। ५. भक्त-पान - निरोध- अधिनस्थ पशुओं एवं कर्मचारियों की समय पर एवं
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आवश्यक भोजन पानी की व्यवस्था न करना। उपर्युक्त अनैतिक आचरणों की प्रासंगिकता आज भी यथावत् है। शासन ने इसकी प्रासंगिकता के आधार पर इन्हें रोकने हेतु नियम बनाये हैं जबकि जैनाचार्यों ने दो हजार वर्ष पूर्व इन नियमों की व्यवस्था कर दी थी। ___२. सत्यानुव्रत- गृहस्थ को निम्न पाँच कारणों से असत्य भाषणों का निषेध किया गया है।
१. वर कन्या के सम्बंध में असत्य जानकारी देना। २. पशु आदि के क्रय-विक्रय हेतु असत्य जानकारी देना। ३. भूमि आदि के स्वामित्व के सम्बंध में असत्य जानकारी देना । ४. किसी धरोहर को दबाने या अपने व्यक्तिगत स्वार्थ को सिद्ध करने के हेतु
असत्य बोलना। ५. झूठी साक्षी देना । इस अणुव्रत के पांच अतिचार या दोष निम्न हैं - १. अविचार पूर्वक बोलना या मिथ्या दोषारोपण करना। २. गोपनीयता भंग करना। ३. स्वपत्नी या मित्र के गुप्त रहस्यों का प्रकट करना । ४. मिथ्या-उपदेश या लोगों को बहकाना । ५. कूट लेखकरण अर्थात् झूठे दस्तावेज तैयार करना, नकली मुद्रा (मोहर)
लगाना या जाली हस्ताक्षर करना। उपयुक्त सभी निर्देशों की प्रासंगिकता आज भी निर्विवाद है। वर्तमान युग में भी ये सभी दूषित प्रवृत्तियां प्रचलित हैं तथा शासन और समाज इन पर रोक लगाना चाहता है।
३. अस्तेयाणुव्रत - वस्तु के स्वामी की अनुमति के बिना किसी वस्तु का ग्रहण करना चोरी है। गृहस्थ साधक को इस दूषित प्रवृत्ति से बचने का निर्देश दिया गया है। इसकी विस्तृत चर्चा हम सप्त दुर्व्यसन के सन्दर्भ में कर चुके हैं, अतः यहाँ केवल इसके निम्न अतिचारों की प्रासंगिकता की चर्चा करेंगे।
१. चोरी की वस्तु खरीदना। २. चौर्य कर्म में सहयोग करना। ३. शासकीय नियमों का अतिक्रमण तथा कर अपवंचन।
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४. माप-तौल की अप्रामाणिकता। ५. वस्तुओं में मिलावट करना।
उपयुक्त पांचों दुष्प्रवृत्तियां आज भी अनुचित एवं शासन द्वारा दण्डनीय मानी जाती है। अतः इसका निषेध अप्रासंगिक या अव्यावहारिक नहीं है। वर्तमान युग में यह दुष्प्रवृत्तियाँ बढ़ती जा रही हैं, अतः इन नियमों का पालन अपेक्षित है।
४. स्वपत्नी-संतोष व्रत- गृहस्थोपासक की काम प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के हेतु इस व्रत का विधान किया है। यह यौन सम्बन्धों को नियंत्रित एवं परिष्कारित करता है और इस सन्दर्भ में सामाजिक व्यवस्था को सुदृढ़ करता है। स्वपत्नी के अतिरिक्त अन्यत्र यौन सम्बन्ध रखना जैन श्रावक के लिए निषिद्ध है। पारिवारिक एवं सामाजिक शान्ति एवं सुव्यवस्था की दृष्टि से इस व्रत की उपयोगिता निर्विवाद है। यह व्रत पति- पत्नी के मध्य एक-दूसरे के प्रति आस्था जागृत करता है और उनके पारस्परिक प्रेम एवं समर्पण भाव को सुदृढ़ करता है। जब भी इस व्रत का भंग होता है, पारिवारिक जीवन में अशान्ति एवं दरार पैदा हो जाती है। इस व्रत के निम्न पांच अतिचार या दोष माने गये हैं१. अल्पवय की विवाहित स्त्री से अथवा समय विशेष के लिए ग्रहण की गई
स्त्री से अर्थात् वेश्या आदि से संभोग करना । अविवाहित स्त्री -जिसमें परस्त्री और वेश्या समाहित है, से यौन सम्बन्ध
स्थापित करना । ३. अप्राकृतिक साधनों से काम वासना को सन्तुष्ट करना, जैसे -हस्त-मैथुन,
गुदा-मैथुन, समलिंगी-मैथुन आदि। ४. पर-विवाहकरण अर्थात स्व-संतान के अतिरिक्त दूसरों के विवाह सम्बन्ध
करवाना। वर्तमान सन्दर्भ में इसकी व्याख्या यह भी हो सकती है कि एक
पत्नी के होते हुए दूसरा विवाह करना । ५. काम भोग की तीव्र अभिलाषा।
उपयुक्त पांच निषेधों में कोई भी ऐसा नहीं है, जिसे अव्यावहारिक और वर्तमान सन्दर्भो में प्रासंगिक कहा जा सके ।
५. परिग्रह-परिमाण व्रत - इस व्रत के अन्तर्गत गृहस्थ उपासक से यह अपेक्षा की गई है कि वह अपनी सम्पत्ति अर्थात् जमीन-जायदाद, बहुमूल्य धातुएँ, धन-धान्य,
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पशु एवं अन्य वस्तुओं की एक सीमा-रेखा निश्चित करे और उसका अतिक्रमण नहीं करे। व्यक्ति में यह संग्रह की स्वाभाविक प्रवृत्ति है और किसी सीमा तक गृहस्थ-जीवन में संग्रह आवश्यक भी है। किन्तु यदि संग्रह-प्रवृत्ति को नियंत्रित नहीं किया जायेगा तो समाज में गरीब और अमीर की खाई अधिक गहरी होगी और वर्ग-संघर्ष अपरिहार्य हो जायेगा। परिग्रह-परिमाणमात्र या इच्छा परिमाणमात्र इसी संग्रह-प्रवृत्ति को नियंत्रित करता है और आर्थिक वैषम्य का समाधान प्रस्तुत करता है। यद्यपि प्राचीन ग्रन्थों में इस सन्दर्भ में कोई सीमा रेखा निर्धारित नहीं की गई है, उसे व्यक्ति के स्व विवेक पर छोड़ दिया गया था, किन्तु आधुनिक सन्दर्भ में हमें व्यक्ति की आवश्यकता और राष्ट्र की सम्पन्नता के आधार पर सम्पत्ति या परिग्रह की कोई अधिकतम सीमा निर्धारण करनी होगी, यही एक ऐसा उपाय है जिससे गरीब और अमीर के बीच खाई को पाटा जा सकता है। यह भय निरर्थक है कि अनासक्ति और अपरिग्रह के आदर्श से आर्थिक प्रगति प्रभावित होगी। जैन धर्म अर्जन का उसी स्थिति में विरोधी है, जबकि उसके साथ हिंसा और शोषण की बुराइयाँ जुड़ती हैं। हमारा आदर्श है- सौ हाथों से इकट्टा करो और हजार हाथों से बाट दो। गृहस्थ अर्थोपार्जन करे किन्तु वह न तो संग्रह के लिए हो और न स्वयं के भोग के लिये, अपितु उसका उपयोग लोकमंगल के लिये और दीन दुःखियों की सेवा में हो। वर्तमान सन्दर्भ में इस व्रत की उपयोगिता निर्विवाद है। यदि आज हम स्वेच्छा से नहीं अपनाते हैं तो या तो शासन हमें इसके लिए बाध्य करेगा या फिर अभावग्रस्त वर्ग हमसे छीन लेगा, अतः हमें समय रहते सम्भल जाना चाहिए।
६.दिक-परिमाणवत - तृष्णा असीम है, धन के लोभ में मनुष्य कहाँ-कहाँ नहीं भटका है। राजा की तृष्णा ने साम्राज्यवाद को जन्म दिया, तो धन लोभ में व्यावसायिक उपनिवेश बने । अर्थ लोलुपता तथा विषय वासनाओं की पूर्ति के निमित्त आज भी व्यक्ति देश-विदेश में भटकता है। दिक् परिमाणव्रत इसी भटकन को नियंत्रित करता है। गृहस्थ उपासक के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने अर्थोपार्जन एवं विषय-भोग का क्षेत्र सीमित करे। इसलिए उसे विविध दिशाओं में अपने आवागमन का क्षेत्र मर्यादित कर लेना होता है । यद्यपि वर्तमान सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि इससे व्यक्ति का कार्यक्षेत्र सीमित हो जायेगा किन्तु जो वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति से अवगत हैं वे यह भली प्रकार जानते हैं कि आज कोई भी राष्ट्र विदेशी व्यक्ति को अपने यहाँ पैर जमाने नहीं देना चाहता है। दूसरे यदि हम अन्तर्राष्ट्रीय शोषण को समाप्त करना चाहते हैं तो हमें इस बात से सहमत होना होगा कि व्यक्ति के धनोपार्जन की गतिविधि का क्षेत्र सीमित हो। अत: इस व्रत को अप्रासंगिक नहीं कहा जा सकता है।
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उपर्युक्त पांच निषेधों में कोई भी ऐसा नहीं है, जिसे अव्यावहारिक और वर्तमान सन्दर्भो में अप्रासंगिक कहा जा सके ।
७. उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत - व्यक्ति की भोग-वृत्ति पर अंकुश लगाना ही इस व्रत का मूल उद्देश्य है। इस व्रत के अन्तर्गत जीवन के उपयोग की प्रत्येक वस्तु की संख्या मात्रा आदि निर्धारित करनी होती है- जैसे वह कौन-सा मंजन करेगा, किस प्रकार के चावल, दाल, सब्जी, फल-मिष्ठान आदि का उपयोग करेगा, उनकी मात्रा क्या होगी, उसके वस्त्र, जूते, शय्या आदि किस प्रकार के और कितने होंगे? वस्तुतः इस बात के माध्यम से उसकी भोग वृत्ति को संयमित कर उसके जीवन को सात्विक व सादा बनाने का प्रयास किया गया है, जिसकी उपयोगिता को कोई भी विचारशील व्यक्ति अस्वीकार नहीं करेगा। आज जब मनुष्य उद्दाम भोग-वासना में आकण्ठ डूबता जा रहा है, इस व्रत का महत्त्व स्पष्ट है।
जैन आचार्यों ने उपभोग-परिभोग-परिमाणव्रत के माध्यम से यह भी स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि गृहस्थ उपासक को किन साधनों के द्वारा अपनी आजीविका का उपार्जन करना चाहिए और किन साधनों से आजीविका का उपार्जन करना नहीं चाहिए। गृहस्थ उपासक के लिए निम्नलिखित पन्द्रह प्रकार के व्यवसायों के द्वारा आजीविका अर्जित करना निषिद्ध माना गया है।
१. अंगारकर्म - जैन आचार्यों ने इसके अन्तर्गत आदमी को अग्नि प्रज्वलित करके किये जाने वाले सभी व्यवसायों को निषिद्ध बताया है। जैसे कुम्भकार, स्वर्णकार, लौहकार आदि के व्यवसाय किन्तु मेरी दृष्टि में इसका तात्पर्य जंगल में आग लगाकर कृषियोग्य भूमि तैयार करना है।
२. वनकर्म- जंगल कटवाने का व्यवसाय। ३. शटकर्म- बैलगाडी रथ आदि बनाकर बेचने का व्यवसाय । ४. भाटकर्म- बैल, अश्व आदि पशुओं को किराये पर चलाने का व्यवसाय । ५. स्फोटिकर्म - खान खोदने का व्यवसाय।
६. दन्तवाणिज्य - हाथी दान्त आदि हड्डी का व्यवसाय। उपलक्षणा से चमड़े तथा सींग आदि के व्यवसायी भी इसमें सम्मिलित हैं।
७. लाक्षा-वाणिज्य- लाख का व्यवसाय। ८. रस-वाणिज्य- मद्य, मांस, मधु आदि का व्यवसाय। ९. विष-वाणिज्य- विभिन्न प्रकार के विषों का व्यापार ।
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१०. केष-वाणिज्य - बालों एवं रोम युक्त चमड़े का व्यापार।
११. यन्त्रपीड़नकर्म- यन्त्र, सांचे, कोल्हू आदि का व्यापार । उपलक्षणा से अस्त्रशस्त्रों का व्यापार भी इसी में सम्मिलित किया है।।
१२. नीलाच्छानकर्म - बैल आदि पशुओं को नपुंसक बनाने का व्यवसाय। १३. दावाग्निदापन - जंगल में आग लगाने का व्यवसाय। १४. तालाब, झील और सरोवर आदि को सुखाना !
१५. व्यभिचार - वृत्ति के लिए वेश्या आदि को नियुक्त कर उनके द्वारा धनोपार्जन करवाना। उपलक्षणा से दुष्कर्मों द्वारा आजीविका का अर्जन करना ।।
आधुनिक सन्दर्भ में उपर्युक्त निषिद्ध व्यवसायों की सूची में परिमार्जन की आवश्यकता प्रतीत होती है। आज व्यवसायों के ऐसे अनेक रूप सामने आये हैं जो अधिक अनैतिक
और हिंसक हैं। अत: इस सन्दर्भ में पर्याप्त विचार विमर्श करके निषिद्ध व्यवसायों की नवीन तालिका बनाई जानी चाहिए।
८. अनर्थदण्ड परित्याग - मानव अपने जीवन में अनेक ऐसे पाप कर्म करता है, जिनके द्वारा उसका अपना कोई हित साधन नहीं होता। इस निष्प्रयोजन किए जाने वाले पाप कर्मों से गृहस्थ उपासक को बचाना इस व्रत का मुख्य उद्देश्य है। निष्प्रयोजन हिंसा और असत्य सम्भाषण की प्रवृत्तियाँ मनुष्य में सामान्य रूप में पायी जाती हैं। जैसे स्नान में आवश्यकता से अधिक जल का व्यय करना। सम्भाषण में अपशब्दों का प्रयोग करना, स्वास्थ्य के लिए हानिकारक मादक द्रव्यों का सेवन करना, अश्लील और कामवर्द्धक साहित्य को पढ़ना आदि निरर्थक प्रवृत्तियाँ अविवेकी और अनुशासनहीन जीवन की द्योतक हैं। इस व्रत के अन्तर्गत गृहस्थ उपासक से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अशुभचिंतन, पापकर्मोपदेश, हिंसक उपकरणों के दान तथा प्रमादाचरण से बचे। इस व्रत के निम्नलिखित पाँच अतिचार माने गये हैं
१. कामवासना को उत्तेजित करने वाली चेष्टाएं करना। २. हाथ, मुँह, आँख, आदि से अभद्र चेष्टाएँ करना। ३. अधिक वाचाल होना या निरर्थक बात करना। ४. अनावश्यक रूप से हिंसा के साधनों का संग्रह करना और उन्हें दूसरों को देना। ५. आवश्यकता से अधिक उपभोग की सामग्री का संचय करना।
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यदि हम उपर्युक्त व्रत और दोषों के सन्दर्भ में विचार करें तो वर्तमान युग में इसकी सार्थकता स्पष्ट हो जाती है। मानव समाज में आज भी ये सभी चारित्रिक विकृतियां विद्यमान हैं और एक सभ्य समाज के निर्माण के लिए इनका परिमार्जन आवश्यक है ।
श्रावक के उपर्युक्त पांच अणुव्रतों और तीन गुण व्रतों का बहुत कुछ सम्बन्ध हमारे सामाजिक जीवन से है और हमने जब उनकी प्रासंगिकता की कोई चर्चा की है तो वह सामाजिक दृष्टि से ही की है। गृहस्थ उपासक के शेष चार शिक्षाव्रतों में सामायिक, देशावकाशिक, पौषधोपवास का सम्बन्ध विशिष्ट रूप से वैयक्तिक जीवन से है। यद्यपि अतिथि-संविभाग व्रत की व्याख्या पुनः सामाजिक संदर्भ में की जा सकती है।
९. सामायिक व्रत- सामायिक समभाव की साधना है। सुख-दुःख, हानि-लाभ, जय-पराजय में चित्तवृत्ति का समत्व ही सामायिक है। आज के युग में जब मनुष्य मानसिक विक्षेपों और तनावों की स्थिति में जी रहा है, सामायिक व्रत की साधना की उपयोगिता सुस्पष्ट हो जाती है। वर्तमान में मात्र वेशपरिवर्तन करके कुछ समय के लिए बाह्य हिंसक प्रवृत्तियों से दूर हो जाना सामायिक का बाह्य रूप हो सकता है, किन्तु वह उसकी अन्तरात्मा नहीं है। आज हमारी सामायिक साधना में समभावरूपी अन्तरात्मा मृतप्रायः होती जा रही है और वह एक रूढ़-क्रिया मात्र बन कर रह गयी है। सामायिक से मानसिक तनावों का निराकरण और चित्तवृत्ति को शान्त और निराकुल बनाने के लिए कोई उपयुक्त पद्धति विकसित की जाये, यह आज के युग की महती आवश्यकता है।
१०. देशावकाशिक व्रत-इस व्रत का मुख्य उद्देश्य आंशिक रूप से गृहस्थजीवन से निवृत्ति प्राप्त करना है। मनुष्य स्वाभाविक रूप से परिवर्तनप्रिय है। घर-गृहस्थी के कोलाहलपूर्ण और अशान्त जीवन से निवृत्ति लेकर एक शान्त जीवन का अभ्यास एवं आस्वाद करना ही इसका लक्ष्य है। वैसे भी हम सप्ताह में एक दिन अवकाश मनाते हैं। देशावकाशिक व्रत इसी सप्ताह अवकाश का आध्यात्मिक क्षेत्र में उपयोग है और इस दृष्टि से इसकी सार्थकता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता।
११. पौषोधोपवास - यह व्रत भी मुख्य रूप से निवृत्तिपरक जीवनी की साधना के निमित्त है। उपवासपूर्वक विषयवासनाओं पर नियंत्रण रखना ही इस व्रत का मूल उद्देश्य है। इसे हम एक दिन के लिए ग्रहण किया हुआ श्रमण-जीवन भी कह सकते हैं। इसकी सार्थकता वैयक्तिक साधनात्मक जीवन की दृष्टि से ही आंकी जा सकती है।
१२. अतिथि-संविभाग व्रत - अतिथि-संविभाग व्रत गृहस्थ के सामाजिक दायित्व का सूचक है। अपने और अपने परिजनों के उदरपोषण के साथ-साथ गृहस्थ पर निवृत्त
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साधकों और समाज के असहाय एवं अभावग्रस्थ व्यक्तियों के भरण पोषण का दायित्व भी है। प्रस्तुत व्रत का उद्देश्य गृहस्थ में सेवा और दान की वृत्ति को जागृत करना है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। हमारा जीवन पारस्परिक सहयोग और सहभागिता के आधार पर ही चलता है। दूसरों के सुख-दुःख में सहभागी बनना और अभावग्रस्तों, पीड़ितों और दीन दुःखियों की सेवा करना यह गृहस्थ का अनिवार्य धर्म है। यद्यपि आज इस प्रवृत्ति को भिक्षावृत्ति को प्रोत्साहन देने वाली मानकर अनुपयुक्त कहा जा सकता है, किन्तु जब समाज में अभावग्रस्त, पीड़ित और रोगी व्यक्ति है -सेवा और सहकार की आवश्यकता अपरिहार्य रूप से बनी रहेगी और यदि शासन इस दायित्व को नहीं सम्भालता है तो यह प्रत्येक गृहस्थ का कर्तव्य है कि वह दान और सेवा के मूल्यों को जीवित बनाये रखे। यह प्रश्न मात्र दया या करुणा का नहीं,अपितु दायित्व बोध का है। उपसंहार
जैन धर्म के श्रावक-आचार की उपर्युक्त समीक्षा करने के पश्चात् यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन श्रावकों के लिए प्रतिपादित आचार के नियम वर्तमान सामाजिक सन्दर्भो में भी प्रासंगिक सिद्ध होते हैं। श्रावक-आचार के विधि-निषेधों में युगानुकूल जो छोटेमोटे परिवर्तन अपेक्षित हैं उन पर विचार किया जा सकता है और युगानुकूल श्रावक धर्म की आचार विधि आगमिक नियमों को यथावत् रखते हुए बनाई जा सकती है। आज हमारा दुर्भाग्य है कि आचार-विधि पर कोई गम्भीरतापूर्वक विचार नहीं किया जाता।
__आज यह मान लिया जाता है कि आचार सम्बन्धी विधि-निषेध मनियों के सन्दर्भ में ही है। गृहस्थों की आचार विधि ऐसी है या ऐसी होनी चाहिए, इस बात पर हमारा कोई ध्यान नहीं जाता । यद्यपि जमीकन्द खाना चाहिए या नहीं खाना चाहिए ऐसे छोटे-छोटे प्रश्न उठा लिये जाते हैं किन्तु श्रावक आचार की मूल दृष्टि क्या हो और उसके लिए युगानुकूल सर्वमान्य आचार विधि क्या हो? इस बात पर हमारी कोई दृष्टि नहीं जाती। यह शुभ संकेत है कि जैन विश्व भारती ने इस प्रश्न को लेकर एक विचार-गोष्ठी आयोजित की। यद्यपि यह एक प्रारम्भिक बिन्दु है किन्तु मुझे विश्वास है कि यह प्राथमिक प्रयास भी कभी वृहद् रूप लेगा और हम अपने श्रावक वर्ग की एक युगानुकूल आचार विधि दे पाने में सफल होंगे।
35 ओसवालसेरी शाजापुर (म.प्र.) 465 001
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परिग्रह परिमाण व्रत आज भी प्रासंगिक है
डॉ. धर्मचन्द जैन
आज जहाँ वस्तुओं की सुलभता,धन की प्रचुरता, साधनों की सुविधा आदि को व्यक्ति एवं राष्ट्र के विकास का मानदण्ड समझा जा रहा है वहां परिग्रह-परिमाण व्रत की चर्चा की क्या कोई प्रासंगिकता है, यह विचार का विषय है। आज के युग से हम सब परिचित हैं। यह युग वैज्ञानिक विकास के साथ आर्थिक विकास का युग है। आज समस्त विकास अर्थ केन्द्रित है। आई.आई. टी. में जाने वाले छात्र हो या आई. ए. एस. में, डॉक्टर बनना हो या वकील, इंजीनियर बनना हो या उद्योगपति-सबके केन्द्र में अर्थ है। अर्थ को जीवन-स्तर के सुधार का आधार माना जाता है। देश की निर्धनता दूर हो, प्रतिव्यक्ति आय का अनुपात बढ़े एवं सबके जीवन जीने का स्तर ऊंचा उठे, तभी विकास की मंजिल तय हो सकती है। इस सबके मूल में आर्थिक समृद्धि या आर्थिक विकास को आधार माना जाता है। उद्योग अब लघु स्तर की अपेक्षा वृहद् स्तर पर, राष्ट्रीय स्तर की अपेक्षा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार पाते जा रहें हैं। शिक्षा एवं बौद्धिक क्षमताओं का भी उपयोग अर्थव्यवस्था के विकास में ही किया जाना अपेक्षित समझा जाता है। प्राकृतिक सम्पदा हो या वैज्ञानिक उत्पाद, सबके दोहन और शोषण को व्यापार का हिस्सा बनाया जाता है। अर्थ केन्द्रित व्यक्ति, समाज, राष्ट्र एवं विश्व के समक्ष महावीर द्वारा श्रावक समाज के लिए प्रतिपादित परिग्रह-परिमाण व्रत कितना प्रासंगिक रह गया है, यह एक विचारणीय बिन्दु है। परिग्रह-परिमाणव्रत तो बाह्य धन सम्पदा के स्वामित्व की सीमा बांधता है और यह युग आर्थिक समृद्धि की ओर अग्रसर है। दोनों में परस्पर विरोध प्रतीत होता है। किन्तु चिन्तन करने पर ज्ञात होता है कि परिग्रह परिमाण व्रत की भूमिका मानव की आध्यात्मिक शान्ति के साथ समुचित आर्थिक विकास में भी सहयोगी हो सकती है। परिग्रह का परिमाण मानव को जो
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अमूल्य निधि प्रदान कर सकता है, वह अर्थ के असीम अभिलाषा को कभी भी प्राप्त नहीं हो सकती । परिग्रह परिमाण व्रत न केवल व्यक्ति की आत्मिक शान्ति, सन्तोष एवं सुख के लिये आवश्यक है, अपितु समाज के सन्तुलित विकास एवं राष्ट्र की समृद्धि के लिए भी आवश्यक है । यह अर्थशास्त्री के बीज एवं मार्क्स की मान्यताओं से हटकर मानव के आभ्यन्तर एवं बाह्य दोनों प्रकार की सम्पन्नता प्रदान करता है।
अर्थ के साथ गृहस्थ जीवन का घनिष्ट सम्बध होते हुए भी तनाव रहित जीवन जीने के लिये परिग्रह का परिमाण आवश्यक है । जो असीमित इच्छाओं के लोक में विचरण करता है वह अतृप्त एवं अशान्त बना रह कर दुःख के सागर में डुबकियाँ लगाता रहता है । मस्तिष्क विविध चिन्ताओं की चिता में दग्ध होता रहता है । अर्थ प्राप्ति की अन्धी असीमित दौड़ में मानव जिनके लिए धन कमाता है, वह उनके लिये समय नहीं निकाल पाता है । अर्थ-संग्रह की असीमित दौड़ वाले के लिये आगम-वचन है
कसिणं पि जो इमं लोयं पडिपुण्णं दलेज्ज इक्कस्स । तेणावि से ना संतुस्से, इइ दुप्पूरए इमे आया ॥'
यदि किसी व्यक्ति को समस्त लोक भी दे दिया जाए, तो उससे भी वह सन्तुष्ट नहीं हो सकता, इसलिए मानव को अपने लक्ष्य का सीमाकरण कर लेना चाहिए। आनन्द, कामदेव आदि श्रावकों ने भगवान महावीर के समक्ष परिग्रह - परिमाण व्रत अंगीकार कर स्वयं को प्रशम सुख के मार्ग पर प्रस्थित कर लिया था । उपासकदशांग सूत्र में आनन्द आदि श्रावकों ने हिरण्य - सुवर्ण, चौपाए पशु, क्षेत्र वस्तु, शकट विधि, वाहन विधि आदि का परिमाण किया था । ऐसा करके उन्होंने अपने जीवन को अनेक चिन्ताओं से मुक्त बना लिया था। प्रश्न व्याकरण सूत्र में कहा है
नत्थि एरिसो पासो पडिबंधो अत्थि, सव्व जीवाणं सव्वलोए ।
समस्त संसार में परिग्रह के समान प्राणियों के लिए कोई जाल या बन्धन नहीं है । परिग्रह का अर्थ बाह्य और भौतिक वस्तुओं का संग्रह नहीं है । परिग्रह का तात्पर्य है मूर्च्छा - मूर्च्छा परिग्गहो वुत्तो ।' मूर्च्छा का तात्पर्य ममत्व या आसक्ति भाव है। पर वस्तु में अपना ममत्व या स्वामित्व समझना परिग्रह है । यह व्यक्ति को चारों ओर से जकड. लेता है । इसलिए इसे परिग्रह कहा है । आगम में परिग्रह को दुःख एवं बंधन का कारण प्रतिपादित किया गया है
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किमाह बंधणं वीरे, किं वा जाणं तिउट्टइ | चित्तमंतमचित्तं वा परिगिज्झ किसामवि । अणं वा अणुजाणाइ, एवं दुक्खा ण मुच्चइ ॥'
सूत्रकृतांग सूत्र में प्रश्न किया गया - भगवान महावीर ने बंधन किसे कहा है तथा क्या जान कर बंधन को तोड़ा जा सकता है ? गणधर सुधर्मा ने उत्तर दिया - चेतन प्राणी या अचेतन पदार्थों के प्रति जिसका थोड़ा भी परिग्रह है अथवा उस परिग्रह का समर्थन है तो वह दुःख से मुक्त नहीं हो सकता । पूर्णतः दुःख मुक्ति के लिये परिग्रह ममत्व का त्याग अनिवार्य है । ममत्व का पूर्ण त्याग होने पर तो कोई वीतराग हो जाता है, फिर दुःख का कोई प्रश्न ही नहीं, किन्तु जैन साधु-साध्वी भी पंच महाव्रतधारी होने से बाह्य परिग्रह के पूर्ण त्यागी होते हैं । अब प्रश्न गृहस्थ का है । ग्रहस्थ को जीवन यापन करने के लिये वस्तुओं की आवश्यकता होती है, इसलिए उसे अन्न, वस्त्र एवं आवास जैसी मूलभूत आवश्यकताओं को जुटाने के लिए कोई न कोई कार्य अवश्य करना होता है । यह आवश्यकताएं सीमित मात्रा में साधु की भी हो सकती है, किन्तु वे उनकी गृहस्थ से भिक्षा मांग कर कर लेते हैं ।
यद्यपि आगम में मूर्च्छा या ममत्व को परिग्रह कहा है, किन्तु इसका आशय यह नहीं कि गृहस्थ बाह्य साधन सामग्री या धन सम्पदा कितनी भी रखे और मूर्च्छा से रहित रहे । बाह्य धन-सम्पदा या वस्तुओं का स्वामित्व रखते हुए कोई ममत्व या मूर्च्छा से रहित नहीं हो सकता । उस मूर्च्छा को नियन्त्रित करने के लिये ही श्रावकाचार में इच्छा परिमाण या परिग्रह परिमाण व्रत को स्थान दिया गया है। परिग्रह का परिमाण मनुष्य की इच्छाओं का सीमांकन कर देता है। आभ्यन्तर परिग्रह के 14 भेद हैं 1. मिथ्यात्व, 2. क्रोध, 3. मान, 4. माया, 5 लोभ, 6. हास्य, 7. रति, 8. अरति, 9. शोक, 10. भय, 11. जुगुप्सा, 12. स्त्रीवेद, 13. पुरुषवेद, 14. नपुंसक वेद ।
इस प्रकार आभ्यन्तर रूप से परिग्रह का विस्तार मिथात्व, चार कषाय एवं नौ कषाय तक व्याप्त है। ये सारे भेद मोह कर्म से सम्बन्धित हैं ।
बाह्य परिग्रह के मुख्यतः पांच प्रकार हैं- 1. हिरण्य - सुवर्ण, 2. क्षेत्र - वास्तु, 3. धन धान्य, 4. द्विपद - चतुष्पद, 5. कुप्य वस्तु ।
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श्रावक इन सब की मर्यादा करता है । जो श्रावक इन परिग्रहों का जितना परिमाण कर लेता है, फिर वह उसी के अन्तर्गत अपने जीवन का संचालन करता है । आगम में परिग्रह - परिमाण के साथ आजीविका के साधनों की पवित्रता पर भी ध्यान दिया गया है।
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अंगार कर्म, वन कर्म, आदि 15 व्यवसायों को हिंसा के आधिक्य एवं कर्म बंध के प्रमुख स्रोत होने के लिए त्याज्य बताया गया है। ____ अर्थ-विकास के इस युग में गृहस्थ श्रावक के द्वारा परिग्रह परिमाण के औचित्य के सन्दर्भ में यहाँ पर कतिपय विचार बिन्दु प्रस्तुत हैं
__1. प्रश्न यह होता है कि जिसके पास पर्याप्त धन सम्पदा है, वह यदि परिग्रह परिमाण करे तो उचित प्रतीत होता है, किन्तु जिसके पास खाने को रोटी नहीं, पहनने को कपड़े नहीं, रहने को आवास नहीं, आजीविका का स्थाई साधन नहीं, प्रतिदिन मजदूरी कर जो उदर का भरण करता हो, उसके द्वारा परिग्रह परिमाण किया जाना उचित हो सकता है? परिग्रह परिमाण व्रत तो उसी को सुशोभित हो सकता है जिसके पास मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने के बाद भी पर्याप्त साधन विद्यमान हो।
उपासकदशा सूत्र का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि आनन्द आदि श्रावकों के पास करोड़ों स्वर्ण मुद्राएं थी, फिर उन्होंने भगवान महावीर के मुखारविन्द से परिग्रह का परिमाण किया। किसी निर्धन ने परिग्रह का परिमाण किया हो, ऐसा उल्लेख नहीं मिलता। इसका तात्पर्य यह निकलता है कि पर्याप्त धन सम्पदा होने के पश्चात ही परिग्रह का परिमाण किया जाना समीचीन है। ____ 2. उपर्युक्त प्रश्न का समाधान यह कह कर किया जा सकता है कि भावी की अपेक्षा से कोई निर्धन वर्तमान में भी परिग्रह परिमाण कर सकता है। सम्भव है, भविष्य में उसके पास करोडों की धन-सम्पदा हो जाए, अत: वह उस अपेक्षा से वर्तमान में भी परिग्रह परिमाण कर सकता है। वर्तमान काल में श्रावक समुदाय इसी तरह से परिग्रह परिमाण करता है। जितनी धन -सम्पदा उसके पास जीवन पर्यन्त न हो सके, वह उतने परिग्रह की मर्यादा करता है जो समीचीन प्रतीत नहीं होती। आनन्द आदि श्रावकों ने परिग्रह का परिमाण भावी की अपेक्षा से नहीं, जितना उसके पास विद्यमान था, उसका किया था। श्रावक के तब के एवं अब के आचार में यह एक खास भेद है कि वर्तमान में श्रावक छल-छदम् से विरहित है, जबकि आनन्द आदि श्रावकों में व्रत अंगीकार करने के साथ छल-छद्म का समावेश नहीं था। ___ 3. इच्छा परिमाण या परिग्रह-परिमाण से आर्थिक विकास अवरुद्ध नहीं होता, अपितु परिमाण से अधिक अर्जन का उपयोग बेरोजगारों को रोजगार उपलब्ध कराने में अथवा समाज हित या राष्ट्र हित के उपयोगी कार्यों में किया जा सकता है। जिसे अपने लिए नहीं चाहिए , वह दूसरों के लिए उपयोगी बन जाता है।
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4. वर्तमान आर्थिक युग में उपभोक्तावाद का प्रबल प्रभाव है। बड़ी बड़ी कम्पनियाँ या औद्योगिक प्रतिष्ठान अपने उत्पाद बेचने के लिए मनोवैज्ञानिक ढंग से दूरदर्शन, आकाशवाणी, अखबार, होर्डिंग आदि के माध्यम से ऐसा विज्ञापन करते हैं कि मानव की आवश्यकता न होने पर भी खरीदने का मन बन जाता है। यही नहीं, कम्पनियों द्वारा बिना ब्याज के किश्तों में उन उत्पादों को उपलब्धता से ग्राहकों को आकर्षित किया जाता है। बैंकों द्वारा प्रदत्त ऋण एवं कैशकार्ड भी इसमें अपनी भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं। उत्पादों में परस्पर स्पर्धा है, इसलिए ग्राहकों को आकर्षित कर आर्थिक कारोबार में तेजी लाई जाती है । मध्यम वर्ग का मानव आज अपनी आय से अधिक वस्तुओं को क्रय करने में अपनी प्रतिष्ठा समझने लगा है। घर पर उपलब्ध ये वस्तुएं मनुष्य की प्रतिष्ठा के मानदण्ड समझे जा रहे हैं। जिसके पास सुविधाओं का अम्बार है, उसे उतनी ही अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त है। इससे मानव की असंतुष्टि का ग्राफ निरन्तर ऊँचा जा रहा है। पहले जहाँ एक स्कूटर से व्यक्ति संतुष्ट था, वहाँ वह एक कार से असंतुष्ट है। अब उसे घर के प्रत्येक सदस्य के लिए अलग-अलग कारें चाहिए। वे भी सामान्य नहीं, वातानुकूलित चाहिए। वे भी नये मॉडल निकलने पर फिर बदल ली जाती है। मोबाइल फोन का विस्तार तेजी से हो रहा है ।
यहाँ पर दो बिन्दु उभर कर आते हैं। जितना सुविधाओं का विस्तार या विकास होता है, मनुष्य का सन्तोष उतना ही दूर जाता रहता है। यदि परिमाण या नियंत्रण करके चलता है तो वह सदैव संतुष्ट रहता है। दूसरा बिन्दु यह है कि वैज्ञानिक साधनों एवं सुविधाओं से मनुष्य की कार्य क्षमता बढ़ी है, इस दृष्टि से इनकी उपयोगिता है । किन्तु उन सुविधाओं ने उसको पराधीनता में ही जकड़ा है तथा उसके शारीरिक स्वास्थ्य को प्रभावित किया है।
5. आर्थिक विकास को ही केन्द्र में रखा जाए एवं न्याय-नीति को गौण कर दिया जाए तो अनेक दोष उत्पन्न होते हैं । यथा - अनैतिकता, भ्रष्टाचार, असंयम, लोभ, वस्तुओं की दासता, शोषण, मिलावट, तस्करी, कालाबाजारी, धोखाधड़ी आदि । इसके विपरित यदि मानव हित को लक्ष्य में रख कर परिग्रह की मर्यादा को प्रोत्साहन दिया जाए तो उपर्युक्त दोषों में निश्चित रूप से कमी आ सकती है।
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6. मात्र अर्थ केन्द्रित विकास मनुष्य की वृत्तियों को पशुत्व की ओर ले जा सकता है। वह उसे संवेदनाशून्य, क्रूर एवं स्वार्थी बनाता है । किन्तु परिग्रह - परिमाण व्रत का प्रभाव दूसरा ही है । यह मनुष्य को जीवन मूल्यों से जोड़े रखता है, जिससे वह अपनी दुष्प्रवृत्तियों पर नियंत्रण करने के साथ जगत् के अन्य प्राणियों के प्रति संवेदनशील,
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उदार एवं सहयोगी बनता है। आर्थिक विकास के साथ मानवता का विकास भी आवश्यक है, जिसमें परिग्रह परिमाण व्रत की महती भूमिका हो सकती है।
7. परिग्रह का परिमाण अनेक कारणों से मानव जाति के लिये लाभप्रद है, उसमें से कतिपय कारण इस प्रकार हैं
1. परिग्रह परिमाण मानव को आत्म संतोष एवं शान्ति प्रदान करता है। 2. अनन्त इच्छाओं को सीमित करने के कारण व्यक्ति मनोजयी, इन्द्रियजेता
एवं आत्म-विजेता बनता है। 3. परिमाण से अधिक धन-सम्पदा होने पर उसका जनहित में उपयोग कर
सकता है। 4. वह जगत् में अनेक लोकोपकारी कार्य कर पुण्य का संचय कर सकता है। 5. आरम्भ, मिथ्या भाषण, चौर्य, लाभ आदि दोषों से बचने के कारण आस्रव
का निरोध कर कर्म बंधन से बचता है। 6. जहाँ आस्रव-निरोध रूप संवर की साधना होती है वहाँ पूर्वकृत कर्मों की
निर्जरा भी सहज होने लगती है। 7. परिग्रह-परिमाण करने वाला व्यक्ति निर्धन वर्ग की ईर्ष्या का भाजन बनने
से बच जाता है। 8. हृदय में उदारता की भावना को बल मिलता है, जो स्वयं को एवं दूसरों को
प्रसन्न रखने में सहायक होती है। 9. परिग्रह का परिमाण सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय होता है, क्योंकि उसमें
सम्पदा पर एकाधिपत्य की भावना का नाश हो जाता है। अपनी पूर्ति होने
के पश्चात् सर्वकल्याण का भाव विकसित हो सकता है। सम्प्रति न केवल भारत में अपितु समस्त विश्व में बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, आतंकवाद और पर्यावरण प्रदूषण की समस्याएं मुँह बनाये खड़ी हैं। इन समस्याओं के निराकरण में भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित परिग्रह परिमाणव्रत एक सार्थक उपाय सिद्ध हो सकता है। बेरोजगारी एवं निर्धनता से पीड़ित व्यक्तियों को ईश्वर या भाग्य के भरोसे छोड़ना उचित नहीं है। उनके मन में असीम इच्छाओं की उत्पत्ति का उदाहरण प्रस्तुत करना भी समुचित नहीं है, किन्तु उनके लिए श्रमनिष्ठ आजीविका के साधनों का विकास तथा
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तदनुकूल शिक्षण का विकास आवश्यक है। परिग्रह-परिमाणवती, श्रावक-समाज का इस दिशा में थोड़े क्षेत्र में ही सही, आदर्श निदर्शन बन सकता है।
_भ्रष्टाचार की समस्या पुरातन से चली आ रही है। बिना श्रम के धन अर्जित करने की लालसा ही इसका मूल कारण प्रतीत होती है। व्रती व्यक्ति इस प्रकार की लालसा से रहित होकर भ्रष्टाचार मुक्त वातावरण प्रदान कर सकता है।
धन या सत्ता की प्राप्ति आतंकवाद का मुख्य हेतु है। परिग्रह-परिमाणव्रती स्वयं इससे मुक्त रहता है, किन्तु दूसरों के लिए भी प्रेरक कारण नहीं बनता है।
पर्यावरण प्रदूषण की समस्या प्राकृतिक सम्पदा के शोषण और उसके रासायनिक परिवर्तन की प्रक्रिया से जुड़ी हुई है। मानव सुख-सुविधा के जितने साधन जुटाता है वह उतना ही प्रदूषण फैलाता है। परिग्रह परिमाण व्रत को यदि व्यापक स्तर पर स्वीकार कर लिया जाए तो पर्यावरण प्रदूषण की समस्या पर एक सीमा तक नियंत्रण हो सकता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ : 1. उत्तराध्ययन सूत्र 8.16 2. प्रश्न व्याकरण , 1.5 3. दशवैकालिक 6, 21 4. सूत्रकृ तांग 1.1.1-2
एसोशियट प्रो. संस्कृत विभाग । जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय जोधपुर (राजस्थान)
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आधुनिक युग में श्रावकाचार का अस्तित्व
डॉ. अनेकांत कुमार जैन
आचार शास्त्र का नाम सुनते ही ऐसा प्रतीत होता है कि यह धर्म की प्रयोगशाला है। हम धर्म पर अच्छा चिंतन कर सकते हैं, व्याख्यान दे सकते हैं, लेख लिख सकते हैं, बड़ी गोष्ठियां करवा सकते हैं किन्तु वास्तविकता यह है कि यह तमाम कार्य धर्म की व्याख्या कर सकते हैं, उसे धारण नहीं कर सकते। धारयन्ति इति धर्मः जो धारण किया जाये वह धर्म है। इसलिये श्रावकाचार से धर्म प्रारम्भ होता है।
हम सभी परिवर्तन के एक बहुत बड़े दौर से गुजर रहे हैं। यह परिवर्तन सामाजिक या राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं हुआ है बल्कि समूचे विश्व जगत् में है। सामाजिक,धार्मिक और नैतिक मूल्यों में परिवर्तन तो हुआ है, साथ ही साथ जीवन के लक्ष्यों में भी परिवर्तन हुआ है। हम निवृत्ति का शोर मचाते हुए प्रवृत्ति के जाल में उन्हीं तोतों की तरह फंस रहे हैं जो दाना नहीं खायेंगे, नहीं तो शिकारी जाल में फंसा लेगा, कहते-कहते रटते-रटते दाना खाने बैठ जाते हैं और जाल में फंसने के बाद भी यही रटन लगाये रहते हैं । __ आधुनिक युग में श्रावकाचार का अस्तित्व हम सभी के लिए एक बहुत बड़ी चुनौति है, वह चुनौति इसलिये अधिक बड़ी है, क्योंकि श्रावकाचार एक सीढ़ी है श्रमणाचार या मूलाचार तक पहुँचने की और यदि यह सीढ़ी ही मजबूत नहीं रही तो वे दिन दूर नहीं जब हमें श्रमणाचारी से भी हाथ धोना
पड़ेगा।
बहुत बड़ी समस्या -
आधुनिक जीवन शैली और तौर तरीकों के मध्य हमारा श्रावकाचार कैसे सुरक्षित रहे और क्यों सुरक्षित रहे? यह एक बहुत बड़ी समस्या है। आज के
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युग में यह जरूर कहा जा रहा है कि कोई ऐसा तरीका खोजा जाये कि श्रावक भौतिक विकास के नये-नये आयामों को भी छुए और श्रावकाचार का अक्षरशः पालन भी कर सके। पर शायद ऐसा तरीका कभी भी न खोजा जा सके, क्योंकि संसार भोगों से निवृत्त कराने की प्ररेणा देने वाला श्रावकाचार उन्हीं की अभिवृद्धि और उनमें आसक्ति को कैसे बढ़ावा दे सकता है। फलतः दोनों में से किसी एक का समर्पण करना ही होगा अर्थात् किसी एक के लिए दूसरे का बलिदान और यदि हमें इन दोनों में से कोई एक बीच का रास्ता निकालना ही है तो हमें इस बात का निर्णय कर लेना होगा कि हमारे जीवन का मुख्य लक्ष्य क्या है? जीवन के लक्ष्य पर आधारित श्रावकाचार का अस्तित्व :
___ मूलतः श्रावकाचार क्या व्रत, उपवास आदि क्रियाकलापों मात्र को ही कहा जायेगा या आत्म कल्याण की भावनाओं से ओतप्रोत सोद्देश्य किये गये व्रत, अणुव्रत
और भावक्रियाओं को कहा जाएगा। यदि इस बात का निर्णय हो जाये और उसके साथ साथ उन लक्ष्यों का भी निर्णय हो जाये जिन्हें हम अपने जीवन में मुख्यता प्रदान करना चाहते हैं तो नि:संदेह समाधान हो सकता है। आम श्रावक की धारणा मुख्य रूप से निम्न दो में से एक हो सकती है -
1. पहली धारणा - मुख्य रूप से तो मुझे अपना कल्याण कर शाश्वत आत्म-सुख प्राप्त करने का प्रयास करना है और मैं उसी के लिए प्रयासरत हूँ और आजीविका चलाने के लिए धनार्जन आवश्यक है तो उसे मुझे गौण रूप से करना पड़ता है लेकिन वह मेरा मुख्य उद्देश्य नहीं है।
2. दूसरी धारणा:- यद्यपि मैं धर्म प्रेमी हूँ और मैं यह जानता हूँ कि धर्म हमें कल्याण का रास्ता बतलाता है किन्तु इस धर्म पर चलने के लिए आत्म-कल्याण में मेरी विशेष रुचि नहीं है। मैं धर्म के साथ-साथ पूर्ण भौतिक उन्नति और उस सम्बन्धी इच्छाएं पूरी करना चाहता हूँ और धार्मिक क्रियाएं यदि उसमें बाधक बनती हैं तो मैं उन्हें अपनाने में असमर्थ हूँ। धर्म छूट न जाय, इसलिए उसे गौण रूप से अपने जीवन में चलाना पड़ता है। परिवर्तन के प्रति सामाजिक मान्यता का प्रश्न :
किसी भी धर्म की चाहे आचार मीमांसा हो या फिर ज्ञान मीमांसा उन्हें परिवर्तन स्वीकार करना बहुत कठिन होता है। उसकी दृष्टि में परिवर्तन का अर्थ है- भ्रष्ट । धर्म को जो गृहस्थ धारण करते हैं वे जीवन के हर क्षेत्र में परिवर्तनशील होते हैं। आचार-विचार में भी और भाषाओं में भी। समाज में परिवर्तन का अर्थ है विकास। समाज द्वन्द्व में फंस
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जाता है। धर्म की शाश्वत घोषणाओं को वह परिवर्तन नहीं करना चाहता और उसका लोक व्यवहार क्षण-क्षण में परिवर्तन हो रहा है। जब आस-पास का वातावरण परिवर्तन रूपी विकास की सारी सीमाएं पार कर रहा हो तब हम शाश्वत घोषणाओं को वैसा ही सुरक्षित रखकर उन्हें शिरोधार्य करके इस परिवर्तन के दौर में दौड़ लगायें -यह कहाँ तक व कैसे सम्भव है ?
इस विचार पर दो प्रकार के लोग सामने आते हैं- एक वो जो यह कहकर पल्ला झाड़ देते हैं कि हम तो दौड़ लगायेंगे अगर सिद्धांत या आचार हमारी दौड़ के अनुरूप हो तो, हमारी दौड़ में बाधक न बन रहे हो तो। हमें उन आचार संहिताओं और सिद्धांतों को लेकर चलने में कोई बाधा नहीं है और दूसरे वे जो यह कहते हैं कि यदि यह आचार संहिताएं हमारी दौड़ को सुगम बनाने की बजाय बाधक बनाती हैं तो हम सिद्धांत छोड़ देंगे किन्तु दौड़ नहीं छोड़ेंगे। आधुनिक समस्या :
वर्तमान समय में हम दो प्रकार की विचारधाराओं से ग्रसित हैं। एक पारम्परिक विचार धारा और दूसरी विकासवादी विचार धारा। हमारे मन में यह अन्तर्द्वन्द्व हमेशा चलता रहता है कि जैन संस्कृति को हम पारम्परिक और विकासवादी इन दोनों धाराओं के साथ संतुलन बिठाये हुए कैसे गति प्रदान करें? हम परम्परा से नहीं कट सकते,क्योंकि हमारी सम्पूर्ण विरासत पारम्परिक है। हम विकासवाद से भी अछूते नहीं रह सकते, क्योंकि हमारे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र पर उत्तर आधुनिकता की ओर बढ़ता हुआ ज्ञान, विज्ञान और धन सम्पदा से सुसज्जित वर्तमान युग हावी है। हमें इसके सामने भी अपनी संस्कृति, सिद्धांतों और संस्कारों की प्रासंगिकता सिद्ध करनी है। यह हमारी आधुनिक समस्या है जिसका समाधान हमें ग्रन्थों में नहीं मिल पा रहा है । इसका समाधान हमारे स्वयं के विवेक से सम्भव है।
परम्परा और विकास की समस्या:- निश्चित रूप से परम्परा और विकास के अन्तर्सम्बन्ध समस्याग्रस्त हैं। हम जैन सिद्धांतों को आधुनिक सन्दर्भो में प्रासंगिक होने का भले ही कितना ही दावा करते हों किन्तु सच यह है कि आधुनिक पीढ़ी को हम यह समझाने में असफल हो रहे हैं कि गाय और भैंस के स्तनों में मशीन लगाकर जबरन निकाले गये डेयरी का दूध मांसाहार है अथवा नहीं, क्योंकि पाश्चात्य देशों में वो सब Non-Vegiterian ही कहा जाता है जो Animal product होता है। अब वो चाहे दूध, दही, घी ही क्यों न हो। छने हुए पानी को उबालकर पीना, उसमें लोंग इत्यादि डालकर
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उसकी मर्यादा को अधिक करना, हफ्तों से फ्रिज में रखी किसी मिनरल वाटर से ज्यादा शुद्ध व अहिंसक होता है। प्याज, लहसुन, अदरक औषधियों के रूप में अनन्त गुणकारी शाकाहारी पदार्थ होते हुए भी हम इन्हें इसलिए नहीं खाते, क्योंकि इसमें अनन्त सूक्ष्म जीव होते हैं। जो हमें आँखों से दिखाई नहीं देते बल्कि भिण्डी,अमरूद आदि पदार्थों का प्रयोग हम हमेशा करते हैं जिनमें साक्षात् रेंगते हुए जीव तक दिखाई पड़ जाते हैं। अन्य
और भी आचारगत समस्यायें हमारे सामने मुँह बाए खड़ी हैं जिनका वास्तव में कोई निश्चित व्यावहारिक समाधान हमारे पास नहीं है। इसमें या तो हम रूढ़ हो जाते हैं या फिर स्वच्छन्दी जबकि यह दोनों ही परिस्थितियाँ हमारा समाधान नहीं है । परम्परा कहती हैपानी छानो, उबालो, उसकी मर्यादा रखने के लिये उसमें लोंग इत्यादि डालो। विकास कहता है -पानी शुद्ध चाहिए न। मिनरल वाटर की बॉटल खरीदो और पियो, 100% शुद्धता की गारन्टी है किन्तु कीटनाशक हानिकारक दवाओं के प्रयोग ने हमें एक बार फिर अपनी परम्परा की ओर देखने पर विवश किया है। आये दिन हम और भी विवश होते चले जा रहे हैं। क्या समस्याएं जड़ हैं और विकास गतिमान :
आज के सन्दर्भ में परम्परा और विकास प्रायः विपर्यायवाची शब्द माने जाने लगा है। उनका उपयोग दो विपरीत ध्रुवीय संप्रत्ययों के रूप में किया जाने लगा है। परम्पराओं को जड़ और विकास को गति मानना हमारी विचार प्रक्रिया में रूढ़ हो गया है। भारत में पाश्चात्य का घातक भूत बड़ी आसानी से जगह बना गया। हमने भी अपनी विरासत कुर्बान कर दी। एक तरह से यह हमारी निजी कमजोरियों का ही नतीजा है। यह सीधे सीधे उन समस्त बौद्धिक और सांस्कृतिक आधारों पर आघात करता है जिनसे जैन सिद्धांत और व्यक्ति के संस्कारों की रचना हुई है। हमारी अत्याधुनिकता ने धीरे-धीरे इन सभी स्रोतों को सुखा दिया है जिनके द्वारा एक श्रावक अपनी आत्मा, अपनी अस्मिता और अपने अस्तित्व को संजोता संभालता है। इसी कारण वर्तमान में हम भी दो नावों पर खड़े हुए एक ऐसे आत्म-उन्मूलित आदमी बन गये हैं जिसका एक भाग तो परम्परा से जुड़ा है और दूसरा भाग पश्चिम की आधुनिक शैली, चिंतन पद्धति और उनकी संस्कृति के प्रति अनुरक्त है। चूंकि इन दोनों नावों का आपस में किसी किस्म का कोई संबंध नहीं है, इसलिये हमारा पारम्परिक एवं सांस्कृतिक पक्ष उतना ही खोखला बन गया है जितना हमारा आधुनिक पक्ष कृत्रिम और दिखावटी। बाहर का प्रभाव हमारे मानस को जितना अधिक आत्मनिर्वासित कर रहा है, उतने ही अन्दरूनी ऊर्जा स्रोत सूखने लगे हैं।
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पम्परायें तो ज़रूरी हैं:
परम्परा और आधुनिक विकास इन दोनों की स्थिति अत्यंत द्वन्दात्मक है। जैन संस्कृति अतीत के गत प्रयोग जीवाश्म के रूप में प्रकट नहीं हुई है। उनमें प्रकट रूप में प्रच्छन्न ऊर्जा है। उसके बिम्ब, आचार, सिद्धांत और प्रतीक, मूल्य और अर्थ वर्तमान के लिए भी प्रासंगिक है और भविष्य के लिए भी । वर्तमान की जड़ें अतीत में होती हैं और भविष्य में वर्तमान का विस्तरण होता है। बदलते संदर्भों में भी हमारी परम्परा और संस्कृति समाज को जीवन क्षमता और दिशा संकेत देती है । यह बात चिन्तनीय है कि क्या विकास की प्रक्रिया पारम्परिक सांस्कृतिक मूल्य बोधों से असंपृक्त रह सकती है ? अणुव्रतों - महाव्रतों की अस्मिता ?
प्राय: जैन संस्कृति और धर्म के विचार के प्रसार में आचार को बाधक माना जा रहा है। अजैन ही क्या ? जैनों तक में यह कहते सुना जाता है कि कठोर आचार संहिताओं के कारण जैन-धर्म विश्वधर्म बनने से रह गया । ऐसी समस्याओं पर हमें यह कहना पड़ता है कि जैन Quality पर विश्वास करता है, Quantity पर नहीं । यही जैन धर्म की विशेषता है। हम यह कह कर सन्तुष्ट हो जाते हैं किन्तु आधुनिकता के बाद अब उत्तर आधुनिक में वैश्वीकरण के इस दौर में हमारे अणुव्रतों और महाव्रतों के सिद्धांत एक बार फिर अपनी अस्मिता पर प्रश्न चिह्न लगाये हमारे समक्ष खड़े हो गये हैं। जितनी तीव्रता से युग और वातावरण परिवर्तित हो रहा है उतनी तीव्रता से हम अपनी प्रासंगिकता को सिद्ध नहीं कर पा रहे हैं।
श्रावक की आचार मीमांसा और उत्तर आधुनिकता
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वास्तविक व्रतों का स्रोत अतीत है और अतीत में आचार्यों द्वारा रचित शास्त्र, किन्तु इससे प्रेरणा लेने की भावना लुप्त हो रही है । किसी तरह उसके अंश बचे हैं जो नारों के रूप में आचार को वैचारिक आधार दे रहे हैं, व्यावहारिक नहीं, इसलिये आचार अपना ठोस आधार वर्तमान में तलाश रहा है जो वस्तुतः आधुनिकता के तत्त्वों से मिलकर बना होता है। उसे अपनी प्रासंगिकता आधुनिकता के सापेक्ष सिद्ध करनी पड़ती है, इसलिए वह स्वयं को आधुनिकता से ज्यादा श्रेष्ठ और उपयोगी बतलाता है । उसका आत्माभिमान कायम रहता है। यह उत्तर आधुनिक युग में भी आचार को यह दखलअंदाजी करने देता है, क्योंकि उसके विगत के साथ निरंतरता और उसके मूल्यों की आवश्यकता है। निरन्तरता की उपलब्धि होते ही दखलन्दाज़ी की प्रक्रिया उल्टी हो जाती है और यह युग आचार में हस्तक्षेप करने लगता है। वह अणुव्रतों और महाव्रतों को उत्तर आधुनिकता की
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शक्तिशाली शर्तों के अनुसार गढ़ने लगता है। मूल भावनाओं को क्षीण करने की कीमत पर भी अणुव्रतों में पांच सितारा होटल का डिनर, हवाई जहाज का शाकाहारी भोजन जो उसी पाकशाला में तैयार होता है जहाँ मांसाहार तैयार होता है । इस प्रकार का विकास सर्वांगीण विकास नहीं कहा जा सकता, क्योंकि मूल्यों के ह्रास की भूमिका पर उसके महल निर्मित हैं । अत: कहां हमें परम्परा से जुड़े रहना है और कहाँ अप्रयोजनभूत रूढ़ परम्परा में परिष्कार करके विकास करना है इसका विवेकपूर्वक निर्णय करना होगा, आधुनिक युग में श्रावकाचार के तहत हमें मात्र व्रत, उपवास इत्यादि पर ही विचार नहीं करना है बल्कि जैन श्रावकों के उन आचार विचारों पर भी चिंतन करना है जिनके कारण वे विभाजित होते चले जा रहे हैं ।
जड़ता से कौन बचता है ?
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समस्या यह है कि विकास हमें जड़ से उखाड़ रहा है और कई रूढ़ परम्परायें हमें जड़ बना रही हैं । न ही हम जड़ से उखड़ना चाहते हैं और न ही हम जड़ हो सकते हैं। प्राचीन परम्पराओं के मूल्यों की खुलकर होती त्रासदी झेल भी रहे हैं किन्तु उन सभी मूल्यों को समय सापेक्ष परिभाषित करने की जुर्रत भी नहीं कर पा रहे हैं । इसके दो कारण हैं - एक या तो हम समय नहीं लगाना चाहते या हममें इतनी सामर्थ्य नहीं है । युग इतना परिवर्तित हो गया और हमारे धार्मिक मूल्य, हमारे व्यक्तिगत और सामाजिक मूल्य जीवन से कब कपूर की तरह उड़ गये, हमें पता ही नहीं चला। अब इस परिवर्तित युग के साथ हम तालमेल बिठाने की कोशिश में हैं ।
हमारे जीवन में जीवन्त कई आचार संहितायें आगे चल कर स्वतः रूढ़ और भ्रष्ट हो गयीं, इसका कारण यह है कि हमने स्वयं कभी परिवर्तन नहीं किया । यदि हम इस परिवर्तन को अपने हाथों से संवारते तब इसका कुछ और ही स्वरूप होता । यह परिवर्तन हमें चुभता नहीं । यह परिवर्तन हमें जड़ से नहीं काटता । हम इस सत्य को समझें कि परिवर्तन होता ही है, हम उसे चाहें अथवा नहीं और जिसे रोकना असम्भव है वहां हमें उसके साथ हो लेना चाहिए और उस परिवर्तन को एक निश्चित दिशा में मोड़ना चाहिए । तब वह परिवर्तन सुसंस्कृत होकर हमारी नयी व्याख्यायें प्रसंगानुकूल करेगा। श्रावक की द्वन्दात्मक आधुनिक बारह भावनायें -
परम्परा और आधुनिकता के अन्तर्द्वन्द्व में फंसा हुआ आत्म-धर्म की बातों से दूर आत्म उन्मूलित श्रावक की मनोदशा एक विचित्र वातावरण को जन्म दे रही है परिस्थितिजन्य श्रावकाचार स्वतः उत्पन्न हो रहे हैं, उसका द्वन्द्वात्मक अस्तित्व नये मूल्यों
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जन्म दे रहा है। इन मूल्यों को गढ़ने में वह किसी आचार शास्त्र की मदद नहीं ले रहा है बल्कि बिना किसी नये आचार शास्त्र की रचना किये वह मानसिक रूप से और प्रयोगिक भूमि पर युगानुकूल नयी भावनाओं को पाल रहा है। स्थूल रूप से औसतन श्रावक इसे ही मान रहे हैं । अनित्य, अशरण इत्यादि बारह भावनाओं को बहुत ऊंचे आसन पर सम्मान पूर्वक बिठाकर खुद निम्न लिखित भावनायें कर रहा है :
1.
मैं आध्यात्मिक होना चाहता हूँ किन्तु असामाजिक नहीं । मैं निर्लोभी होना चाहता हूँ किन्तु गरीब नहीं ।
2.
3.
मैं अव्यभिचारी बनना चाहता हूँ किन्तु ब्रह्मचारी नहीं ।
4.
5.
मैं भगवान बनना चाहता हूँ किन्तु अमानव नहीं। मैं नीतिज्ञ बनना चाहता हूँ किन्तु राजनीतिज्ञ नहीं । मैं रिश्वत लेना छोड़ सकता हूँ लेकिन देना नहीं ।
6.
7.
मैं अहिंसक बनना चाहता हूँ लेकिन कायर नहीं ।
8.
मैं अभिमान छोड़ना चाहता हूँ किन्तु स्वाभिमान नहीं ।
9.
मैं दान कर सकता हूँ किन्तु इकट्ठा करने की भावना नहीं छोड़ सकता । 10. मैं शाकाहारी रह सकता हूँ किन्तु होटलों में खाना नहीं छोड़ सकता । 11. मैं धार्मिक कार्यों के लिए पैसा दे सकता हूँ किन्तु समय नहीं । 12. मैं शक्ति अनुसार व्रतों को पा सकता हूँ किन्तु मजबूरी पूर्वक ढो नहीं
सकता ।
एकता की समस्या और हमारी सोच:
श्रावकाचार के सार्थक अस्तित्व की तलाश में एकता एक महत्वपूर्ण घटक है। खासकर आज जैसे वातावरण में कौमी एकता एक आवश्यक तत्त्व है। एकता के नाम पर हमने बहुत नारे लगाये हैं किन्तु सच तो यह है कि प्रत्येक पंथ का अनुयायी अन्दर ही अन्दर अन्य पंथ के अनुयायियों को घोर एकान्तवादी, वज्र मिथ्यादृष्टि और जिन धर्म का ह्रास करने वाला समझते हैं। हमारे लिए एकता की परिभाषा यह है कि शेष सभी पंथों और परम्पराओं का हमारी परम्परा में विलय हो जाये । वास्तविकता यह है कि एकता की कल्पना ही हमारे विघटन का मूल कारण है। अस्तित्व के संकट का सामना करने के लिए समस्त जैन पंथों, परम्पराओं, जातियों का एकजुट होना जरूरी भी है परन्तु इस समरसता का अर्थ परम्पराओं और संस्कृतियों की विविधता का ह्रास नहीं है । आवश्यकता है परम्पराओं और संस्कृतियों के सह अस्तित्व के नये आधार की । समान लक्ष्यों की
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प्राप्ति के लिए समस्त जैन अवश्य एक हो परन्तु सर्वव्यापी सांस्कृतिक व पारम्परिक एकरूपता न जरूरी है और न सम्भव है। उदारवादी विचारों की कमी:
यदि हम सचमुच यह चाहते हैं कि विभिन्न पंथों और विचारों के मध्य सामाजिक समरसता कायम रहे तो हम सभी को विचारों में तो उदार बनना होगा और चरित्र में दृढ़। हमारी वैचारिक उदारता एवं सहिष्णुता हमें समाज के प्रत्येक वर्ग के बीच कषाय रहित सम्बन्ध बनाने में मदद देगी और हमारी चारित्रिक दृढ़ता हमें हमारी मूलभूत परम्पराओं से असंपृक्त नहीं होने देगी। यह दृष्टि हम सम्पूर्ण भारतीय समाज के मध्य भी निर्मित कर सकते हैं किन्तु दुर्भाग्यवश हम चरित्र में तो उदार हैं पर विचारों में कठोर हैं । हम अपनी जैन संस्कृति में ही विकसित अपने से इतर पंथ के प्रवचन नहीं सुन सकते, उनका साहित्य पढ़ नहीं सकते, उनके आगे विनयपूर्वक हाथ जोड़ने से हमें हमारा मोक्ष मार्ग बाधित होता दिखाई देता है, हम खुद हर बात पर मूलधारा से अलग होकर चलना चाहते हैं। सांस्कृतिक, वैचारिक और सैद्धांतिक विभिन्नतायें तो सदा से रही हैं और अगर इसका हम उज्ज्वल पक्ष देखें तो पायेंगे कि इन विभिन्नताओं ने हमें जड़ता से बचाया है। नये विचारों ने जन्म लेने के साथ संस्कृति को दिशा और गति ही प्रदान की है। अगर यह विभिन्नतायें न हों तो हम कूपमण्डूक हो जायेंगे। नयी सोच, नयी दिशा और नये परिवेश के लिए हमारे हर द्वार बन्द हो जायेंगे। हमें तो कितनी लम्बी दूरियां तय करनी है। हम सर्जन में इतने व्यस्त हों कि इन संकीर्ण विवादों के लिए हमारे पास अवकाश ही न रहे। पहले जरूरी है सामाजिक समरसता - ___ आज पूरे विश्व में युद्ध के बादल मंडरा रहे हैं। इसे सभ्यता संघर्ष कहा जा रहा है। क्या सभ्यता संघर्ष करना सिखाती है? यह संघर्ष सभ्यताओं का नहीं, असभ्यताओं का है। हम निश्चित तौर पर चाहेंगे कि जैन सिद्धांत अनेकान्त इस संघर्ष का निदान बने। हम पूरे विश्व से कह सकते हैं कि अनेकान्त को अपनाओ, क्योंकि संयुक्त राष्ट्रसंघ वास्तव में अनेकान्त के धरातल पर ही स्थापित है पर विडम्बना यह है कि हम खुद उसे अपनाने में असमर्थ हैं। हम परम्परा और विकास के बीच संतुलन नहीं अपना पा रहे हैं। वैचारिक कठोरता सामाजिक समरसता स्थापित करने में बाधक बनी हुई है। जिनके पास इतना उदार हृदय ही न हो कि सबको सुन-पढ़ सके,स्वीकार करे या न करे पर सहन कर सके, उनसे यह उम्मीद कैसे की जाये कि वे जैन संस्कृति को कोई उन्नतिशील या व्यापक दिशा दे पायेंगे। इसलिए हमें हर कीमत पर यदि किसी बात पर सबसे पहले बल देना चाहिए तो वो हैं सामाजिक समरसता । इसके बिना हमारे सब सपने अधूरे हैं।
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निरर्थक आलोचनाओं से बचना होगा :
यह सच है कि वर्तमान युग आलोचनाओं का युग है। जिस प्रकार हिन्दी साहित्य जगत् में आलोचना रचना से कहीं अधिक आगे निकल गयी है उसी प्रकार हमारी श्रावक समाज में किसी सर्जनात्मक या रचनात्मक कार्य की उपेक्षा उन कार्यों की आलोचना अधिक महत्वपूर्ण मानी जा रही है। आलोचनाओं से निष्कर्ष क्या निकलता है? यह आज तक समझ में नहीं आया है। वैसे भी आज कल निन्दा और आलोचना से कोई नहीं घबराता है। हर प्रकार के आचार और विचार, क्रिया और काण्ड एक प्रकार से स्थायित्व ग्रहण कर चुके हैं। उन्हें बदलना सम्भव नहीं है। दूसरी तरफ हमारा व्यक्तित्व विरोधी हो गया है। हम प्रत्येक उचित अनुचित का विरोध करके उसे रोकना चाहते हैं, यह हमारी ऐतिहासिक भूल है जिसे हम दुहराते जा रहे हैं। यदि वास्तव में हम कुछ करना चाहते हैं तो दोस्त बनना होगा, विरोधी नहीं। किसी काम को अपना बनाकर या खुद उसका बनकर ही हम उसे समझा सकते हैं। किसी को जड़ से नहीं उखाड़ा जा सकता और अनेकान्त स्वरूपी लोकतंत्र में ऐसा करने की कोशिश भी नहीं करनी चाहिए। यदि हम कुछ कर सकते हैं तो वह परिष्कार जो स्थापित है, उसे स्वीकारते हुये उसमें परिष्कार करें। बस, यही एक मंत्र है जो कुछ रच सकता है। अफसोस तो इस बात का है कि हमारी निरर्थक आलोचनाओं का जाल हमें कुछ रचने के लिए अवकाश ही प्रदान नहीं करता। निरर्थक आलोचना सामाजिक समरसता स्थापित करने में एक बाधक तत्त्व है। हम सभी उससे बचें। आइये, सहनशील बनें
हम सभी के सामने कई बड़ी चुनौतियां हैं, जिनसे हमें निपटना है। इसके लिए हम सभी अपनी-अपनी विचारधाराओं, परम्पराओं और सिद्धांतों को कायम रखते हुए तथा एक दूसरे के ऊपर उन्हें न थोपते हुए कम से कम हम उन बिन्दुओं पर एक रहें, जिन पर हम एक हैं। यहाँ व्यक्तिगत कषायों का अवकाश न रहे। अपने वैभव, अपनी संस्कृति
और अपने धर्म की रक्षा के लिए यदि किसी बात पर हमारा सम्मान न हो, कहीं कुछ सहना भी पड़े तो सहें। कहीं कुछ सुनना भी पड़े तो सुने। हमें पद विसर्जित करना पड़े तो करें और अधिक क्या कहें ? कही झुकना भी पड़े तो झुकें बशर्ते कोई बड़ा काम न रुके । अभी मंजिल दूर है। भगवान की इतनी सी वाणी हमारे पास सुरक्षित है। जो कुछ सुरक्षित है वो पूरी समझ में नहीं आई है। हमारे सामने केवली कोई नहीं है। हम कैसे किसी को भी अन्तिम रूप से गलत या सही घोषित कर दें। ऐसा करना सत्य की खोज के प्रति बेमानी होगी। हमें सत्य के अनेक अनुद्घाटित पक्षों को खोजना है। अतः हम कि सी भी संभावना से इन्कार नहीं कर सकते और करना भी नहीं चाहिए।
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यह कैसी विडम्बना है कि हम जैनेतर भाइयों के साथ तो हर प्रकार का समन्वय और वैचारिक साम्य स्थापित करके साथ उठ-बैठ लेते हैं, हँस-बोल लेते हैं किन्तु अपने ही जैन कुल में जन्म लेने वाले सभी भाइयों के साथ इसलिए उठ बैठ नहीं पाते, क्योंकि वे अलग पंथ या विचारों के हैं । इस सन्दर्भ में पूजनीय आचार्य श्री विद्यानन्दजी मुनिराज का यह संदेश हम सभी के लिए मार्ग-दर्शक सिद्ध हो सकता है- मत ठुकराओ, गले लगाओ, धर्म सिखाओ ।
सारांश के रूप में हम यह मान सकते हैं कि षडावश्यक और बारह व्रतों को पालकर भी यदि हम सामाजिक समरसता स्थापित नहीं कर पाते हैं, अनुदारवादिता और अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ कषायों का भी अभाव नहीं कर पाते हैं तो श्रावकाचार पर प्रश्नचिन्ह उभर जाता है। शास्त्र अपने स्थान पर बिल्कुल सही हैं, उनके अनुसार सम्यक्त्व से रहित कोई भी व्रत - अनुष्ठान इत्यादि मोक्ष मार्ग के लिए व्यर्थ हैं, वे उन्हें बाल तप की संज्ञा देते हैं, आज सम्यक्त्व के अभाव में भी श्रावकाचार यत्किंञ्चित् पाला जा रहा है । उसके पीछे भी मुख्य कारण या तो धार्मिक भावुकता है या फिर स्वास्थ्य का दृष्टिकोण | मुक्ति की प्रबल आकांक्षा लुप्तप्राय है । ऐसे समय में आचार मीमांसा अपनी युगानुकूल व्याख्या मांग रही हो तब हमें बहुत सावधानी पूर्वक आगे कदम बढ़ाने चाहिए और निम्न बातों का अनिवार्य रूप से ध्यान रखना चहिए1. हमारी नई व्याख्या लीक से हटे लेकिन भटके नहीं ।
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आचार मीमांसा में यथाशक्ति पालन की स्वतंत्रता स्वच्छन्दता में नहीं बदले। मूलधारा से टूटने की कीमत पर कोई विधान नहीं बने ।
हमारी व्याख्या व्यावहारिक ज्यादा हो ।
नयी व्याख्या को स्वीकारने को विवश न किया जाये ।
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अन्त में प्राकृत भाषा की निम्न सूक्ति से अपनी बात समाप्त करना चाहूँगा - " जं सक्कइतं कीरइ जं ण सक्कइ तहेव सद्दहणं - अर्थात् जो शक्य हो वो करें और जो अशक्य हो, उसकी श्रद्धा करें।"
व्याख्याता, जैन दर्शन विभाग, दर्शन संकाय श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ नई दिल्ली- 110 016
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गृहस्थाचार-परिपालन में नारी की भूमिका
श्रीमती डॉ. सरोज जैन
श्रावक : अर्जन गुणों का
जैन-धर्म का मर्म समभाव में समाया हुआ है। राग, द्वेष का न होना भी समभाव है। सारी धार्मिक क्रियायें इस समभाव प्राप्ति के लिए ही की जाती है। यह समभाव रत्नत्रय को धारण करने पर आयेगा। प्राणी मात्र में समानता का अनुभव करना ही अहिंसा है। अपरिग्रह का सिद्धान्त भी सामाजिक विषमता को हटाने के लिए ही है। भगवान महावीर का अनेकान्त सिद्धान्त दूसरों के विचारों का भी समन्वय करना सिखाता है। यदि हम दूसरे के कथन की अपेक्षा ठीक से जान लें तो फिर संघर्ष को मौका नहीं मिलेगा। भगवान् महावीर ने एक
और क्रान्तिकारी सन्देश प्रचारित किया कि वर्ण या जाति से कोई ऊंचा या नीचा नहीं होता। गुण ही मनुष्य को ऊंचा बनाते हैं। ब्राह्मण जाति में जन्म से कोई ऊंचा और शूद्र में जन्म लेने से नीचा बनता है, इस मान्यता का विरोध किया गया। व्यक्ति और जाति के स्थान पर गुणों को महत्त्व दिया गया। इसलिए हरिकेशी चंडाल जैन मुनि बनकर उच्च वर्ण वालों के लिए पूज्य बना। विशेषता जाति की नहीं, गुणों की है। श्रावक भी एक गुण है, जो जन्म से नहीं, व्रत ग्रहण करने से प्राप्त होगा।
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र तीनों रत्नत्रय मोक्ष का मार्ग है। श्रावक रत्नत्रय को धारण करने की प्रारम्भिक भूमिका है। इसलिए आचार्य समन्तभद्र ने श्रावक को रत्नों का पिटारा कहा है। श्रावक पद में 'श्र' अक्षर श्रद्धावान होने का सूचक है। तत्त्वों का श्रद्धान (सच्चे देव-शास्त्र-गुरु का श्रद्धान) अथवा आत्मा से शरीर, धनादि पर पदार्थों के भिन्न होने का श्रद्धान (विश्वास) ही सम्यग्दर्शन है। श्रावक पद का दूसरा अक्षर 'व' विवेकी और ज्ञानी होने का सूचक है। श्रावक को विवेकी होना चाहिये। श्रावक पद का
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तीसरा अक्षर 'क' क्रियावान ( आचरण वाला) प्रयत्नशील या ( पुरुषार्थी) होने का सूचक है। इस तरह श्रावक पद के तीनों अक्षर रत्नत्रयधारी होने के सूचक हैं। किसी भी रोग या दुःख से मुक्त होने के लिए इन तीनों गुणों की आवश्यकता होती है। संसार के दुःखों से मुक्त होने के लिए भी इन्हीं तीनों गुणों को अपनाने की आवश्यकता है। कोई रोगी किसी औषधि का सेवन तभी करेगा, जब रोगी को औषधि पर रोग शमन करने की श्रद्धा होगी, उसके सेवन आदि की विधि का ज्ञान होगा तथा उसका सेवन करेगा तभी रोग से मुक्ति उसे मिल सकेगी।
जैन साहित्य में गृहस्थ के लिये श्रावक, सावग, सागार तथा उपासक शब्दों का प्रयोग हुआ है। पं. आशाधरजी ने श्रावक के तीन भेद किये हैं
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1. पाक्षिक श्रावक - जिसे जिन प्रणीत धर्म का पक्ष हो, वह पाक्षिक श्रावक होता है । ऐसा गृहस्थ व्यक्ति लोक में केवली प्रणीत धर्म को ही उत्तम मानता है, जानता है और उसमें ही अटूट श्रद्धान करता है। इस हेतु अष्टमूलगुणों को धारण करना आवश्यक है तभी वह अन्य व्रतों को धारण करने की योग्यता प्राप्त करता है ।
2. नैष्ठिक श्रावक : जो श्रावक-धर्म में अभ्यस्त है, जैन-धर्म में पूर्ण निष्ठा रखता है, धर्म एवं मोक्ष पुरुषार्थ की सिद्धि के लिये पूर्ण समर्पित है तथा मोक्षमार्ग के लिये आवश्यक ग्यारह प्रतिमाओं के व्यवाहारिक रूप से पालन करने का प्रयास करता है, नैष्ठिक श्रावक है 1
3. साधक श्रावक : - जो महाव्रतों को एवं दिगम्बर भेष धारण कर आत्म-ध्यान में तत्पर होकर मोक्ष प्राप्ति का साधन करता है, साधक श्रावक है 1
पाक्षिकादिभिदा त्रेधा श्रावकस्तत्र पाक्षिकः । तद्धर्मगृह्यस्तन्निष्ठो नैष्ठिकः साधकः स्क्वयुक्त् ॥
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अणुव्रतों का पालन :
भगवान् माहवीर ने समाज में चार संघों की स्थापना की थी- श्रावक, श्राविका, मुनि और अर्जिका । इस व्यवस्था में प्रथम दो गृहस्थाश्रम से सम्बन्धित हैं और अंतिम दो का सम्बन्ध संन्यास आश्रम से है। इस संघ के लिए भगवान् ने एक आचार-संहिता दी, जिसके प्रथम चरण में पांच व्रत हैं । गृहस्थ के लिए उन व्रतों का पालन स्थूल रूप में करने का विधान है, क्योंकि गृहस्थ की अपनी सीमाएं होती हैं, इसलिए स्थूल रूप में उन
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- पं. आशाधर - सागरधर्मामृत, 1,20
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व्रतों का पालन करना बताया गया है। उन व्रतों को अणुव्रतों की संज्ञा दी गई है। ये पांच अणुव्रत हैं- अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह।
1. अहिंसाणुव्रत :- मन-वचन-काय से अतिचारों से दूर रहते हुए जीवों के हनन न करने का नाम ही अहिंसाणुव्रत है। छेदन, बंधन, पीड़ा, अतिभार लादना और पशुओं को आहार देने में त्रुटि करना- ये पांच इस व्रत के अतिचार हैं। हिंसा को जिन अंशों में छोड़ते जाते हैं उतने अंशों में अहिंसा की भावना फैलती जाती है एवं जब अहिंसा की भावना परिपुष्ट बनती है तो उसका विधिरूप उभर कर सामने आता है। यह रूप दया
और करुणा का रूप होता है जिसके अस्तित्व में आने पर समता का अनुभव भी प्रखर बनता है, क्योंकि दया अथवा करुणा अपनी श्रेष्ठतम कोमलता के साथ किसी प्रकार का भेद स्वीकारती ही नहीं है। जो भी दया का पात्र दीखेगा उसके लिये हृदय पिघल जायेगा और सहानुभूति सक्रिय बन जायेगी। अहिंसा की आराधना से जो दृष्टि मिलती है वह समदृष्टि होती है और उसमें शत्रु तथा मित्र के भेद को भी स्थान नहीं होता है।
समाज एवं राष्ट्र की वर्तमान परिस्थितियों में हिंसा जंगल की आग की तरह जिस तेजी से फैल रही है वह आज गम्भीरता से सोचने जैसी स्थिति है। जिस विषभरी औषधि से शरीर को हानि पहुंच रही है, उस हानि से बचने का पहला उपाय यही हो सकता है कि वह औषधि बन्द कर दी जाये और फिर लाभकारी औषधि शुरू की जाये।
इसलिये आज इसके अलावा अन्य कोई उपाय नहीं है कि सबसे पहले हिंसा रोकी जाय। ज्योंही हिंसा के भय से छुटकारा मिलेगा, अहिंसा एवं समता की भावना अपने आप ही उपजेगी।
2. सत्याणुव्रत :-जिस वचन से किसी का अहित न हो, ऐसा वचन स्वयं बोलने और दूसरों से बुलवाने का नाम है सत्याणुव्रत। मिथ्या उपदेश देना, किसी का रहस्य प्रगट करना, दूसरे की निन्दा या चुगली करना और झूठी बातें लिखना तथा किसी की धरोहर का अपहरण करना- ये पांच इस व्रत के अतिचार हैं। शास्त्रों में सत्य को स्वयं भगवान् कहा है, क्योंकि सत्य की दिव्यता और प्रखरता सत्य के साधक को ईश्वरत्व के समीप पहुंचा देती है। कहा है- सत्य की साधना करने वाला साधक सब ओर दुःखों से घिरा रह कर भी घबराता नहीं है, विचलित नहीं होता है।
असत्य अथवा मृषावाद का जन्म क्रोध, लोभ, भय, हास्य आदि काषायिक वृत्तियों की बहुलता से होता है। झूठ बोलने की जरूरत भी आदमी अपने किसी मतलब के कारण ही समझता है। स्वार्थ, तृष्णा अथवा लिप्सा के वशीभूत होकर जब एक झूठ
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बोला जाता है तो उस झूठ को सत्य का रूप देने की कुचेष्टा में लगातार झूठ बोलना पड़ जाता है। झूठ बोलते-बोलते ऐसी धृष्टता पैदा हो जाती है कि फिर उसे झूठ बोलते रहना अखरता नहीं। यह मृषावाद वैचारिक दृष्टि से मिथ्यावाद में पनपता है और मिथ्यावादी समदृष्टि नहीं बन सकता। सत्य की साधना में सफलता का श्रीगणेश तभी हो सकेगा जब मिथ्यावाद की ग्रंथियां काटने में सफलता मिलनी शुरू होगी। इसके लिए दृष्टिकोण की विशालता आवश्यक है। अपने स्वार्थों के घेरों को तोड़ना होगा तथा संकुचित धारणाओं को छोड़ना होगा। हृदय में ज्यों-ज्यों उदारता का विस्तार होता जायेगा, मिथ्यावाद की निरर्थकता स्पष्ट होती जायेगी।
____ 3. अचौर्याणुव्रत :- रखे हुए, गिरे हुए अथवा भूले हुए दूसरे के धन को ग्रहण न करना ही अचौर्याणुव्रत है। चोरी का उपाय बताना, चोरी की वस्तु लेना, कानून का उल्लंघन करना, पदार्थों में मिलावट करना और तौलने नापने के बाटों को हीनाधिक रखना, ये पांच उक्त व्रत के अतिचार हैं। मनुष्य को जीवन निर्वाह के लिये अर्थ का उपार्जन करना होता है। सामान्यतः यह उपार्जन अपने परिश्रम पर आधार पर ही किया जाता है। परिश्रम और नैतिकता के द्वारा उपार्जन करने का अर्थ का संचय सम्भव नहीं होता है। लेकिन जब मनुष्य के मन में तृष्णा हिलोरें लेने लगती है, जब वह सही आवश्यकता सम्बन्धी भान भूल जाता है और अधिकाधिक धन संचय के लिये पागल हो उठता है। कहा है- इच्छाएं आकाश के समान अनन्त होती हैं तथा तृष्णा का रूप वैतरणी नदी के समान है अर्थात् इच्छाओं की तुष्टि कभी सम्भव नहीं तथा तृष्णा का अन्त कभी अथता ही नहीं। अपार धन संग्रह के लोभ के कारण वह पथ-भ्रष्ट होकर स्तेय आवा अदत्तादान की कालिमामय दिशा की तरफ चल पड़ता है। वर्तमान युग में जहां अर्थोपार्जन के उपाय जटिल और छल-छद्म भरे हो गये हैं वहां आर्थिक क्षेत्र में चोरी के उपाय भी काफी टेढ़े-मेढ़े और कुटिल बन गये हैं। आज के अर्थ-प्रधान युग में अस्तेय व्रत का बहुत ही महत्त्व है। चाहे मजदूरी की चोरी हो या सरकार की चोरीसभी चोरियाँ न्यूनाधिक रूप से निन्दनीय मानी जानी चाहिये। अस्तेय व्रत का यह असर होना चाहिये कि संचार में सभी नीतिपूर्वक अर्जन करें और जो भी अर्जन करें, वह स्वयं के शुद्ध श्रम पर आधारित होना चाहिये।
4. ब्रह्मचर्याणुव्रत :- परस्त्री, परपुरुष का उपभोग न तो स्वयं करें और न दूसरे को ऐसा करने की प्रेरणा दें। कामभावना पर संयम रखना ब्रह्मचर्याणुव्रत है। कामुकतापूर्ण वचन बोलना, स्वस्त्री में भी तीव्र कामेच्छा, वेश्यागमन आदि भी इस व्रत के अतिचार हैं। संसार की सारी समस्याओं का निचोड़ दो समस्याओं में लिया जा सकता है और वे दो
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समस्याएं हैं- 1. रोटी की समस्या और 2. सैक्स की समस्या। सैक्स अर्थात् काम की वासना। वर्तमान समय में घोर आर्थिक विषमता के कारण भी दुराचरण में वृद्धि आई है। जब ब्रह्मचर्य की पालना नहीं होती है तो सद्गुणों का भी ह्रास होता जाता है। ममत्व के क्षेत्र में भी काम मोह को सर्वाधिक जटिल माना गया है। यह जितना जटिल होता है उतना ही इसका त्याग भी कठिन होता है। काम-मोह को काट दें तो बाकी सारे मोह खुद ही कट जाते हैं। अपनी इच्छा एवं संकल्प शक्ति के जरिये मिथुन-वृत्ति को धीरे-धीरे वैचारिक, वाचिक एवं कायिक तीनों रूपों में नियन्त्रित करें- यह ब्रह्मचर्य की आराधना होगी।
5. परिग्रह परिमाणाणुव्रत :- आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह न करना परिग्रह परिणामाणुव्रत है। अनावश्यक वाहनों या वस्तुओं का संग्रह, दूसरे का वैभव देखकर ईर्ष्या करना, लोभ करना आदि इसके अतिचार हैं। भौतिक साधक एवं उसमें रहने वाले ममत्व भाव को परिग्रह के रूप में परिभाषित किया गया है, जिसमें भी मुख्य ममत्व या मूर्छा को माना गया है। परिग्रह के प्रति मूर्छा गहरी होती है, जागृति उतनी ही लुप्त होती चली जाती है। अन्तहीन वितृष्णा विषमता की मां होती है। व्यक्ति की वितृष्णा बढ़ती है तब वह नीति छोड़कर येन केन प्रकारेण धनार्जन एवं धन-संचय करना चाहता है- सारा विवेक, सदाशय एवं न्याय-विचार खोकर तब विषमता का दौर चलता है। जब से पश्चिमी सभ्यता का अन्धा-अनुकरण किया जाने लगा है तब से लोगों की आवश्यकताएं सुरसा की नाक की तरह बढ़ती रही हैं और उन्हें पूरी करने के लिये लोग तरह-तरह के भ्रष्टाचार में लिप्त होते जाते हैं। इस तरह परिग्रहवाद या पूंजीवाद का असर भयानक रूप से फैल रहा है। इसी के साथ आर्थिक विषमता भयानक रूप से फैल रही है जिसके कुप्रभाव से अन्य सामाजिक विषमताओं की खाई भी निरन्तर चौड़ी होती जा रही है। परिग्रह के प्रति मूर्छा घटे- ऐसे त्वरित उपाय करने होंगे। अपरिग्रह व्रत इसके गूढार्थ में समझा जाना चाहिये तथा व्यवहार में सिर्फ पदार्थों के त्याग को ही नहीं, तृष्णा-त्याग को अधिकतम महत्त्व दिया जाना चाहिये।
अतिचारों से दूरे रहते हुए उपर्युक्त अणुव्रतों का पालन करके कोई भी गृहस्थ सदाचरण कर सकता है। इन व्रतों को धारण करने में जाति, कुल, ऊंच, नीच आदि की कोई बाधा नहीं है। किसी भी जाति, कुल का व्यक्ति अर्थात् मानव मात्र इन व्रतों को अपने जीवन में उतार सकता है। तभी वह सच्चा श्रावक कहा जा सकेगा। अणुव्रत सुसंस्कृत और सुव्यवस्थित समाज के निर्माण में बड़े सहायक होते हैं । व्यक्ति समाज की इकाई है, व्यक्ति के निर्माण से ही समाज का निर्माण होता है। अत: अणुव्रत जब इकाई रूप व्यक्ति को सच्चरित्र बनाता है, तब ऐसी इकाइयों से बना हुआ समाज भी निश्चय से
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सच्चरित्र, सुसंस्कृत और सुव्यवस्थित बनेगा। गणाधिपति आचार्यश्री तुलसी एवं आचार्यश्री महाप्रज्ञ की सत्प्रेरणा से अणुव्रत आन्दोलन के द्वारा नैतिक आचारण के पालन में विशेष योगदान दिया गया है। श्रावक की प्रमुख क्रियायें :
आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार गृहस्थ श्रावक की कुछ क्रियायें हैं। यथा- 8 मूलगुण, 12 व्रत-तप, 11 प्रतिमायें, 4 दान, 3 रत्नत्रय, क्षमाभाव, जल छानकर पीना और रात्रिभोजन नहीं करना आदि। इन क्रियाओं में भी जैनाचार्यों ने छह क्रियाओं को आवश्यक नाम से बतलाया है- दान, पूजा, गुरु की सेवा, स्वाध्याय, संयम और तप। इन षट् आवश्यकों में भी आचार्य कुन्दकुन्द ने दान और पूजा को प्रमुख बतलाया है, इसके बिना किसी को भी श्रावक नहीं माना है। यथा
दाणं पूया मुक्खं, सावयधम्मे ण सावया तेण विणा। झाणाज्झयणं मुक्खं, जदिधम्मे तं विणा तहा सो वि॥
___ - आचार्य कुन्दकुन्द - रयणसार 11 आचार्य अमितगति का कहना है- भगवान की पूजा, वन्दना संसार रूपी वन को भस्म करने वाला श्रावक का धर्म है। बिना भक्ति के सद्गति नहीं मिलती। पति की भक्ति से रहित सती, मालिक की भक्ति से रहित नौकर, जिनेन्द्रदेव की भक्ति से रहित जैन और गुरु की भक्ति से रहित शिष्य नियम से दुर्गति के मार्ग में संलग्न माने जाते हैं। दान, पूजा, शील-पालन आदि न करने वाले व्यक्ति नारकी, तिर्यंच, निम्न कोटि के मनुष्य आदि होते हैं । यथा -
णहि दाणं पूया, णहि सीलं णहि गुणं ण चारित्तं।
जे जइ णा भणिदा ते, णेरइया होंति कुमाणुसा तिरिया॥ विकास का आधार : संयमी व्यक्ति
आध्यात्मिक, सामाजिक एवं पारिवारिक, जीवन के विकास में श्रावक-धर्म की भूमिका बड़ी महत्त्वपूर्ण है। जैन समाज की रीढ़ श्रावक-धर्म है। श्रावक की व्यक्तिगत साधना ही समाज के उत्कर्ष का कारण होती है। इसलिए श्रावक अपने समाज की प्रगति अथवा अभ्युत्थान करने में बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। श्रावक अपने परिवार का नहीं, समाज और राज्य का भी मुख्य व्यक्ति होता है। समग्र परिवार के भरणपोषण की व्यवस्था, बालकों को सुसंस्कारी बनाने की जिम्मेदारी, परिवार में सुख
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शान्ति, अनुशासन बनाये रखने का दायित्व उस पर होता है। अतः उसे कुटुम्ब-जनों के साथ ऐसा व्यवहार करना चाहिए कि सभी व्यक्ति उसके व्यवहार से प्रसन्न रहें और अपनी जिम्मेदारियों का दृढ़तापूर्वक पालन करें। उपासकदशांग सूत्र में आनन्द श्रावक का वर्णन करते हुए कहा गया है- वह आनन्द गृहपति अनेक राजा, धनिक यावत् सार्थवाहों को बहुत से कार्यों में, सलाहों में, कुटुम्बों में, गुप्त बातों में, रहस्यों में, निश्चय में, व्यवहार में परामर्श देने वाला था। राज्य प्रमुख सब लोग आनन्द गृहपति से सभी विषयों में सलाह लिया करते थे। वह आनन्द गृहपति अपने कुटुम्ब का मुख्य प्रमाणभूत आधार, आलम्बन, चक्षुरूप तथा सब कार्यों की वृद्धि करने वाला था।
श्रावक जीवन का लक्ष्य पारिवारिक सदस्यों का सर्वांगीण विकास करना है। विकास दो तरह का है-1. भौतिक विकास और 2. आध्यात्मिक विकास। भौतिक विकास के अन्तर्गत शारीरिक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि एवं सुख-समृद्धि के लिये अधिक से अधिक भौतिक वस्तुओं की परिमाणात्मक वृद्धि आती है। शारीरिक आवश्यकताओं एवं भोगवृत्तियों की पूर्ति के लिये मानव आर्थिक प्रयत्न करता है तथा अधिकाधिक भौतिक सुख-सुविधाओं के साधनों को एकत्रित करता है। पारिवारिक एवं विश्व की सुख-शान्ति भौतिक विकास में समाहित नहीं है, अतः गृहस्थ जीवन का अन्तिम लक्ष्य भौतिक विकास की प्राप्ति कभी नहीं हो सकता, क्योंकि न तो भौतिकसुख समृद्धि ही जीवन है और न भोगेच्छाओं की पूर्ति या सन्तुष्टि ही जीवन है। आध्यात्मिक विकास में स्वात्म का ज्ञान-श्रद्धान कर परमात्म पद की प्राप्ति के लिए पुरुषार्थों में वृद्धि साधनों का समावेश है। अत: गृहस्थ-जीवन का लक्ष्य है-संयम, त्याग, नियम, चारित्र व आत्मिक अनुभव के द्वारा जीवन की परमोत्कृष्ट स्थान की उपलब्धि करना।
गृहस्थ के लिए उचित है कि वह धर्म और काम को यथायोग्य सेवन करता हुआ धन कमाये और व्यय करे। यदि त्रिवर्ग में विघ्न हो तो धर्म, अर्थ की रक्षा करे, क्योंकि इनकी रक्षा से काम की रक्षा स्वतः हो जायेगी। और यदि इन दोनों में विघ्न आये तो धर्म की रक्षा करे क्योंकि अर्थ व काम का मूल कारण धर्म ही है। धर्म से पुण्य होता है, पुण्य से अर्थ की प्राप्ति और अर्थ से काम अभिलषित भोगों की प्राप्ति होती है। पुण्यापुण्य के बिना अर्थ और काम नहीं मिलते। इस प्रकार धर्म ही अर्थ एवं काम का उत्पत्ति स्थान है। धर्म एक वृक्ष है, अर्थ उसका फल है और काम उसके फलों का रस है। यथा'
पश्य धर्मतरोरर्थः फलं कामस्तु तद्रसः। सत्रिवर्गत्रयस्यास्य मूलं पुण्यकथाश्रुतिः ।। - जिनसेन, महापुराण, 2, 31-32
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धार्मिक जीवन से बुराई का अन्त :
- आचार्यों का कथन है कि व्यावहारिक दृष्टि से धर्म नैतिक मूल्यों की ओर संकेत करता है और निश्चय दृष्टि से राग-द्वेष को छोड़कर निज आत्मा में वास कराता है। यह धर्म है जो जीवन की विविधताओं, भिन्नताओं, अभिलाषाओं, लालसाओं भोग, त्याग, मानवीय आदर्श एवं मूल्यों को नियमबद्ध कर नियमितता प्रदान करता है। चूंकि गृहस्थ जीवन में अनेक प्रकार की असीम इच्छायें और आवश्यकतायें होती हैं, धर्म का उद्देश्य इन समन्त इच्छाओं और आवश्यकताओं को व्यवस्थित, नियमित एवं संयोजित करता है। डॉ. एस. राधाकृष्णन के शब्दों में धर्म वह अनुशासन है जो अन्तरात्मा को स्पर्श करता है और हमें बुराई और कुत्सित भाव से संघर्ष करने में सहायता देता है। काम, क्रोध और लोभ से हमारी रक्षा करता है, नैतिक बल को उन्मुक्त करता है, संसार को बचाने के महान् कार्य के लिये साहस प्रदान करता है। धार्मिक जीवन जीने से ही से बुराई का अन्त संभव है।
आज धर्म का स्थान अर्थ ने ले लिया है और वही जीवन का आधार बन गया है यही कारण है कि समस्याओं का जाल और भी अधिक भयंकर व जटिल होता जा रहा है। इसलिये आवश्यक है कि गृहस्थ जीवन में अर्थ के स्थान पर धर्म को पुनः स्थापित किया जाये, जिससे विश्व में स्वहित के साथ-साथ परिहत को बढ़ावा मिले। पारिवारिक जीवन व्यतीत करते हुए व्यक्ति का आचारण धर्म व कानून सम्मत होना चाहिये। व्यक्ति का चारित्र ही देश की सुदृढ़ता का आधार स्तम्भ है। बुरे अर्थात् पापमय या गैरकानूनी कार्यों से बचना और अच्छे अर्थात् शुभ या कानून सम्मत कार्यों में प्रवृत्त होना ही चारित्र या आचार है। श्रावकों के लिये यह चारित्र बारह प्रकार का है- पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत। ये बारह व्रत स्वर्गरूपी राजमहल पर चढ़ने के लिये सीढ़ी के समान हैं और नरकादि दुर्गतियों में जाने से रोकने वाले हैं।
द्वादशास्तमकमेतद्धि व्रतं स्यात् गृहमेधिनाम्। स्वर्गसौधस्य सोपानं पिधानमपि दुर्गतेः॥ - जिनसेन महापुराण 10/167
इन बारह व्रतों को धारण करने के इच्छुक पुरुष को व्रत धारण करने के पूर्व तीन मकार अर्थात् मद्य, मांस और मधु तथा पांच उदुम्बर फलों का त्याग करना और इस प्रकार अष्ट मूलगुणों का पालन करना आवश्यक है। अहिंसा का आधार : यलाचार
आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं- जहां प्रमाद का योग है वहां हिंसा है, चाहे जीव मरे
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या न मरे, किन्तु प्रमाद के योग के अभाव में हिंसा हो जाने पर भी हिंसा नहीं मानी जाती। जैनाचार्यों के इस मत से स्पष्ट होता है कि यदि व्यक्ति यत्नाचारी है, सावधान है, कषाय रहित है, इसके बावजूद भी उसके द्वारा किसी के प्राणों का घात हो जाये तो उसे हिंसक नहीं माना जाता। इसके विपरीत, यदि व्यक्ति अयत्नाचारी है, असावधान है, क्रोधादि कषाय सहित है, तो दूसरों के प्राणों का घात नहीं होने पर भी उसे हिंसा के दोष से मुक्त नहीं माना जा सकता है। जो देखभाल कर चलता है, उसके पैरों तले कोई जीव भी मर जाये, तो भी वह अहिंसक है क्योंकि वह अप्रमादी है तथा जो बिना देख-भाल कर चलता है, उसके पैरों तले कोई जीवन न भी मरे, तो भी वह हिंसक है, क्योंकि वह प्रमादी है। व्यावहारिक कानून भी इस तथ्य का समर्थन करता है। कारण यह है कि कषाय भाव या विचारों का घात करता है, इसे भाव-हिंसा कहते हैं । अन्य के इन्द्रियादि दश प्राणों का वियोग करना द्रव्य-हिंसा कहलाती है।
द्रव्य-हिंसा में प्राणियों को दुःख होता है, इसलिये वह अधर्म है। अतः गृहस्थव्यक्ति को देवता के लिये, मंत्र सिद्धि के लिये, अतिथि के लिये, पितरों के अर्पण के लिये, भोजन के लिये तथा भय से किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करना चाहिये। हिंसक निरन्तर उद्वेगजनीय है, वह सदा बैर को बांधे रहता है। हिंसक व्यक्ति इस लोक में वध, बन्धन और क्लेश आदि को तो प्राप्त होता ही है तथा परलोक में भी अशुभ गति को प्राप्त होता है और निन्दनीय भी होता है, इसलिये हिंसा का त्याग श्रेयस्कर है। इस प्रकार यत्नाचार, शुभ परिणाम, जीओ और जीने दो की भावना अहिंसा है। इससे न केवल पारस्परिक सहयोग व स्नेह की भावना, सहिष्णुता और अवसर की समानता में वृद्धि होती है, अपितु शोषण, हड़तालें, तोड़फोड़ व आगजनी आदि की कार्यवाहियां समाप्त होती हैं। फलस्वरूप कुल उत्पादन व राष्ट्रीय आय में वृद्धि होकर देश का तेजी से आर्थिक विकास होता है। अहिंसा के द्वारा मनुष्य की प्रतिष्ठा सम्भव है और अहिंसा ही अन्याय तथा अत्याचार से दीन दुर्बलों की रक्षा कर सकती है, यही विश्व के लिये सुखदायक है। नारी की भूमिका
स्त्रियों को भी भगवान महावीर ने पुरुषों की तरह ही धार्मिक अधिकार दिए हैं। उसे निरन्तर साधना द्वारा मोक्ष प्राप्ति तक का अधिकारी माना है। साधुओं की अपेक्षा साध्वियों की संख्या दूनी से अधिक थी। इसी तरह श्रावकों से श्राविकाओं की संख्या भी दुगुनी थी। लाखों स्त्रियों ने धर्म की आराधना करके सद्गति पाई। आज भी साधुओं की अपेक्षा साध्वियों की संख्या अधिक है, और धर्म-प्रचार में भी वे काफी अग्रगण्य और
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प्रयत्नशील हैं । इसलिए समाज अपनी शक्तियों को विकसित करता रहे तो आत्मकल्याण में कोई बाधा नहीं है ।
मानवीय चेतना के विकास में धार्मिक परम्पराओं और अनुष्ठानों का विशेष महत्त्व रहता है और इन सबका निर्वाह करने वाली है- नारी । पत्नी रूप में नारी को विविध क्षेत्रों में कई काम करने होते हैं। वह पति की जीवन संगिनी और सहधर्मिणी है । उसके लिए प्रेम - फुहार भी है और शक्ति की तलवार भी । कुल मर्यादा धर्मरक्षा की पालना के लिए नारी सदा तत्पर रहती है। जननी, पत्नी, भगिनी और पुत्री के रूप में नारी सदैव पुरुषों के लिए प्रेरणा रही है ।
तपस्या में लीन बाहुबली के अभिमान को चूर करने वाली बहिनें भगवान ऋषभदेव की दो पुत्रियां ब्राम्ही और सुन्दरी ही थीं। शास्त्रों में ऐसे कई उदाहरण आते हैं। जहां माता और पत्नी के रूप में नारी अपने पुत्र और पति को धर्म - मार्ग से विचलित होने पर साधना में सुदृढ़ करने के लिए प्रेरक प्रतिबोध देती है। महासती राजमती का आदर्श आज भी हमारे लिए प्रेरणादायक है। जब नेमिनाथ के छोटे भाई रथनेमि मुनि अवस्था में उस साध्वी राजमती पर आसक्त होकर अपने संयम पद से विचलित होते हैं तो वह सती राजमती उन्हें उद्बोधित करके पुनः साधना पथ में प्रतिष्ठित करती है । संयमवती राजमती का उद्बोधन पाकर अंकुश से जैसे हाथी अपने स्थान पर आ जाता है वैसे ही वह मुनि रथनेमि भी चरित्र - धर्म में स्थिर हो जाता है ।
श्राविका नारियों के सम्बन्ध में पूज्य गणिनी ज्ञानमति माताजी ने कहा है कि जो महिलाएं गृहस्थाश्रम में रहते हुए सम्यग्दर्शन को धारण कर श्रद्धावती, सम्यग्ज्ञान से सहित हो विवेकवती और सम्यक् चारित्र को अणुव्रत-रूप एकदेश ग्रहण कर क्रियावती हो जाती हैं वे ही श्राविका कहलाती हैं । ये श्राविकाएं पति के साथ धर्मानुगामिनी होकर जिनेन्द्र देव की पूजा, गुरुओं को आहार- दान, शील, उपवास आदि श्रावक-धर्म की क्रियाओं में तत्पर रहती हैं। ऐसी श्राविकाओं से ही गृहस्थाश्रम मोक्षमार्ग बन जाता है । वास्तव में जो श्राविकाएं सुशिक्षित हैं, वे अपनी संतान को सुयोग्य सांचे में ढाल सकती हैं, क्योंकि माताओं की गोद ही बच्चों के लिए प्रारम्भिक पाठशाला है। माताएं बच्चों को प्रारम्भ से ही लाड़-प्यार के साथ धर्म की घूंटी पिला-पिलाकर उन्हें संस्कारों से हृष्ट-पुष्ट बना सकती हैं।
रसोई की शुद्धता : संस्कृति की रक्षा
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श्रावकाचार में जो शुद्धि का निर्देष है कि खान-पान में हाथ यदि चिकने या सने
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हों तो फौरन धो लो, वह महत्त्वपूर्ण है। आटा लिया, तो डिब्बे को साफ कर दो, फिर हाथ धोकर दूसरे काम में लगो। क्यों? लेते समय जो आटा डिब्बे को लग जाता है उसे खाने के लिए जो कीट कीटाणु पैदा हो सकते हैं, उन्हें खाने के लिए कोई वस्तु छोड़ों ही क्यों इतनी सारी चीजें हैं, या न भी हों, उन्हें हम इस्तेमाल करते हैं। हर दिन उपयोग में लाते हैं, तो उनका सफाई से उपयोग करना जरूरी होता है। भले ही हम अपने घरों में स्प्रे (छिड़काव) करें लेकिन उससे कीट या कीटाणु मरते नहीं हैं, किन्तु हमारा लक्ष्य यह होता है कि वे मर जायें, यही भावना हिंसा है। अतः हमें विशेष कर नारियों को यह प्रयत्न करना होगा कि वे इतनी सफाई रसोई, घर आदि में रखें कि कीटाणु पैदा ही न हों। अतः श्रावकाचार की संस्कृति रक्षात्मक है, उपचारात्मक नहीं। कुछ होने के बाद ईलाज करो, यह ठीक नहीं है, उससे अच्छा है कि कोई रोग या समस्या होने ही न दी जायें। इसमें नारियों की विशेष भूमिका हो सकती है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण की शिक्षा :
नारियों के लिए दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वे जैन धर्म तथा श्रावकाचार के नियमों की पालना तथा आहार सम्बन्धी जीवन पद्धति के वैज्ञानिक पक्ष से पूरी तरह परिचित हों। आज केवल सिद्धान्त की जानकारी ही जरूरी नहीं है, अपितु उस सिद्धान्त को अथवा वैज्ञानिक तथ्य को व्यवहार में कैसे लाया जाये, इसकी भी पूरी जानकारी महिलाओं को होनी चाहिये। तभी शाकाहार एवं सात्विक जीवन पद्धति के महत्त्व को नई पीढ़ी को समझाया जा सकेगा। इस बात में पूरी सच्चाई है कि जहां चौके की शुद्धि होती, जिस घर में चौका पवित्र होगा उस घर का जीवन और परिवार के सदस्यों का आचरण सहज रूप से पवित्र और श्रावकाचार के अनुरूप होगा। अतः हमें धर्म को जीवन से जोड़ना होगा। धर्म और आचरण दोनों में अन्तर नहीं होना चाहिये तभी आने वाली पीढ़ी सुसंस्कारित होगी। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि जो व्यक्ति नारी या पुरुष अपने चलने, बोलने, उठने, बैठने, खाने-पीने, सोने आदि की सभी क्रियाओं को सावधानी पूर्वक करता है वह सदाचारी श्रावक अथवा श्राविका बन सकता है। श्रावकाचार के पालन से ही जीवन सार्थक, सफल हो सकता है।
29, विद्याविहार कॉलोनी उत्तरी सुन्दरवास, उदयपुर - 313001
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श्रावकाचार गुण, लक्षण और अणुव्रत
(दिनांक 30-31 अक्टूबर को सूरत में आयोजित गोष्ठी में प्रस्तुत आलेख की रूपरेखा ।) इससे पूर्व कि हम श्रावक के आचार पर चर्चा करेंश्रावक शब्द के अर्थ भाव को समझ लें। श्रावक शब्द को श्रम के साथ जोड़ा गया है। इसके संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि जब वैदिक संस्कृति में भाग्य की प्रधानता हुई, वर्गभेद पनपा उस समय यह वर्ग जो श्रम को महत्त्व देता था, जो भाग्य के स्थान पर पुरुषार्थ का पक्षधर था- वही श्रावक कहलाया । इस शब्द के साथ पुरुषार्थ जुड़ा है जो इस तथ्य का द्योतक है कि हम जैसा और जितना कर्म करेंगे वैसा और उतना ही परिणाम प्राप्त होगा। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश में कहा है कि " विवेकवान, विरक्तचित्त अणुव्रती गृहस्थ को श्रावक कहते हैं ।...... ....." शक्ति को न छिपाता हुआ वह निचली दशा से क्रम पूर्वक उठता चला जाता है। अंतिम श्रेणी में इसका रूप साधु से किंचित न्यून रहता है । गृहस्थ दशा में भी विवेकपूर्वक जीवन बिताने के लिए अनेक क्रियाओं का निर्देश किया गया है ।
- डॉ. शेखरचन्द्र जैन
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सर्वार्थसिद्धि, सागार धर्मामृत जैसे ग्रन्थों में कहा गया है कि पंच परमेष्ठी का भक्त प्रधानता से दान और पूजन करने वाला, भेद ज्ञान रूपी अमृत पीने का इच्छुक तथा मूलगुण और उत्तम गुणों को पालन करने वाला व्यक्ति श्रावक कहलाता है। अंतरंग में रागादिक की क्षय की हीनाधिकता के अनुसार प्रकट होने वाली आत्मानुभूति से उत्पन्न सुख का उत्तरोत्तर अधिक अनुभव होना ही है, स्वरूप जिनों का होना ही ऐसे और बहिरंग में त्रस्त आदिक पांचों पापों से विधिपूर्वक निवृत्ति होना है । स्वरूप जिन्हों का ऐसे ग्यारह देशविरत नामक पंचम गुणस्थान के दर्शनीक आदि स्थानों, दर्जों में मुनिव्रत का इच्छुक
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होता हुआ जो सम्यक्दृष्टि व्यक्ति किसी एक स्थान को धारण करता है उसको श्रावक मानता हूँ अथवा उस श्रावक को श्रद्धा की दृष्टि से देखता हूँ जो श्रद्धा पूर्वक गुरु आदि से धर्मशरण करता है वह श्रावक है।
___ आचार्यों ने श्रावकों के भी चार भेद किये हैं- 1. पाक्षिक, 2. चर्या, 3. नैष्ठिक और 4. साधक।
पाक्षिक श्रावक वह गृहस्थ है जो जिनेन्द्र देव संबंधी आज्ञा को श्रद्धान करता हुआ हिंसा को छोड़ने के लिए सबसे पहले मद्य, मांस, मधु और पंच उदंबर फलों को छोड़ देता है। शक्ति और सामर्थ्य को नहीं छिपाने वाला पाक्षिक श्रावक पाप के डर से स्थूल हिंसा, स्थूल झूठ, स्थूल चोरी, स्थूल कुशील और स्थूल परिग्रह के त्याग का अभ्यास करे। पाक्षिक श्रावक देवपूजा, गुरु-उपासना आदि कार्य शक्ति के अनुसार करता है। वह रात्रि भोजन का त्यागी होता है। पर्व के दिनों में पौषधोपवास करता है। संकल्पी आदि हिंसा नहीं करता है और उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त करता हुआ प्रतिमा धारण करता है और मुनिपथ पर आरूढ़ होता है। वह मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भाव में वृद्धि करता हुआ समस्त हिंसा का त्याग करता है।
चर्या श्रावक धर्म के लिये, किसी देवता के लिए, किसी मंत्र की सिद्धि के लिए, औषधि के लिये या भोगोपभोग के लिए कभी हिंसा नहीं करता। यदि कभी ऐसा हो जाये तो प्रायश्चित्त करता है। परिग्रह का त्याग करने के सयम अपने घर, धर्म और अपने वंश में उत्पन्न हुए पुत्र आदि का समर्पण कर जब तक वे घर का त्याग करते हैं तब तक उनकी चर्या कहलाती है। यह चर्या दार्शनिक से अनुमति विरत प्रतिमा पर्यन्त होती है।
नैष्ठिक श्रावक :- देश संयम का घात करने वाली कषायों से क्षयोपशम की क्रमश: वृद्धि के वश से श्रावक के दार्शनिक आदि 11 संयन स्थानों के वशीभूत और उत्तम लेश्या वाला व्यक्ति नैष्ठिक कहलाता है।
साधक श्रावक :- जो श्रावक प्रसन्न होता हुआ जीवन के अंत में अर्थात् मृत्यु के समय शरीर, भोजन, मन-वचन-काय के व्यापार के त्याग से पवित्र ध्यान के द्वारा आत्मा की शुद्धि की साधना करता है।
जैसा कि हम जानते हैं कि श्रावक गृहस्थ अवस्था का ही नाम है। कुरल काव्य में कहा गया है कि 'यदि मनुष्य गृहस्थ के समस्त कर्तव्यों को उचित रूप से पालन करे तब उसे दूसरे आश्रमों के धर्म के पालन की क्या आवश्यकता है?' जो गृहस्थ दूसरे
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लोगों को कर्तव्य पालन में सहायता देता है और स्वयं भी धार्मिक जीवन व्यतीत करता है वह ऋषियों से अधिक पवित्र है। सागार धर्मामृत में श्रावक के योग्य कार्यों में निम्नलिखित कार्यों का उल्लेख किया गया है:- न्याय से धन कमाने वाला, गुणों को, गुरुजनों को तथा गुणों में प्रधान व्यक्तियों को पूजने वाला, हित-मित और प्रिय वक्ता, त्रिवर्ग को परस्पर विरोध रहित सेवन करने वाला, त्रिवर्ग के योग्य स्त्री- गांव और मकान सहित लज्जावान शास्त्र के अनुकूल आहार और विहार करने वाला, सदाचारियों की संगति करने वाला, विवेकी, उपकार का जानकार, जितेन्द्रिय, धर्म की विधि को सुनने वाला, दयावान और पापों से डरने वाला व्यक्ति गृहस्थ धर्म को पालन कर सकता है।
दिगम्बर जैन परंपरा में गृहस्थ की 11 प्रतिमाओं का अर्थात् ग्यारह उत्तरोत्तर वृद्धि की श्रेणीयों का उल्लेख अनेक ग्रंथों में किया गया है। (धवला, वसुनंदि श्रावकाचार, द्रव्यसंग्रह, चारित्रसार, सागारधर्मामृत आदि)
जैसा कि हम जानते हैं कि पंचव्रतों का अणु या एक देश पालन करना गृहस्थ का या श्रावक का प्रथम कर्तव्य है। और इसलिए गृहस्थ या श्रावक अपने आचरण में हिंसा का पालन करते हुए आजीविका आदि के लिए असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प आदि कार्य करते हुए उससे जो हिंसा होती है वह आवश्यक होती है। बस ध्यान यही रखना है कि आवश्यकता से अधिक प्रमादवश कोई हिंसा न हो।
श्रावक की दिनचर्या का स्पष्ट उल्लेख करते हुए आचार्यों ने लिखा है कि पाक्षिक श्रावक ब्रह्म मुहूर्त में उठकर नमस्कार मंत्र को पढ़ते हुए यह सोचे कि मैं कौन हूँ, मेरा धर्म कौन है, मेरा व्रत क्या है? श्रावक के अतिदुर्लभ धर्म में उसकी भावना हो। स्नानादि के पश्चात् अष्ट प्रकार अहँत भगवान की पूजा तथा वंदनादि कृति कर्म करे, ईर्ष्या समिति से, अत्यंत उत्साह से जिनालय में नि:सही शब्द के उच्चारण के साथ प्रवेश करे। जिनालय को समोवशरण के रूप में ग्रहण करे। देव, शास्त्र, गुरु की विधिवत् पूजा करे, स्वाध्याय करे, दान करे और मुनिव्रत को धारण करने की अभिलाषा पूर्वक भोजन करे, दोपहर में अर्हन्त प्रभु की आराधना करे, तत्त्वचर्चा करे और संध्या को भावपूजा करते हुए पूजा करे। निंद्रा टूटने पर वैराग्यभावना भावे, विषयों की अनिष्टता पर विचार करे, आदर्श श्रावकों की प्रशंसा करे। श्रावक को जैसा कि ऊपर उल्लेख किया है अष्टमूलगुण का धारी और पंचव्रतों का धारक होना चाहिए। इनके अंतर्गत रात्रि भोजन और पानी छानकर पीने का स्वयं समावेश हो जाता है। इसी प्रकार उसे सप्त व्यसनों का भी त्याग करना चाहिए। अर्थात् द्यूत, वेश्यागमन आदि का भी त्याग करना चाहिए।
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विविध आचार्यों ने श्रावक के विविध कर्तव्यों का उल्लेख करते हुए विविध लक्षण प्रस्तुत किए हैं। रयणसार में उसके दो कर्तव्य माने हैं। जिनमें चार प्रकार का दान देना और देव-शास्त्र-गुरु की पूजा करने का उल्लेख है। कषायपाहुउ में उसके चार कर्तव्यों का वर्णन है जिसमें दान, पूजा, शील और उपवास का समावेश है। कुरल काव्य में उसके पांच कर्तव्यों का उल्लेख है जिसमें पूर्वजों की कीर्ति की रक्षा, देवपूजन, अतिथि सत्कार, वंधु-बांधवों की सहायता और आत्मोन्नति को माना है। चारित्रसार में उसके छह कर्तव्यों का उल्लेख किया गया है - इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप कहा गया है पद्मनंदी पंचविंसतिका में देव पूजा, गुरु सेवा, स्वाध्याय, संयम तप और दान- इन छह कर्तव्यों की प्रमुखता मानी गई है जबकि अमितगति श्रावकाचार में सामायिक, स्तवन, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, उपसर्ग विजय- ऐसे छह प्रकार के आवश्यक माने हैं। श्रावक के अन्य कर्तव्यों में तत्त्वार्थ सूत्र कहता है कि श्रावक मारणान्तिक सल्लेखना का प्रीतिपूर्वक सेवन करने वाला होता है । वसुनंदी श्रावकाचार में उल्लेख है कि श्रावकों को अपनी शक्ति अनुसार यथायोग्य, विनय, वैय्यावृत्य, कायक्लेश
और पूजन विधान करना चाहिए। पं. वि. में कहा है कि पर्व के दिनों में यथाशक्ति भोजन के त्याग रूप अनसनादि तपों को करना चाहिए तथा वस्त्र से छना जल पीना चाहिए। पंचपरमेष्ठियों तथा रत्नात्रय के धारकों की विनय करनी चाहिए। महापुरुषों की अनुप्रेक्षाओं का चिंतन करना चाहिए और आगमानुसार दस धर्मों का पालन करना चाहिए। सागार धर्मामृत में भी ऐसी चर्चा है। पंचाध्यायी में यह भी लिखा है कि शक्ति के अनुसार मंदिराहि बनवाना चाहिए, तीर्थयात्रा करनी चाहिए। लाटीसंहिता में उल्लेख है कि अहिंसाणुव्रत की रक्षा के लिए पांच समिति तथा तीन गुप्तियों का एक देशरूप पालन करना चाहिए। इन गुणों का जिनमें समावेश नहीं है वे श्रावक कुल में जन्म लेने पर भी श्रावक नहीं कहला सकते।
वास्तव में जिनके मन, वचन, कर्म सर्व में अहिंसा की प्रमुखता है वही श्रावक है। अतः श्रावक को न तो ऐसा भोजन-पान करना चाहिए, न ऐसा व्यापार करना चाहिए, न ऐसा व्यवहार करना चाहिए जिसमें यत्किंचित् भी हिंसा हो। इसी प्रकार सत्य, अचौर्य, शील और अपरिग्रह को धारण करना चाहिए।
वास्तव में श्रावक के लिए जिन व्रतों का एकदेश पालन करने का शास्त्रों में उल्लेख है वह यदि हम विशाल दृष्टि से देंखे तो मानव को मानव बनाने वाले कार्य हैं। जिस प्रकार हम जीना चाहते हैं उसी प्रकार सभी प्राणी जीना चाहते हैं। एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के समस्त प्राणी जिनमें जिजीविषा के भाव हैं वे सभी जीने के
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इच्छुक होते हैं। इस सिद्धान्त के परिप्रेक्ष्य में हमें चाहे भोजन के लिए हो, चाहे घर सजाने के लिए हो, चाहे मौज-शौक के लिए हो, ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहिए जिसमें प्राणी हिंसा होती हो। इतना ही नहीं एकेन्द्रिय वनस्पति आदि जीवों की रक्षा करनी चाहिए। यहां मात्र हिंसा का ही प्रश्न नहीं है अपितु पर्यावरण की रक्षा का भी प्रश्न है । यदि हम वृक्षों का उच्छेद न करें, पानी आदि का दुरुपयोग न करें, प्राणियों का वध न करें, अनावश्यक भूमि का उच्छेदन न करें तो पर्यावरण की रक्षा होगी और इससे मानव जीवन सुखी व स्वस्थ रह सकेगा। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में विश्व ने इसको स्वीकार किया है परंतु हम इसे मानव मात्र का कर्तव्य या धर्म बनायें तभी हम श्रावक के सच्चे दृष्टिकोण को प्रस्तुत कर सकेंगे ।
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पूज्य आचार्य तुलसीजी ने अणुव्रत आंदोलन के माध्यम से यह शंखनाद किया था कि प्रत्येक गृहस्थ श्रावक को जीवन के नियमों का पालन अवश्य करना चाहिए । यदि ऐसा न हो तो विश्व में अराजकता बढ़ जायेगी और मानव-मानव के बीच हिंसात्मक युद्ध फैल जायेगा । वे तो स्पष्ट मानते थे कि हमारे मन से जब तक कलुषता नहीं निकलेगी तब तक हमारे मन में प्रेम, दया, करुणा, क्षमा के भाव उत्पन्न हो ही नहीं सकते। और इन भावों के जन्म के लिए हमारे आहार और व्यवहार में अहिंसा आदि गुण होने चाहिए। क्योंकि हम जैसा अन्न खायेंगे वैसा ही मन बनेगा । इस दृष्टि से भी शाकाहार आवश्यक भोजन माना गया है। ऐसे भोजन से हिंसात्मक भाव नहीं जन्मते हैं और जीवहिंसा से बचा जा सकता है। जब हम आहार में शाकाहारी होते हैं तब विचारों में भी शान्त और उत्तम विचारों के धारक बनते हैं। यह भाव ही हमें भावहिंसा से बचाते हैं। यह भाव अहिंसा ही सच्ची अहिंसा है। हम अपने विचारों में भी किसी भी प्राणी के प्रति हिंसक न बनें, उसका बुरा न हो, ऐसे आर्त और रौद्र ध्यान से बचें। यह भाव हिंसा का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पहलू है । जब हमारे अंदर दूसरों के प्रति भावों में हिंसा नहीं होगी तब हम परस्पर प्रेम के व्यापार को वृद्धिंगत कर सकेंगे ।
जब भावों में अहिंसा होगी तभी वाणी में सत्य होगा । हम हित, मित, प्रिय वचन बोलेंगे तो स्वयं को भी आनंद आयेगा और दूसरों को भी हम आनंद प्रसन्नता प्रदान कर सकेंगे। सत्य को यथावत् रखते हुए हम दूसरों को उससे अवगत करायें। अपने स्वार्थ के लिए हम झूठ न बोलें, यह इसका प्रयोजन है।
आचार्य तुलसी जब अचौर्य अणुव्रत की बात करते हैं तब वे मानो स्पष्ट मानते हैं कि मात्र किसी के घर से चोरी कर लेना ही चोरी नहीं है अपितु अपने स्वार्थ के लिए सरकार के कर आदि का चुराना, व्यापार में नफा हेतु कम तौलना, मिलावट करना, छिपा
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लेना यह सभी चोरी है और ऐसी चोरी राष्ट्र के लिए घातक है। आज धन की लालच में लोग अपने देश की गुप्त माहिती भी बेच रहे हैं। हमें हर प्रकार के ऐसे दूषण से दूर रहना है जो हमारी व्यक्तिगत, समाजगत और राष्ट्रगत चोरी को प्रोत्साहित करे।
जहां तक शील व्रत का प्रश्न है, इसमें गृहस्थ की सच्ची कसौटी होती है। मनुष्य में काम और क्रोध सर्वाधिक उत्तेजित करने वाले तत्त्व हैं। जहां क्रोध उसे हिंसक बनाता है वहीं काम उसे पशुता की ओर ले जाता है। गृहस्थ को एकदेशीय शीलव्रत का पालन करते हुए यह ध्यान रखना चाहिए की वह एक पत्नीव्रत का धारी हो। उसमें काम सेवन की तीव्रता ऐसी न हो कि जो उसे व्यभिचारी या बलात्कारी की श्रेणी में रख दे। उसे पर्व के दिनों में ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना चाहिए। उसे सदैव यही ध्यान रखना चाहिए कि वह कहीं काम वासनाओं में कामुक न हो जाए। इन भावनाओं के विकास के लिए उसे ऐसा साहित्य पढ़ना चाहिए जो चारित्र निर्माण में सहायक हो। वास्तव में जीवन विज्ञान का जो पाठ्यक्रम आचार्य श्री की प्रेरणा से चलाया जा रहा है उसमें यही भाव है कि बचपन से ही सत्साहित्य या नैतिक साहित्य पढ़ने से हमारे अंदर विकार या वासनायें जन्म न लें। इसी परिप्रेक्ष्य में यह भी कह सकते हैं कि वर्तमान में भौतिक सुविधाओं और टेलीविजन के अति उपयोग के कारण जो हिंसा और कामुकता के दृश्य अनवरत रूप से दिखाये जा रहे हैं उन पर संयम हो, जिससे हमारे बाल मानस पर गलत प्रभाव न पड़े। आज इन बाह्य साधनों के कारण अंतर की साधना नष्ट हो रही है। आचार्यश्री यही चाहते हैं कि हमारे चरित्र में दृढ़ता आये और हम वासनाओं को सीमित करते हुए ब्रह्मचर्य की ओर अग्रसर हों।
जहां तक परिग्रह परिमाणव्रत का प्रश्न है यह सबसे कठिन व्रत है। वास्तव में देखा जाये तो सभी पापों की या अनिष्टों की जड़ यह परिग्रह है। इसलिए परिग्रह का जनक लोभ माना गया है और लोभ को ही पाप का बाप कहा है। मनुष्य धन-संपत्ति या जिस वस्तु की भी लालच हो उसी की प्राप्ति और संग्रह के लिए हिंसा करता है, झूठ बोलता है, चोरी करता है और हर प्रकार के पाप करने को तैयार हो जाता है। इसलिए हमें अणुव्रतधारी होने के नाते सर्वप्रथम अपनी उपलब्धियों में ही संतुष्टि करनी चाहिए। इसे हम संतोषव्रत भी कह सकते हैं। कहा भी है 'जब आये संतोष धन सब धन धूलि समान'। वास्तव में मनुष्य को अपनी वर्तमान स्थिति से कभी संतुष्टि नहीं होती है। और जब संतुष्टि नहीं होती है तो वह उसकी प्राप्ति में कोल्हू के बैल की तरह जुता रहता है। असंतोष, ईर्ष्या, द्वेष इसी से पैदा होते हैं। येन केन प्रकारेण सब कुछ प्राप्त हो जाय, इसी धुन में हम अच्छे-बुरे के ध्यान से भी वंचित हो जाते हैं। जैसे सभी सुखों को भूलकर
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एक ही सुख के पीछे दौड़ते रहते हैं। इस कारण हमारा शरीर भी अनेक रोगों का घर हो जाता है, मन अशांत रहता है, स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है और परोक्ष रूप से हम मौत को ही समय से पूर्व आमंत्रित कर लेते हैं। गृहस्थ को सबसे पहले संतोष धारण करना चाहिए और क्रमश: गुणव्रत के परिप्रेक्ष्य में परिमाण व्रत को धारण करते हुए संतुष्टि का अनुभव करना चाहिए। यदि यह संतोषव्रत आ जाये तो पारिवारिक, सामाजिक जीवन में सुमेल और प्रेम की वृद्धि हो।
जैन दर्शन के आधार पर जब व्यक्ति में प्रत्येक क्षेत्र में स्वयं को बांधना या संयम का भाव जागृत हो जाता है तो उसकी दृष्टि अनेकांतवादी और उसकी प्रस्तुति स्यादवाद वाणी में होने लगती है। आज यदि हम चाहते हैं कि विश्व रहे युद्ध से दूर, परस्पर प्रेम बढ़े, लोग एक दूसरे की भावनाओं को समझें तो आवश्यक है कि हम स्याद्वाद की भाषा का- जिसमें एक दूसरे के विचारों को जानने-समझने के भाव हैं उनका प्रचार-प्रसार करें। वैसे देखा जाये तो आज का विश्व युनो के मंच से इन्हीं सिद्धान्तों को यथार्थ रूप दे रहा है परंतु आवश्यकता है कि उन्हें हम जैनधर्म के परिप्रेक्ष्य में यह समझायें कि ये समस्त सिद्धान्त श्रावकों के सिद्धान्त हैं।
कभी-कभी प्रश्न होता है कि श्रावकों के जो नियम या उसे पालन करने के लिए जिस आचारसंहिता का उल्लेख शास्त्रों में किया है और प्रायः प्रत्येक आचार्य ने इसका समर्थन किया है और अचार्य तुलसी जैसों ने इसे आंदोलन का रूप दिया है उसकी उपलब्धि क्या है?
प्राचीन ग्रंथों के आधार पर श्रावकों के आचार में एक सरलता थी। शास्त्र और गुरु की वाणी को वे ब्रह्म वाक्य मानकर उस पर आचरण करने का प्रयत्न करते थे। जिससे समाज में समरसता थी, परस्पर मदद करने की भावना थी, दया आदि के भाव थे। परंतु जब से यह अणुव्रत की भावना श्रावक के मन से अदृश्य होने लगी तब से हम देखते हैं कि कितनी हिंसा, आराजकता, द्वेष, कलह, युद्ध बढ़ गये हैं। जैन जो संयम और व्रतों का पर्याय माना जाता था वह भी भटक गया और जैन समाज का पतन होने लगा। जैन समाज ही क्यों, पूरे देश और विश्व के लोगों में से मानवता जैसे घटने लगी। परस्पर विश्वास कम होने लगा, धूर्त विद्या पनपने लगी। यह सब देखकर समाज की टूटन और बिखराव को देखकर आचार्य तुलसी ने यह शंखनाद किया है कि यदि हम चाहते हैं कि व्यक्ति का विकास हो, समाज का विकास हो, देश संगठित हो तो उसे इन अणुव्रतों का पालन करना होगा। हमारे प्रत्येक कार्य में चाहे वह व्यापार हो या चुनाव सभी में शुद्धता प्रामाणिकता होनी आवश्यक है। उन्होंने यह परखा कि देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, कामचोरी, 80
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कर चोरी की जड़ इसलिए फैली है कि हमारे गृहस्थों में से नैतिकता का अभाव हो गया है। उसी दबे हुए शोले की राख को उन्होंने इस आंदोलन से दूर किया। उन्होंने सोचा कि पूरी दुनिया को सुधारने से पूर्व में श्रावकों को सुधारूं और हर श्रावक इसी विचारधारा का प्रतिनिधि बनकर विश्व के हर मानव को मानवता के पथ पर लाने का प्रयत्न करे। हमें प्रसन्नता इस बात की है कि उनका यह आंदोलन किन्हीं अंशों में सफल भी रहा । यदि इस आंदोलन को विश्व व्यापी बनाना है तो हर श्रावक को स्वयं श्रावकाचार का पालन करते हुए विश्व में अहिंसा, सत्य आदि का प्रचार-प्रसार करना होगा ।
सर्वप्रथम हम आत्मनिरिक्षण करें की क्या हमारा श्रावकाचार श्रावक के नियमों के अनुकूल है ? यदि नहीं तो उसे अनुकूल बनायें ।
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प्रधान संपादक 'तीर्थंकर वाणी' अहमदाबाद
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श्रावकाचार और रात्रि भोजन विरमण व्रत
-डॉ. अशोक कुमार जैन
'चारित्तं खलु धम्मो' चारित्र ही धर्म है और वह चारित्र मनि और श्रावक के भेद से दो प्रकार का है। जो यह जानते हुए भी कि सांसारिक विषयभोग हेय है, मोहवश उन्हें छोड़ने में असमर्थ होता है वह गृह में रहकर श्रावकाचार का पालन करता है। श्रावकाचार का मतलब होता है- जैन गृहस्थ का धर्म। जैन गृहस्थ को श्रावक कहते हैं । इसका प्राकृत रूप 'सावग' होता है। जैन श्रावक के लिए उपासक शब्द भी व्यवहत होता है। प्राचीन आगमों में से जिस आगम में श्रावक धर्म का वर्णन था उसका नाम ही उपासकाध्ययन था। गृहस्थ को संस्कृत में 'सागार' भी कहते हैं । अगार' कहते हैं गृह को, उसमें जो रहे सो सागार है अतः गृहस्थ धर्म को सागार धर्म भी कहते हैं। श्रावक शब्द के अर्थ का प्रतिपादन करते हुए लिखा है
संपत्तंसणाई पइदियह जइजणा सुणेई य। सामायारि परमं जो खलु तं सावगं विन्ति ॥ श्रावक प्रज्ञप्ति 2
जो सम्यग्दर्शन आदि को प्राप्त करके प्रतिदिन मुनि जन से उत्कृष्ट सामाचारी को सुनता है उसे श्रावक कहते हैं।
मूलोत्तरगुणनिष्ठामधितिष्ठन् पंचगुरुपदशरण्यः। दानयजनप्रधानो ज्ञानसुधां श्रावकः पिपासुः स्यात्॥
उपर्युक्त श्लोक के विशेषार्थ में लिखा है- जो गुरु आदि से धर्म सुनता है वह श्रावक है अर्थात् एकदेश संयम के धारी को श्रावक कहते हैं। श्रावक के आठ मूलगुण और बारह उत्तरगुण होते हैं। उत्तरगुणों के प्रकट होने में निमित्त होने से तथा संयम के अभिलाषियों के द्वारा अपने पाले जाने के कारण मूलगुण कहे जाते हैं और मूलगुणों के बाद सेवनीय होने से तथा उत्कृष्ट होने से
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उत्तरगुण कहलाते हैं । गुण कहते हैं संयम के भेदों को । जो संयम के भेद प्रथम पाले जाते हैं वे मूलगुण हैं। मूलगुण में परिपक्व होने पर ही उत्तर गुण धारण किये जाते हैं। किसी लौकिक फल की अपेक्षा न करके निराकुलतापूर्वक धारण करने का नाम निष्ठा रखना है तथा अर्हन्त आदि पंच परमेष्ठी के चरण ही उसके शरण्य होते हैं अर्थात् उसकी यह अटल श्रद्धा होती है कि मेरी सब प्रकार की पीड़ा पंचपरमेष्ठी के चरणों के प्रसाद से दूर हो सकती है, अतः वे ही मेरे आत्मसमर्पण के योग्य हैं। इस प्रकार सम्यग्दर्शनपूर्वक देश - संयम को धारण करने वाले श्रावक का कर्तव्य आचार है । चार प्रकार का दान और पांच प्रकार की जिनपूजा कही है। यद्यपि श्रावक का कर्तव्य आजीविका भी है किन्तु वह तो गौण है। श्रावक धर्म की दृष्टि से प्रधान आचार दान और पूजा है। श्रावक धर्म की दृष्टि से प्रधान आचार दान और पूजा है यह बतलाने के लिए प्रधान पद रखा है तथा ज्ञानामृत का पान करने के लिए वह सदा अभिलाषी रहता है। यह ज्ञानामृत है स्व और पर का भेद - ज्ञान रूपी अमृत। उसी से उसकी ज्ञान-पिपासा शान्त होती है ।
श्रावकों के भेद
श्रावकों के पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ये 12 व्रत तथा ग्यारह प्रतिमायें प्राचीनकाल से ही निर्धारित हैं । सागारधर्मामृत में श्रावक के पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक ये तीन भेद करके ग्यारह भेदों को नैष्ठिक श्रावक का भेद बतलाया है । जिनको जैनधर्म का पक्ष होता है वह पाक्षिक श्रावक कहलाता है। पाक्षिक को श्रावक धर्म का प्रारम्भिक कहना चाहिए। जो उसमें अभ्यस्त हो जाता है वह नैष्ठिक है, यह मध्यम अवस्था है और जो आत्मध्यान में तत्पर होकर समाधिमरण का साधन करता है, वह साधक है, यह परिपूर्ण अवस्था है।
रात्रि भोजन विरति विमर्श
जैनाचार में अहिंसा के परिपालन में रात्रि भोजन त्याग पर भी विचार किया गया है। मुनि और श्रावक दोनों के लिए रात्रि भोजन वर्जित माना है। मूलाचार में "तेसिं चेव वदाणां रक्खटुं रादि भोयण विरत्ती " लिखकर यह स्पष्ट किया है कि पांच व्रतों की रक्षा के निमित्त 'रात्रिभोजन विरमण' का पालन किया जाना चाहिए। सूत्रकृतांग के वैतालीय अध्ययन में लिखा है
अग्गं वणिएहि आहियं, धारती रायाणया इहं ।
एवं परमा महव्वया, अक्खाया उ सराइभोयणा ॥ 3,57
अर्थात् व्यापारियों द्वारा लाए गए श्रेष्ठ (रत्न, आभूषण आदि) को राजा लोग धारण करते हैं, वैसे ही रात्रि भोजन विरमण सहित पांच महाव्रत परम बताये गये हैं, उन्हें
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संयमी मनुष्य धारण करते हैं। इसी आगम के महावीर स्तुति अध्ययन में लिखा है
से वारिया इत्थि सराइभत्तं, उवहाणवं दुक्खखयट्ठयाए। लोगं विदित्ता अपरं परं च, सव्वं पभू वारिय सव्ववारी॥
दुःखों को क्षीण करने के लिए तपस्वी ज्ञातपुत्र ने स्त्री और रात्रि-भोजन का वर्जन किया। साधारण और विशिष्ट दोनों प्रकार के लोगों को जानकर सर्ववर्जी प्रभु ने सब (स्त्री, रात्रि-भोजन, प्राणातिपात आदि सभी दोषों) का वर्जन किया।
इसी गाथा के पाद टिप्पण में लिखा है कि चूर्णिकार और वृत्तिकार ने माना है कि भगवान् ने स्वयं पहले मैथुन तथा रात्रि-भोजन का परिहार किया और फिर उसका उपदेश दिया। जो व्यक्ति स्वयं धर्म में स्थित नहीं है, वह दूसरों को धर्म में स्थापित नहीं कर सकता।
आचारांग सूत्र के नौवें अध्ययन में भगवान् महावीर की गृहस्थचर्या और मुनिचर्या दोनों का वर्णन है। चूर्णि की व्याख्या में यह स्पष्ट निर्देश है कि भगवान् विरक्त अवस्था में अप्रासुक आहार, रात्रि भोजन और अब्रह्मचर्य के सेवन का वर्जन कर अपनी चर्या चलाते थे।
इसकी व्याख्या दूसरे नय से भी की जा सकती है। भगवान् महावीर से पूर्व भगवान् पार्श्व चतुर्मास धर्म का प्रतिपादन कर रहे थे। उसमें स्त्री-त्याग या ब्रह्मचर्य तथा रात्रि-भोजन विरति इन दोनों का स्वतंत्र स्थान नहीं था। भगवान् महावीर ने पंच महाव्रत धर्म का प्रतिपादन किया। उसके साथ छट्टे रात्रि भोजन-विरति व्रत को जोड़ा। ये दोनों भगवान् महावीर द्वारा दिए गए आचार शास्त्रीय विकास हैं।
दशवैकालिक सूत्र में इसे छठवां व्रत माना गया है। वहां लिखा है
अहावरे छठे भंते! वए राईभोयणाओ वेरमणं। सव्वं भंते! राईभोयणं पच्चक्खामि- से असणं वा पाणं वा खाइयं वा साइयं वा, नेव सयं राइं भुजेजा नेवन्नेहिं राइं भुंजाषेज्जा राई भुंजते वि अन्ने न समणुजाणेजा जावज्जीवाए तिविह तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करतं पिअन्नं न सयणुजाणामि।
तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि। भंते ! इसके पश्चात् छठे व्रत में रात्रि भोजन की विरति होती है।
भंते ! मैं सब प्रकार के रात्रि-भोजन का प्रत्याख्यान करता हूँ। अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य किसी भी वस्तु को रात्रि में मैं स्वयं नहीं खाऊंगा, दूसरों को नहीं खिलाऊंगा
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और खाने वालों का अनुमोदन भी नहीं करूंगा, यावज्जीवन के लिए तीन करण तीन योग से - मन से, वचन से काया से न करूंगा, न कराऊंगा और न करने वाले का अनुमोदन करूंगा।
भंते मैं अतीत के रात्रि भोजन से निवृत्त होता हूँ, उसकी निंदा करता हूँ, गर्दा करता हूं और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ।
छट्टे भंते ! बए उवदिओमि सव्वाओ राईभोयणाओ वेरमण- भंते मैं छठे व्रत में उपस्थित हुआ हूँ। इसमें सर्व रात्रि-भोजन की विरति होती है।
रत्नकरण्ड श्रावकाचार में स्वामी समन्तभद्र ने छठी प्रतिमा का नाम - 'रात्रिमुक्तिविरत' रखा है और लिखा है
अन्नं पानं खाद्यं लेहयं नाश्नाति यो विभावर्याम। स च रात्रिमुक्तिविरत: सत्वेष्वनुकम्पमानमनाः॥
अर्थात् जो प्राणियों पर दया करके रात्रि में चारों प्रकार के भोजन का त्याग करता है उसे रात्रिमुक्तिविरत कहते हैं। स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा में भी छठी प्रतिमा का यही स्वरूप दिया है और लिखा है
जो णिसिमत्ति वजदि सो उववासं करेदि छम्मासं। संवच्छरस्य मझे आरंभचयदि रयणीए॥ 82
जो पुरुष रात्रि-भोजन का त्याग करता है, वह एक वर्ष में छह मास उपवास करता है, क्योंकि वह रात्रि में आरम्भ का त्याग करता है।
आचार्य अमितगति ने लिखा है- जिस रात्रि में राक्षस, भूत और पिशाचों का संचार होता है, जिसमें सूक्ष्म जन्तुओं का समूह दिखाई नहीं देता है, जिसमें स्पष्ट न दिखने से त्यागी हुई भी वस्तु खा ली जाती है, जिसमें घोर अंधकार फैलता है, जिसमें साधु वर्ग का संगम नहीं है, जिसमें देव और गुरु की पूजा नहीं की जाती है, जिसमें खाया गया भोजन संयम का विनाशक है, जिसमें जीते जीवों के भी खाने की संभावना है, जिसमें सभी शुभ कार्यों का अभाव होता है, जिसमें संयमी पुरुष गमनागमन क्रिया भी नहीं करते हैं, ऐसे महादोषों के आलयभूत, दिन के अभाव स्वरूप रात्रि के समय धर्म कार्यों में कुशल पुरुष भोजन नहीं करते हैं। खाने की गद्धता के दोषवर्ती जो दुष्ट चित्तपुरुष रात्रि में खाते हैं, वे लोग भूत, राक्षस, पिशाच और शाकिनी - डाकिनियों की संगति कैसे छोड़ सकते हैं ? अर्थात् रात्रि में राक्षस पिशाचादिक ही खाते हैं, अतः रात्रि भोजियों को
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इन्हीं की संगति का जानना चाहिए। जो मनुष्य यम-नियमादि की क्रियाओं को छोड़कर रात्रि-दिन सदा ही खाया करता है, उसे ज्ञानी पुरुष सींग, पूंछ और खुर के संग से रहित पशु कहते हैं। बुद्धिमान लोग तो दिन में भोजन, रात्रि में शयन, ज्ञानियों के मध्य में अवसर पर संभाषण और गुरुजनों में किया गया पूजन शांति के लिए मानते हैं।
- वसुनन्दि श्रावकाचार में रात्रि भोजन के दोषों का वर्णन करते हुए लिखा हैरात्रि को भोजन करने वाले मनुष्य के ग्यारह प्रतिमाओं में से पहली भी प्रतिमा नहीं ठहरती है, इसलिए नियम से रात्रि भोजन का परिहार करना चाहिए। भोजन के मध्य गिरा हुआ चर्म, अस्थि, कीट-पंतग, सर्प और केश आदि रात्रि के समय कुछ भी नहीं दिखाई देता है
और इसलिए रात्रिभोजी पुरुष सबको खा लेता है। यदि दीपक जलाया जाता है, तो भी पतंगें आदि अगणित चतुरिन्द्रिय जीव दृष्टिराग से मोहित होकर भोजन के मध्य गिरते हैं इस प्रकार के कीट-पतंग युक्त आहार को खाने वाला पुरुष इस लोक में अपनी आत्मा का या अपने आप का नाश करता है और परभव में चतुर्गति रूप संसार के दुःखों को पाता है।
धर्मसंग्रह श्रावकाचार में लिखा है कि जिन पुरुषों ने अहिंसाणुव्रत धारण किया है उन्हें उस व्रत की रक्षा के लिए और मूल व्रत की दिनोंदिन विशुद्धि (निर्मलता) करने के लिए रात्रि में चार प्रकार के आहार का त्याग करना चाहिए। जो पुरुष दो घटिका दिन के पहले भोजन करते हैं वे रात्रि भोजन त्याग व्रत के धारक कहे जाते हैं, इसके बाद जो भोजन करते हैं वे अधम हैं।
रात्रिभोजन से शरीर सम्बन्धी हानियां भी होती हैं। रात्रि में भोजन करते समय मक्खी यदि खाने में आ जाये तो उससे वमन होता है। यदि केश (बाल) खाने में आ जाये तो उससे स्वरभंग होता है। यदि चूक (जूवां) खाने में आ जाए तो जलोदर आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं और यदि छिपकली खाने में आ जाये तो उससे कोढ़ आदि उत्पन्न होती है। इसलिए बुद्धिमान पुरुषों को रात्रि-भोजन का त्याग करना चाहिए। जो पुरुष रात्रि भोजन के समान दिन के आदि मुहूर्त तथा अंतिम मुहूर्त को छोड़कर भोजन करता है वह इस प्रकार आधे जन्म को उपवास से व्यतीत करता है।
आचार्य सोमदेवसूरि ने लिखा हैअहिंसाव्रतरक्षार्थं मूलव्रतविशुद्धये। निशायां वर्जभेदमुक्तिनिहामुत्र च दुःखदाम्॥ उपासकाध्ययन 325
अहिंसा व्रत की रक्षा के लिए और मूलव्रतों को विशुद्ध रखने के लिए इस लोक और परलोक में दुःख देने वाले रात्रि भोजन का त्याग कर देना चाहिए।
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लाटीसंहिता के कर्त्ता निकृष्ट से निकृष्ट श्रावक को भी व्रत के रूप में न सही तो कुलाचार के रूप में ही रात्रि भोजन न करना आवश्यक बतलाकर रात्रि भोजन की बुराइयां बतलाते हैं। वे लिखते हैं- "यह सब जानते हैं कि रात्रि में दीपक के निकट पतंगें आते ही हैं और वे हवा के वेग से मर जाते हैं। अतः उनके कलेवर जिस भोजन में पड़ जाते हैं वह भोजन निरामिष कैसे रहा तथा रात्रि में भोजन करने से युक्त-अयुक्त का विचार नहीं रहता अरे जहां मक्खी नहीं दिखाई देती वहां मच्छरों का तो कहना ही क्या? अतः संयम की वृद्धि के लिए रात्रि में चारों प्रकार के आहार का त्याग करना चाहिए। यदि उतनी सामर्थ्य न हो तो अन्न वगैरह का त्याग करना चाहिए।"
तत्त्वार्थवार्तिक में लिखा है 'जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश में स्फुट रूप से पदार्थ दिख जाते हैं तथा भूमिदेश, दाता का गमन, अन्न-पानादि गिरे हुए या रखे हुए स्पष्ट दिखाई देते हैं, उस प्रकार चन्द्र आदि के प्रकाश में नहीं दिखते अर्थात् रात्रि में चन्द्रमा
और दीपक का प्रकाश होते हुए भी भूमिदेश में स्थित पदार्थ स्पष्ट दृष्टिगोचर नहीं होते, इसलिए दिन में ही भोजन करना चाहिए।' सूर्य प्रकाश और आधुनिक विज्ञान
___ जब सूर्य प्रकाश की किरण किसी शीशे से गुजरती है तो उसमें सात रंग दिखाई पड़ते हैं जो वायलेट, नीला, बैंगनी, हरा, पीला, नारंगी और लाल होते हैं। ये रंग सूर्य प्रकाश के आंतरिक अंश व रूप हैं और स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद हैं। जीवन शक्ति प्रदायक प्राणतत्त्व का वे सर्जन करते हैं। वैज्ञानिक बताते हैं कि इसके अतिरिक्त सूर्य प्रकाश में Intra-red-ultra violet रंग की किरणें भी होती हैं । अल्ट्रावायलेट किरणे एक्सरे की तरह पुद्गल के भीतर तक घुसकर कीटाणुओं को नष्ट करने में समर्थ हुई हैं। यह किरणें रात में नहीं मिलती इसी कारण रात में कीड़े-मकोड़े आदि अधिक संख्या में निकलते हैं। इस प्रकार विज्ञान से भी यह सिद्ध है कि दिन का भोजन करना स्वास्थ्यवर्द्धक है और उसमें हिंसा भी कम है। इसके विपरीत रात्रि भोजन स्वास्थ्य घातक है और उसमें हिंसा भी अधिक है।
स्वास्थ्य और रात्रि भोजन विरमण व्रत :- स्वामी शिवानन्द ने अपनी Health and diet नामक पुस्तक के पृष्ठ 260 पर लिखा है- सांयकाल का भोजन हल्का और जल्दी कर लेना चाहिए। आवश्कयता ही हो तो सायंकाल सात बजने से पहले-पहले केवल फल और दूध लिये जा सकते हैं। सूर्यास्त हो जाने के बाद ठोस या तरल पदार्थ कभी नहीं लेना चाहिए।
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आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने लिखा है- 'स्वास्थ्य संतुलन में आहार की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। दिन का पहला भाग कफ प्रधान होता है। मध्याह्न का भाग पित्त प्रधान होता है और सायंकाल का भाग वात प्रधान होता है। यदि शाम को खरबूजा खायें, अमरूद खायें या उस जैसी दूसरी चीजें खायें तो बीमार ही पड़ेंगे। इसलिए भोजन के साथ हित का विवेक भी होना चाहिए।'
रात्रि के समय हृदय और नाभिकाल संकुचित हो जाने से मुक्त पदार्थ का पाचन भी गड़बड़ हो जाता है। भोजन करके सो जाने पर वह मल और भी संकुचित हो जाता है। भोजन करके निद्रा लेने से पाचन शक्ति घट जाती है और रात को सोना अनिवार्य है, अतः रात को भोजन करना स्वास्थ्य के लिए बड़ा घातक है।
सागार धर्मामृत में लिखा हैमुजतेऽह्य सकृद्वर्या द्विर्मध्याः पशुवत्परे। रात्र्यहस्तव्रतगुणान् ब्रह्मोद्यान्नावगामुकाः॥
उत्तम पुरुष दिन में एक बार, मध्यम पुरुष दो बार और सर्वज्ञ के द्वारा कहे गये रात्रि भोजन त्याग के गुणों को न जानने वाले जघन्य पुरुष पशुओं की तरह रात-दिन खाते हैं अर्थात् जो दिन में केवल एक बार भोजन करते हैं, वे उत्तम हैं। जो दो बार भोजन करते हैं वे मध्यम हैं, जो रात-दिन खाते हैं वे पशु के तुल्य हैं।
मुनिश्री महेन्द्र कुमार जी ने अपनी पुस्तक 'जैनदर्शन और विज्ञान' पृष्ठ 155 में लिखा है कि रात्रि भोजन न करना धर्म से संबंधित तो है ही, क्योंकि यह धर्म के द्वारा प्रतिपादित हुआ है। इसके साथ इस निषेध का एक वैज्ञानिक कारण भी है। हम जो भोजन करते हैं, उनका पाचन होता है तैजस शरीर के द्वारा। उसको अपना काम करने के लिए सूर्य का आतप आवश्यक होता है। जब शरीर को प्रकाश नहीं मिलता तब वह निष्क्रिय हो जाता है, पाचन कमजोर हो जाता है। इसलिए रात को खाने वाला अपच की बीमारी से बच नहीं पाता।
जब सूर्य का आतप होता है तब कीटाणु बहुत सक्रिय नहीं होते। बीमारी जितनी रात में सताती है उतनी दिन में नहीं सताती । उदाहरणार्थ - वायु का प्रकोप रात में अधिक होता है। ये सारी बीमारियां रात में इसलिए सताती हैं, क्योंकि रात में सूर्य का प्रकाश और ताप नहीं होता। जब सूर्य का प्रकाश होता है, तब बीमारियां उग्र नहीं होती। आचार्य रविषेण ने तो लिखा है
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मासं मद्यं निशामुक्ति स्तेयमन्यस्य योषितम्। सेवते यो जनस्तेन भवे जन्मद्वयं हृतम्॥ पद्मचरित 277
जो मनुष्य मांस, मद्य, रात्रि भोजन, चोरी और पर स्त्री का सेवन करता है वह अपने इस जन्म और पर जन्म को नष्ट करता है। जैनेतर ग्रन्थों में रात्रि भोजन विरति के संदर्भ
महाभारत में नरक के चार द्वारों में रात्रि में भोजन को प्रथम द्वार बताते हुए युधिष्ठिर से रात्रि में जल भी न पीने की बात कहते हुए कहा गया है
नरकद्वाराणि चत्वारि प्रथमं रात्रि भोजनं। परस्त्री गमनं चैव सन्धानन्तकायिके॥ ये रात्रौ सर्वदाहारं वर्जयन्ति सुमेधसः। तेषां पक्षोपवासस्य पलं मासेन जायते॥ नोदकमपि पातव्यं रात्रावत्र युधिष्ठिर। तपस्विनां विशेषेण गृहिणां च विवेकिना॥ महाभारत
अर्थात् रात्रि भोजन करना, परस्त्री गमन करना, आचार, मुरब्बा आदि का सेवन करना तथा कंदमूल आदि अनंतकाय पदार्थ खाना, ये चार नरक के द्वार हैं। उनमें पहला रात्रि भोजन करना है। जो रात्रि में सब प्रकार के आहार का त्याग कर देते हैं उन्हें एक माह में एक पक्ष के उपवास का फल मिलता है। हे युधिष्ठिर ! रात्रि में तो जल भी नहीं पीना चाहिए, विशेषकर तपस्वी को एवं ज्ञान सम्पन्न गृहस्थों को तो रात्रि में जल भी नहीं पीना चाहए। जो लोग मद्य और मांस का सेवन करते हैं, रात्रि में भोजन करते हैं तथा कंदमूल खाते हैं उनके द्वारा की गयी तीर्थयात्रा तथा जप और तप सब व्यर्थ हैं।
मद्यमांसाशनं रात्रौ भोजन कन्द भक्षाणाम्। ये कुर्वन्ति वृक्ष तेषां तीर्थयात्रा जपस्तयः॥ गरुड़ पुराण में रात्रि के अन्न को मांस तथा जल को खून की तरह कहा गया हैअस्तंगते दिवानाथे आपो रुधिरमुच्यते। अन्नं मासं समं प्रोक्तं मार्कण्डेय महर्षिणा॥
अर्थात् दिवानाथ यानी सूर्य के अस्त हो जाने पर मार्कण्डेय महर्षि ने जल को खून तथा अन्न को मांस की तरह कहा है। अतः रात्रि का भोजन त्याग करना चाहिए।
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सनातन धर्म में भी रात्रि में शुभ कर्म करने का निषेध है। कहा है- समस्त वेदज्ञाता जानते हैं कि सूर्य प्रकाशमय है। उसकी किरणों से समस्त जगत् के पवित्र होने पर ही समस्त शुभकर्म करना चाहिए। रात्रि में न आहुति होती है, न स्नान, न श्राद्ध, न देवार्चन और न दान। ये सब अविहित हैं और भोजन में विशेष रूप से वर्जित हैं। दिन के आठवें भाग में सूर्य का तेज मंद हो जाता है। उसी को रात्रि जानना। रात्रि में भोजन नहीं करना चाहिए। देव पूर्वाह्न में, ऋषि मध्याह्न में और पितृगण अपराह्न में भोजन करते हैं। दैत्य-दानव सायाह्न में भोजन करते हैं । यक्ष-राक्षस सदा संध्या में भोजन करते हैं। इन सब बेलाओं को लांघकर रात्रि में भोजन करना अनुचित है।
वर्तमान में विवाह आदि अवसरों पर यहां तक कि धार्मिक कार्यक्रमों में भी रात्रि-भोजन बढ़ रहा है जो जैन जीवन शैली के सर्वथा विरुद्ध है तथा स्वास्थ्य की दृष्टि से भी हानिकारक है। आज हम अपनी पहचान को खोते जा रहे हैं अतः अपनी अस्मिता को बनाये रखने के लिए हमें रात्रि भोजन की प्रवृत्ति पर संयमन करना आवश्यक है।
विभागाध्यक्ष, जैन विद्या एवं तुलनात्मक धर्म दर्शन विभाग जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं (राज.)
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Acārānga-Bhāṣyam
Taiam Ajjhayanam - Sīosanijjam
CHAPTER-III
ENDURANCE OF COLD AND HOT
by Acarya Mahāprajña
SECTION -3
3.51 samdhim logassa jāņittā.
All beings intend to live. Knowing the intention, one should not be non-vigilant.
Bhāsyam Sūtra 51
Here the Sanskrit equivalent of intention is 'sandhi'. All creatures desire to live and none to die. This is the intention of the entire world, i.e., entire range of living beings. Knowing this, one should not succumb to non-vigilance. This is first and foremost condition of abstinence from violence.
3.52 ayao bahiyā pāsa.
Consider all other beings as thyself.
Bhāṣyam Sutra 52
You should consider the external world, i.e., the world of living creatures, other than yourself like you own self. Just as suffering is not covetable to yourself, even so it is not liked by any other creature. This understanding is the second condition of abstinence from violence.
3.53
tamhā ṇa hamtā ṇa vighāyae.
Therefore, you should not kill them yourself, nor get them killed by others.
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Bhāsyam Sutra 53 Comprehending the aforesaid two reasons, one should neither kill any creature himself nor get them killed by others. 3.54 jamiņam aņņamaņņāvitigicchāe pațilehāe na karei pāvam
kammam, kim tattha muņi kāraṇam siyā? Is it due to his wisdom that a person does not indulge in evil karma out of doubt (of being marked by other) or as openly
seen by others. Bhāsyam Sūtra 54 Non-commission of sinful act is due to two reasons : (1) spiritual knowledge and (2) mutual doubt. 'Doubt' means suspicion, fear or shame. Sometime a person does not commit on evil deed on account of mutual doubt or on account of inspection by others, that is, the suspicion about others looking at this evil karma. Should a wise person be instrumental in such act? To this rhetorical question, the answer is: if a monk is instrumental to not indulging in an evil karma due to doubt, he is not a genuine monk. The implication is that such abstinence is not due to spiritual knowledge. 3.55 samayam tatthuvehãe, appāņam vippasāyae.
By practicing equanimity one experiences the lucidity of the
soul. Bhāsam Sutra 55 Non-commission of an evil deed on account of the attitude of equanimity should be an inspiration to the monk. Abstinence from evil deeds due to equanimity is effected by spiritual knowledge. 'Equanimity' means the uniform attitude. It may also mean a some sort of activity in the presence or absence of others. This is laid down in the Daśavaikālika Sūtra (4, sūtra 18)2 : 'in day or in night, alone or in assembly, sleeping or awake, who avoids the inflows of violence and the like', whether marked or not marked by others, derives a special kind of spiritual bliss. The person who does one thinking in the presence and otherwise in the absence of others gets his mind polluted on account of deceitful behaviour. How can there be placidity in such soul? 'Equanimity' may also mean absence of fluctuation; when there is no fluctuation of the nature of attachment and hatred, equanimity grows. In such state, there results self-placidity or enlightenment pertaining to truth. This is also confirmed by the Uttarādhyayana Sūtra:*. 'For a person
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established in equality, currents of thoughts and counter-thoughts cease to occur. And in the person who is freed from thoughts and counterthoughts the craving for sensual objects is destroyed. The person who is free from attachment and has done what he should have done destroys his knolwdege-obscuring karma instantaneously. Similarly, he also destroys the intuition-covering karma and the obstructive karma too."
anannaparamam nāņi, ņo pamāe kayāi vi. āyagutte sayā vīre, jāyāmāyāe jāvae. The wise should never be non-vigilant with respect to the highest good. The self-guarded monk should always be enthusiastic in spiritual discipline and maintain his life on
limited diet. Bhāśyam Sutra 56 The words'a person of unique vision" (2.173) and "a person of supreme vision" (3.38) have been mentioned before. Here the expression “Uniquely supreme" is used. The 'Uniquely supreme" means what has no superior than itself. It stands for 'self-restraint' or 'equanimity'. A wise person should never be non-vigilant in respect of it. In the practice of self-restraint, the importance of energy is as great as that of knowledge. It has, therefore, been said that, the valiant should apply his energy to conquering the mind, speech and body and also alimentary intake that produces non-vigilance. In other words, he should protect himself against such intakes. Here 'self' means the body, the speech and the mind against which he should guard himself. The discrimination of alimentary intake is a great necessity for such protection. Livelihood means the livelihood characterized by self-restraint. For the maintenance of his restrained livelihood he should maintain his body with quantity of food that is necessary for sustenance. Protection is not possible by means of too fatty or too massive alimentary intake. The naintenance of body is impossible with alimentary consumption. Therefore, the diet should be controlled in order that there did not occur the excitement due to sensuous objects. The diet should be regulated in order maintain the body as instrumental to the practice of self-restraint for a long time. 3.57 virāgam rūvehim gacchejjā, mahayā khuddaehi vā.
One should practice detachment from all sorts of sensual objects - small or big.
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Bhāsyam Sūtra 57 Detachment is the means to self-guarding which is to stop even of the right activity of the body, speech and mind. It has, therefore, been enjoined that one should be detached from the sensual objects. The sensual objects consist of colour, taste, etc. Among them, the colour is most alluring and therefore the Sanskrit word 'rūpa' meaning colour has been used in the Sūtra to denote all sensual objects. Sensual objects may be big or small. The Nāgārjunīya school has explained it as follows: ''Each of the two divisions of the five sensual objects is threefold. Properly knowing them in the true sense, one does not cling to any of the two catagories." That is, The sound and the like are the five objects of the senses. They fall into two categories viz., the covetable and the uncovetable. The objects of each of these categories are threefold viz., mean, medium and superior. One should be dispassionate to them Dispassion' means disinterest or indifference. By means of the practice of perceiving the demerits of the sensual objects, the cravingless mind becomes disgusted with worldly life. The spiritual mastery arising out of such disgust is detachment. This is explained in the following dialogue in the Uttarādhyayana Sūtra (29.3)8 'What does the soul produce by means of disgust for worldly life, O Lord?'' 'By practising it one spontaneously develops disgust for all sensual enjoyments- celestial, human or animal. As a result, he becomes indifferent to all sensual objects." 3.58 āgatim gatim pariņņāya,
dohim vi amtehim adissamāne. se na chijjai na bhijjai ņa dajjhai, na hammai kamcanam savvaloe. Comprehending both birth and death, he keeps away from both the ends, namely, attachment and hatred. Such soul is neither cut, nor split, nor burnt, not struck by anyone in the
whole world. Bhāśyam Sūtra 58 The chief support to detachment consists in the comprehension of the transmigration (consisting of birth and death) of the soul. The person
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who comprehends these two is found to be aloof from both the ends viz., attachment and hatred. He is no more found under the sway of attachment and hatred. Such an ascetic is not amenable to the effects of mutilation, vulnerability, incineration, or decapitation. From the mundane standpoint, he cannot be multilated by weapons while living in this body inasmuch as he is free from attachment and hatred. From the supramundane standpoint, in the state of disembodied emancipation, the soul is not susceptible of mutilation, vulnerability, incineration or decapitation.' 3.59 avareņa puvvam na saramti ege,
kimassatitam ? kim vāgamissam ? bhāsamti ege iha māņavā u, jamassatītam āgamissam. Some people do not care for the future and the past, such as what was his past, what will be his future? Some people say
that one's future will be exactly like his past. Bhāoyam Sutra 59 Some aspirants are not aware of the future and the past. They are unable to link the past with the future on account of their mind being overwhelmed with attachment and hatred. Some people opine that a person's future will be just like his past. 3.60 ņātitamattham na ya āgamissam,
attham niyacchamti tahāgayā u. vidhūta-kappe eyānupassi, nijjhosaittā khavage mahesi. The Jinas do not look to the past and future objects. The great sage, practising the discipline of shaking the karma-body, visualizes only the present. He purges his karma-body and
eliminates it. Bhāoyam Sutra 60 The perfect ones do not stick to the past and future objects. The great sage, practising the discipline of shaking the karma-body sees the things as they are at the present moment and thereby desiccate the karmabody to eliminate it. The modes of the soul and the karmic predispositions persist through the three periods of time. Does the past mode, in such case control the
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future one? or, is the future mode completely independent of the past one? On this subject, there is doctrine that the future is determined by the past. In this view, the past mind under the influence of attachment will experience the same attachment in the future. But the Jinas do not agree to this view. According to them, on account of the unique novelty of the transformation, the future does not exactly resemble the past but is also dissimilar to it. This explains the necessity of the discipline of shaking the karma-body. Had the future been completely determined by the past, three would be no means to the destruction of the past dispositions and instincts. 11 3.61 kā arai ? āņaņde? etthampi aggahe care,
savvam hāsam pariccajja, ālīna-gutto parivvae.. For the practiser of discipline, what is discontent and what is pleasure ? He should not be subject to either. Giving up all gaiety, conquering all senses and guarded in thought, word
and deed, he should lead the life of discipline. Bhāśyam Sutra 61 The discontent or disgust is a mental attitude produced by the nonacquisition of the desired objects or annihilation of it. The pleasure is a mental attitude born of the acquisition of the desired objects. When, on some account, there arises the discontent, one should contemplate 'What is this disgust''? or 'Such disgust did arise infinite times in the past." By means of such pondering, he should purge his mind of it. Similarly on the acquisition of the desired objects he should ponder: What is pleasure? or 'Such pleasure was acquired infinite time, in the past." By means of such pondering, he should purge his mind of it. Meditating on such predicament, the monk should dwell free from any sort of prepossession. In other words, he should not have any clinging to or speculation about the discontent or the pleasure. He should give up all gaiety. Conquering and guarding are varieties of inhibition. 3.62 purisă! tumameva tumam mittam, kim bahiyā mittamicchasi?
O man! thou art thy own friend. Why do you search for a friend
in the external world?. Bhāśyam Sūtra 62 While leading the life of discipline a person may sometimes have reminiscences of past acquaintances, or he may have a desire for friend
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on account of his being tortured by his foes. This Sūtra is a spiritual support in such situation. O man! you yourself are your friend. The vigilant self alone is your friend. Why do you seek a friend outside? The external friend or foe is only concerned from the popular point of view. The present Sūtra is an enunciation from the ultimate standpoint. The implication is: You should be vigilant and self-aware, do not while away the time in search of an external friend. 3.63 jam jāņejjā ucсālaiyam, tam jānejjā dūrālaiyam.
jam jāņejjā dūrālaiyam, tam jānejjā ucсālaiyam Whom you know as devoted to the highest good, him you should know as devoted to what is far away from sensual desires. Whom you know to be far away from sensual desires,
him you should know as devoted to the highest good. Bhāśyam Sutra 63 The person who lives above the sphere of friend and foe does indeed dwell in a higher sphere. 12 Such person is aloof from the feelings, favourable and unfavourable, and as such, is said to dwell in a far-offregion. The dwelling in a higher sphere is indicative dwelling in a far-offregion and vice-versa. 3.64 purisā! attāŋameva abhinigijjha evaņ dukkhã pamokkhasi.
O man! restrain thy own self. Thus thou wilt get freed from
suffering. Bhāoyam Sutra 64 'Self' means soul. O man! you should restrain your own soul which is attached to the pleasurable feeling and averse to the painful one. In this way, you will be free from suffering. 13 Suffering arises from the pleasurable and painful feelings. The person who subdues his feelings does easily get rid of suffering." 3.65 purisā! saccameva samabhijāņāhi.
O man! you should cultivate only the truth. Bhāoyam Sutra 65 In order to answer the query about the means to self-subdual the Sūtra says: O man! thou should cultivate the truth alone. The truth" means the real nature of the worldly objects. Until and unless the truth is properly
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known, there cannot be release from the clinging to pleasurable and painful feelings arising from worldly objects. A person can subdue his self only by comprehending the pitfalls and retributions through the analytical meditation consisting of contemplation on the evil dispositions and the karmic results. 3.66 saccasa āņāe uvatthie se mehāvi māram tarati.
The intelligent monk who is loyal to the truth crosses the
domain of death. Bhāoyam Sutra 66 The aspirant who is alert to the truth i.e., injuction of the scriptures16 is wise enough to cross the domain of death. 'Injunction' means the scripture, the insight, the discriminative knowledge of the subtle, truth. Death means- 'end of life'' or 'twofold lust' viz. 'lust qua desires, lust qua cupidity. Due to submission to the untruth, infatuation or illusion is nourished, leading to the production of lust. By the very means of alertness to the commandment of the scriptures, it is possible to bring an end to the lust. 3.67 Sahie dhammamādāya, seyam samaņupassati.
The tolerant aspirant practising the discipline realizes the
highest good. Bhāśyam Sutra 67 "Tolerant'18 means habitually enduring. The aspirant who tolerates the favourable and the unfavourable situations can achieve the summum bonum by following righteousness (dharma). However, the person who is infatuated by the mundane fortune can never get an insight into the summum bonum. The summum bonum?' means the supersensuous and the transcendental bliss, welfare or well-being. Says the Daśavaikālika (4/gāthā 11): “By listening to the scripute, one knows the good, one knows the evil, and one knows both. Having known the commandment of the scripute, one should practise what is conducive to the summum bonum.20 3.68 duhao jīviyassa, parivamdaņa-māņaņa-pūyaņāe, jamsi ege
pamādeņti. Under the sway of attachment and hatred, a person strives for survival, praise, reverence and honour. Even some aspirants subject themselves to non-vigilance for achieving these ends.
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Bhāsyam Sūtra 68
People, overwhelmed by attachment and aversion, are stupefied for the sake of present life and fame, honour and self-glorification (see 1.21). But some people are found negligent on account of intolerance, even after adopting the life of renunciation.
3.69 sahie dukkhamattãe puttho no jhamjhāe.
The tolerant aspirant being touched by suffering should not get agitated.
Bhāsyam Sütra 69
The tolerant monk touched by panges of suffeing, that is, tortured by the afflictions of twins like cold (favourable conditions) and heat (unfavourable conditions) should not get disturbed or agitated in mind, unlike (a tree) tossed by storm. The storm of attachment is raised due to affliction caused by cold (and the like) and the storm of aversion on account of heat (and the like). Avoiding both these types of agitation, one should make himself tenacious in equanimity.
3.70
pāsimam davie loyaloya-pavamcão muccai.-tti bemi.
The competent monk of right vision is liberated from the apparent maze of the world and the non-world. Thus do I say.
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Bhāṣyam Sutra 70
The
person who has developed the insight to tolerating the afflictions of (twins like) cold and heat is a man of insight21 and worthy of respect due to his being unmoved by attachment and aversion. He is capable of being freed from the labyrinth of this world and the world hereafter.22 Here 'world' means the visible world and 'non-world' means the invisible world or the apparent world. The 'labyrinth stands for the snare of bondage. The person worthy of respect is freed from the entanglement of the visible worldly relations and the invisible karmic bondage.
Reference:
1. upa - sāmīpyenaïkṣā - upekṣā. Cūrṇau (p. 119) uvecca ikkhā uvikkhā iti vyakhyātamasti. Vṛttau (patra 150) utprekṣya-paryālocya iti vyākhyātam.
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2. "diyā vā rão vã egao vā parisāgao vā, sutte vā, jagaramaṇe, vā". 3. Cf. Patanjalayogadarśana, 1.47 nirvicäravaiśāradye
adhyātmaprasādaḥ.
तुलसी प्रज्ञा जुलाई - दिसम्बर, 2005
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4. Uttarajjhayaņāņi, 32.107-108:
"evam sasamkappa vikappaņāso, samjāyai samayamuvatthiyassa. atthe asamkappayato tavo se, pahiyae kāmapunesu taṇhā.. saviyarăgo kayasavvakicco, khavei nānāvaraṇam khaneņeņam. taheva jam damsaņam āvarei,
jam cantarāyam pakarei Kammam.." 5. Ācārānga Cūrņi, p. 120 : imdiehim âyovayāram kāum bhannai -
ātagutte. Ācāranga Vrtti, patra 150 : visayammi pamcagammīvi, duvihammi tiyam tiyam.
bhāvao sutthu jānittā, se na lippai dosuvi.. 7. Uttarajjhayaņāņi, 29/46 :'vīyarāgayāe ņam bhamte! jīve kim jaņayai?
viyarāe ņam nehāņubamdhaņāņi taṇhāņubambamdhaņāņi ya vocchimdai manunnesu saddapharisararūvagamdhesu ceva virajai.' 'nivveenam bhamte! jīve kim jaņayai? 'nivveenam divvamānusatericchiesu kāmabhogesu nivveyam
havvamāgacchai, savvavisaesu virajjai. 9. Cf. Bhagavadgitā, 2/24:
acchedyo' yamadāhyo' yamakledyo' sosya eva ca.
nityaḥ sarvagataḥ sthāņuracalo' yam sanātanaḥ... 10. See āyāro, 6.24 11. These aphorisms (59, 60) can be explained from both points of view,
viz. philosophical point of view and view-point of sadhanā. The philosophical interpretation is as follows: Some philosophers do not believe in the law of causality with respect to the past and future of a soul. Some other philosophers, on the other hand, contend that what the past of soul was will be its future also. The Tathāgatas do not recognise the past and the future of a thing. A great seer scrutnizes all these schools of thought. Doing so, he observes the higher conduct prescribed as dhuta (to be described in the chapter VI). Thereby attenuating the karma-body, he ultimate gets rid of it. From the point of view of sadhanā, these aphorisms can be interpreted thus:
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There are some sādhakas who neither give heed to the memory of the sensual pleasures of the past nor desire for future pleasures. Some other sādhakas assert that the past was not satiated with selfindulgence, and therefore, it follows that the future also would not be satiated with it. It is the memory of the past pleasures and the desires for the future ones that breed attachment, aversion and delusion. That is why, the Tathāgatas (i.e. the aspirants who strive for the attainment of the state of Perfect Equinimity) do not heed the matters of the Past and Future - they do not allow such state of mind to be created as is filled with attachment and aversion. One whose conduct is such as to pacify or get rid of attachment, aversion and delusion is called as "vidhūta-kalpa' of 'one observing the dhuta of code of conduct.“ One who is tathāgata and vidhūta-kalpa is eyāņupassi, which can be interpreted in three ways: 1. Etadanupaśyi - One who observes the realities happening in the
present only. 2. Ekānupaśyi - One who observes the soul as 'solitary'. 3. Ejānupaśyi - One who observes the vibrations (of the karma body)
or transformations taking place on account of the observance of
the dhuta code of conduct. Such a sādhaka annihilates the karma body by remaining free from
attachment and aversion. 12. (a) Ācārānga Cūrņi, p. 124 : visae uccālite.
(b) Acārānga Vrtti, patra 153 : uccālayitāram - apanetāram. 13. Ācārānga Cūrņi, p. 124 : dukkaḥ - kammam. 14. The word soul is used here for consciousness, mind and body. The
meaning of the word abhinigraha is - to go near and grasp. One who goes near his mind, grasps it, knows it and observes it, gets rid of all his miseries. To know intimately is to grasp. Effort to control generates a reaction. It does not lead to control. Knowledge cannot be achieved by it. In the matter of religion, nigraha is nothing but to know the
truth. 15. (a) Ācārānga Cūrņi, p. 124 : sacco ņāma samjamo sattarasaviho tam
samabhiyāṇahi, jam bhanitam tam samāyara, ahavā saccena sesāṇivi vayāni pālijjamti, kaham? jo āyariyasagāse pamca mahavvayāim, ārubhittā ņāņupālei so pariņņālovena asacco
bhavati. (b) Ācārānga Vștti, patra 153 : sadbhyo hitaḥ satyaḥ -
samyamastamevāparavyāpāranirapeksah samabhijānihi -
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āsevanāparijñaya samanutiṣṭha, yadiva satyameva samabhijānīhi gurusākṣi-gṛhītaprarijñānirvāhako bhava.
(c) See 3/40 bhāṣyam.
16. (a) Acārānga Cūrņi, p. 124 duvalasamgam vā pravacanam saccam. (b) Acārānga Vṛtti, patra 153 satyaḥ - āgamaḥ.
(c) See 3/40 bhāṣyam.
17. (a) Acārānga Cūrņi, p. 124: māraṇam mārayati māro, jam bhanitam
samsaro.
(b) Acārānga Vṛtti, patra 153: māram
samsāram.
18 (a) Acārānga Cūrņi, p. 124: tena titthagarabhāsiteņa a saccena sahito tappuvvagam carittam dhammam ādāya.
(b) Acārānga Vṛtti, patra 153: sahito - jānādiyuktaḥ saha hitena vā yuktaḥ sahitaḥ.
(c) Apte, sahita: Borne, Endured.
19 (a) Acārānga Cūrņi, p. 124: seyam iti pasamse atthe, sayamti seo, jam bhanitam mokham.
(b) Acaränga Vṛtti, patra 153: śreyaḥ punyamātmahitam vā.
20 "socca jāņai kallanam, soccā jaņai pāvagam.
ubhayam pi jaņai soccā, jam cheyam tam samāyare."
21. päsimam asya padasya 'paśya imam', dṛṣṭvā imam athavā dṛṣtiman - etāņi trīņi rūpāņi samskṛte kartum śaskyāni. asmābhiḥ ekam padamādāya dṛṣmāniti rūpam krtam.
(a) Acārānga Cūrņi, p. 125 passatīti pāsimam, kim etam? jam bhanitam samdhim logassa jāva no jhamjhāetti etam passati. (b) Acārānga Vṛtii, patra 154: uddeśakāder ārabhyānantarasūtram yāvat tamimamartham paśya - paricchinddhi.
22. (a) Acārānga Cūrņi, p. 125: lokatīti logo, ālokkatīti āloka, logālogo, jo jehim nãe vattati so tenappagāreņa ālokkati, jam bhanitam dissati, tamjahā - nāraiyatteņa, evam sesesuvi pihippihehi sarīraviyappehim alokkati sarire.
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(b) Acārānga Vṛtti, patra 154 alokyata ityālokaḥ, karmani ghana, loke caturdaśarajjvātmake āloko lokālokaḥ.
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Jain Kurumbers : - An Account of
their life and Habits*
by M.D. Raghvan B.A., M.R.A.S., F.R.A.I.
During March of last year I was deputed by the Madras Government Museum to accompany the Anthropological Research Expidition headed by Dr. Baron Von Eickstedt, sent to India by the State Research Institutes of Leipzig in Germany, to facilitate his tour to the Malabar District and to help him in his study of the primitive tribes of Malabar, including the aboriginal tribes of the Wynad hills. The expedition afforded me splendid opportunities to study the hill tribes under ideal conditions. 2. Wynad, as its name denotes, is the land of forests, being derived from the two words Vana-Nad, which in course of time came to be pronounced Wayanad. Many and varied are the tribes that have found a shelter and a home in the mountain fastnesses and dense forests of the Wynad. The diversity of its tribes puzzles the on-looker as he takes a bird's-eye view of its diverse castes and tribes assembled at the great festival of Vallur Kavu, situated in the wilds of Manantoddy, one of the greatest of the shrines of Wynad, to which flock the numerous hill tribes. The festival to the Goddess Bhagavati which takes place in March of every year is perhaps the greatest event in the Wynad, which amply repays a visit. Bhagavati is worshipped here in three forms, as Vana Durga or the Durga of the forests, as Jala Durga in the adjoining
* This article was first published in the 'MAN IN INDIA' - A
Quarterly Record of Anthropological Science with Special Reference to India, edited by Rai Bahadur Sarat Chandra Roy, Vol. IX, Ranchi, 1929.
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hill stream, and lastly as Bhadrakali between these two places. It is noteworthy that feeding the sacred fish in the stream is considered as a means of propitiating the diety, and on festival days the surface of the pool is thick with offerings of beaten rice, plantains etc. thrown by eager devotees for the fish to feed on, which come very close to the shore as if in grateful acknowledgement of the sumptuous repast. Col. James Welsh in his Military Remniscences (Vol. 2), 1812, refers to it as "a Pagoda of great antiquity observing that the river close to it is extremely deep and full of large fish which come and eat rice and crumbs out of peoples' hands." The visitor, as he goes past the sacred pool, faces the vast array of the tribes of Wynad gathered there. He surveys the Panjars with their thick mass of curly hair, and features which easily mark them off as by far the most primitive of the hill tribes, the women looking picturesque with their big broad ornaments encircling the ear lobes, closely set with the seeds of the wild liquorice, all camping in their primitive huts of bamboo put up temporarily for the duration of the festival; the Kurichiyans with their bows and arrows, the Kurumbers, the Kunduvettiyans, the Kaders, the Muppens, the Adiyers, the Chettis and a host of others. The tribes who come are all fed there, which attracts them from far and near.
3. The aborigines of Wynad are reckoned as the Paniyers and the Kurumbers. The former have however long given up their jungle life and are not forest dwellers. They are largely employed by the people of Wynad as agricultural labourers and form faithful servants. But the Ten of Jain Kurumbers still live their life in the dense jungles and have only in recent years emerged out of their seclusion. The only extant account of them is that given by Thurston in his Castes and Tribes who speaks however mostly of the Jain Kurumbers of the Mysore and Nilgiri forests.'
A short account of their kinsmen in Wynad is given in Gopalan Nair's Wynad, a useful guide on general topics. A fuller account of the Jain Kurumbers attempted here will therefore be of undoubted interest in a study of the ethological aspect of this and similar hill tribes. These tribes were studied in about the vicinity of Tolpatti, on the borderland of Wynad and Coorg, where they mostly abound.
4. At the outset it may be observed that the word Jain does not mean a follower of the Jain religion. The word is only a corruption of Jēnu or honey in Kanarese, as Tēnu is in Malayalam, for which reason they are also known as Tēn Kurumbers. This denotes that collecting honey might once have been their principal means of livelihood. The Kurumbers of
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Wynad are subdivided into three broad divisions, the Mullu Kurumbers who are cultivators and hunters, speak Malayalam and wear the hair tuft in front like the Malayalee; the Bet or Vettu Kurumbers also called Urali Kurumbers, who fell trees and are artisans making all kinds of agricultural implements, baskets and umbrellas and speak a dialect of Malayalam and Kaparese; the Jain Kurumbers who had not ventured out of their huts on the mountain slopes until quite recently, and still dwell in the forests. They speak a corrupt form of Kanarese, and show close affinity to the tribe of the same name in the Mysore forests from where they must have migrated. In their dress also they are more akin to Mysore than to Malabar Kurumbers. The women wrap their body in a coarse white cloth one end of which passes under the left armpit, with the other end coming over the right shoulder, where the two ends are tied in a knot. The women wear bead necklaces and brass bangles. The men ordinarily wear a coarse loin cloth. It is apparent however on closer observation that they in common with the rest are beginning to feel the effects of the civilisation around them and are aping the manners of their superiors, cutting the hair close and using coats which are very dirty and which ill become these simple folks. Men and women have a partiality for flowers and deck themselves profusely with them. 5. Dwellings - The live in village settlements consisting each of a number of huts. Living such secluded lives out of the sight and sound of outside civilization they are keenly alive to the need for a corporate existence. Selecting a convenient slope in the hills with an abundant supply of bamboos, they clear the under growth and erect their simple structures of plaited bamboos, planted in the ground, the sides being further protected by banking up earth all round. Their huts of grass and bamboo cost next to nothing and are constructed in clusters of ten to fifteen, collectively called a hadi, forming a village. Each of the huts goes by the name of a padi. A hut usually has an open veranda in front and an enclosed room behind. No stranger is ordinarily allowed access to the huts and under no circumstances is any one allowed to enter with shoes or sandals on. This they strictly observe in common with the other hill tribes. This is ascribed to the fear of the wrath of the deity expressed through the headman, involving the offending occupant of the hut in expensive propitiatory ceremonies. The veranda serves as a place of recreation and as a kitchen, on the floor of which may be seen two or three logs of wood with a smouldering fire. A triangular frame work of bamboo is suspended by cords from the roof, over which meat or other food is cooked over a slow fire.
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6. Means of livelihood - As may be expected the principal article of food is the flesh of wild animals, ordinarily deer or wild goats which swarm the forests. The meat is dried in the sun or over the fire, and preserved on strings or stored in pots. It is interesting to note that they do not know the use of bows and arrows and do not own them. They mainly hunt with their wild dogs which they tame for the purpose. The dogs sent and track the game which when brought at bay is instantly maimed by blows on the limbs with stout sticks which they carry for the purpose, and are killed by the bill hook which is their only weapon. They are also keen in scenting kills of animals by the tiger or by wild dogs. A flight or eagles or kites circling high up in the air ordinarily denotes to the keen eye of the Kurumba dead game half eaten by the tiger or being consumed by the wild dogs. They also subsist on wild edible roots, which is a common article of food. As we were entering one of the principle Kurumba village, a group of women was seen wending their way to the forests for edible roots, carrying sharp pointed sticks called Kuzhikkol and the gulali, as the broad spade with a long handle is called. They also raise a small crop of ragi near their padi. A small plot of ground is turned over with the gudali, and seeds are sown about the beginning of rains. The forest department in the great need for securing laboures hold out inducements to get and retain them, chiefly by assigning plots of government land close to their hadi with advance of seeds to start them in cultivation, and rupees fifty in money, with which to buy cattle for the plough, the money being recoverable in small instalments spread over a year by short deductions from the daily wages. Where they are thus persuaded to cultivate, a small settlement of Paniyars with their ruder and more primitive and fragile huts may be seen, to attend to the agricultural labour involved. But the system is so difficult to work that the forest officers find it hard to recover the sum within the period, as in the event of any pressure, they run the risk of the men deserting them, as they often do for work in the coffee and tea plantations which also offer them good terms. Speaking of them in 1911, Gopalan Nair in his brief account of them in his Wynad(p. 112) writes, Jain Kurumbars are a ''primitive race without a history and they are happy in their mountain slopes with means of subsistence always available in the shape of edible rotos. Another decade, they will also be working or wages in the tea estate and earning their livelihood like their brother aboriginies of Wynad". The prophecy has been more than fulfilled. Both men and women are largely employed in
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the plantations and with the additional avenue of employment in the Government in the Government Forests both as labourers and as elephant mahouts, they are fairly contented. Their partiality to tobacco may incidentally be mentioned. The expedition to measure and record their physical characteristics was viewed by them with great distrust and disfavour and their employers naturally feared that any pressure might be prejudicial to good work and might result in their deserting them altogether. Presence of tobacco and betel nut, which were freely distributed after the recording of each group, however gladdened their hearts and finally reconciled them to the measurements. 7. Social organization - The social organization of the whole hadi centres round the headman who is ordinarily the oldest man of the village. Comparatively little affected by outside influences. Their mode of lif today in the main cannot be far different from that of their forbears. The headman is very much respected by all the residents of the village. Social offences are tried and disposed of by the headman who imposes penalty for all misdemeanours. He is the priest of the whole hadi, officiates at the ceremonies, and is believed to hold communion with their god - Masti, who has no shrine but is represented by a wooden or stone figure carefully kept in a small basket in a corner of the inner room of the headman's hut. The god communicates through him to the worshippers, his oracles, and his likes and dislikes. On ceremonial occasions the deity is taken out by the headman and is duly worshipped with ceremonies in the presence of all the men and women of the hadi, and the headman becomes in time possessed of the deity. We came across what looked like a babyâs rattle, a dried gourd with gravel inside, which in reality transpired to be the instrument which the priest flourishes when he is in a trance - probably to create a calm atmosphere to usher in the deity. It is noteworthy that spirituous liquors do no ordinarily form a feature of these ceremonials, probably due to the fact that alcohol is not available in the forests or in the neighbourhood. 8. Puberty ceremonies - As soon as a girl attains her puberty, she is kept indoor, away from the gaze of others, until the ceremonies are over. On the 7th day the girls is taken out for a bath after which she is conducted to a pandal specially erected for the purpose, which should have twelve pillars (neither more nor less). On the floor is made a design of flower work with rice flour and the girl is seated cross-legged on it. The women singing songs sprinkle rice on her legs, hands, shoulders and head. She is
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then taken out in procession to a rivulet or jungle spring close by where her legs and hands washed. She takes water there in four small copper vessels. Returning home she washes the feet of the elder male members of the place with the water she carried apparently in token of respect, and also as an indication that she is no more under pollution. 9. Marriage - Marriage are contracted by mutal arrangement between the parties with the previous consent of the parents. The father or uncle of bridegroom goes to the bride's guardian with a necklace of beads which on his acceptance of the match is handed over to him. On the wedding day the bridegroom and the party proceeds to the bride's house with cloth, brass bangles, rings and ear ornaments which are give to her. Both parties dance in merriment round the girl, the blessing of the god is invoked and the headman on behalf of the god blesses the couple. The bridegroom taking the hand of the bride, another dance follows. After the feast the bridegroom departs with the bride to his hut where a dance and betel-nut and tobacco bring the ceremony to a close. Marriage is not permitted before puberty Alliances with a view to marital union frequently begin with clandestine meeting of the lovers and the girl usually elopes with her lover to the latter's hadi. A search for the girl is made and she is usually traced to one of the neighbouring houses. The men of either village then meet in conference and a settlement is made. It is interesting to record that at the moment of our visit to one of the villages there was an instance of such marriage. Though the men turned up for the anthropometrics measurement, the women mysteriously enough kept back for a considerable time. On enquiry it transpired that a young girl of the neighbouring village had eloped with her lover to the latter's hut, and the women fearing reprisals from her village were keeping a loof. They were however persuaded to come and among the group was the girl looking perfectly happy and cheerful, the daughter of one of the prominent men of the hadi. Her lover was also a prominent man of the neighboring village who had three wives previously. There is no limit to the number of wives a man may have, though this is naturally determined by the man's economic condition. The marriage tie is also not inseparable, the wife being free to leave her husband's houshold, if he brings another girl to his hut as his wife against her wishes, or for other sufficient reason. A separation takes place which is settled by the elders, the daughters going with the mother and the sons continuing with the father. Polyandry does not prevail, the woman having but one man as her husband at a time.
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When a woman is approaching confinement the elderly women of the village gather at the hut and perform the necessary services. The child is bathed every day till about three months. The cord is cut with a pair of bamboo splinters and the placenta is buried close by the house. The woman remains indoors for full three months during which period the husband cooks and does all work. The naming of the child is the occasion for a ceremony which is performed after the expiry of three months period. The god Masta is worshipped and the priest of the hadigets into a trance and is possessed of the god, when he pronounces the name that should be given to the child. 10. Funeral customs - Except in the case of children the dead are cremated. Balls of rice are offered to the soul of the deceased everyday for two weeks during which the pollution lasts. 11. Physical characteristics - In conclusion, a few observations may be made about their physical traits. Physically short of stature and not of muscular build, the Jain Kurumba is capable of great endurance on a minimum of food. They are also characterised by their short platyrhine noses, sparse beard, small narrow eyes, and wild matted hair, the structure of the hair being more straight than curved. Measurements of 60 men and 60 women were secured with great difficulty. The measurements themselves are not yet available for publication, as the material has not yet been worked out. The results when published, which will be as soon as Dr. Eickstedt is in a position in work on the vast material that he has collected, will no doubt yield very interesting conclusions in regard to the racial type to which these hill tribes belong, and the possible divergences existing between the main types."
Reference: 1. Castes and Tribes of Southern India, Vol. IV, p. 155. 2. Malabar Series, Wynad, by Gopalan Nair p. 108. 3. Read at the annual meeting of the Indian Science Congress, 1920.
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A Note on the Worship of Images in Jainism
(C. 200 BC - 200 AD)*
by Priyatosh Baneerjee
It is difficult to say when first the Jainas took to the practice of worshipping images.' Stevenson states that an image of Mahāvīra? was installed in Upakeśapattana during the leadership of the Jaina leader Prabhava (4th century B.C.). That image-worship was in prevalence among the Jainas about the same time is supported by archaeological evidence. The Hāthīgumphā inscription of Jaina king Khāravela records that he took back from Pāțliputra the Jina idol which was carried off by one of the Nandarājas from Kalinga.' This shows that the Nandas who ruled in 4th century B.C. were followers of Jainismo, Kalinga was an ancient centre of Jaina faith, and Tirthankara images were made for worship as early as the days of the Nandas. It may be noted here that among the Patna Museum exhibits there are two nude mutilated statues found in Lohanipur, Patna Town. One of them possesses polish characteristics of Maurya age and can be attributed to 3rd century B.C. and the other can be attributed on stylistics grounds to 2nd century B.C. It is quite possible that they represent Tīrthankara images of 3rd century B.C. and 2nd century B.C. respectively. The author of Arthaśāstra seems to refer to the Jaina gods in Jayanta, Vaijayanta and Sarvārthasiddhi.': Most of the important caves, viz., Ananta, Rāņi and Ganesa Gumphās in Orissa were exacavated in 2nd century B.C. The Ananta Gumphā contains symbols like Triśūla and Svastika on its back wall. Moreover, the courtyard of the cave possesses images of many Jaina deities and saints.' The Rāṇīgumphā is elaborately
This article was first published in the 'The Journal of the Bihar Research Society', Patna in 1950.
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decorated with scenes of human activities some of which may represent Jaina religious festivals. These facts would show that image worship was popular among the Jainas several centuries earlier than Christian era. Mathura was a very important seat of the Jainas during the period under review. The archaeological excavations' there have laid bare the remains of a Jaina stupa, temples and sculptures ranging from 2nd century B.C. to 3rd century A.D. mostly. The Mathura sculptures have placed at our disposal immense and varied materials with regard to the study of Jaina deities. They represent most of the Tīrthańkaras including Rishabha, the earliest one which shows that the belief of the Jainas in all the 24 Tirthankaras was an established fact during the period under review. The Tīrthańkara images are purely Indian conceptions and do not betray any foreign influence. One of the striking features of the Jaina figures is their nudity which distinguishes them from Buddha and Buddhist images. Nudity however is true only of the Digambara images, whereas the Śvetāmbaras clothe their figures. The Jinas bear symbols not only on the palms and soles but also in the center of their breasts. ''The hair is usually arranged in short curls in the shape of spirals turned towards the right as is also the case with the most Buddha images. But in the earlier specimens we find sometimes a different treatment. The hair assumes the appearance of a perwig or it hangs down on the shoulders in strange locks. In contradistinction with Buddha the earlier Tīrthankaras have neither Ushnishes nor Urnā but those of the latter part of the middle ages have a distinct excrecence on the top of the head." A very interesting type of the Tīrthařkara images of our period in Mathura is that of the Jina quadruple which is known in Jaina inscriptions and literature as Sarvato-bhadrikā pratimā. 'They consist of a block square in section' with a Tirthankaras carved on each of the four faces." There is no injunction however as to the particular Tīrthankaras to be figured there, but generally the most important ones are chosen. A quadruple image of an 'unnamed Jina perfectly nude' is represented on an inscribed sculptured panel found in Kankāli mound in Mathura.12 The epigraph records that it was the gift of Kumāramitā, the first wife of Sreshthin
alled Venī. The gift was made at the request of the venerable Vasulā, a female pupil of venerable Sanghamikā who is inturn a female pupil of venerable monk Jayabhūti. The inscription has been assigned to the Kushāna Period on palaeographical grounds.13 From the same site, that is Kankāli mound in Mathura, we have another very interesting representation of an inscribed Sarvatobhadrikā Pratimā of our period.
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The Jina shown there is Pārsvanātha with traces of his snake canopy. The inscription states that this fourfold image was dedicated by one Sthiră or the welfare and the happiness of all creatures. This inscription also belongs to the Kushāna period.14 We may refer now to a few early specimens of other types of sculptured representations of Jaina Tīrthankaras in Mathura. An elaborate sculpture containing the figure of a seated Jaina was found in Kankāli mound in February 1890. Unfortunately the head of the figure is missing. The Jina is shown with numerous attendant deities. On the pedestal are two lions and two bulls. From the presence of the bull it is evident that the Jina depected here is Ādinātha or Rishabhadatta. The inscription (defwed), at the base seems to be in early scripts." Another specimen of Ādinātha figure (belonging to Kushāņa period) is to be seen on the Mathura Museum panel No. B4. The figure was set up in a Jaina monastery as the inscription states by a lady in the year 84 of the reign of Shāhi Vāsudeva, 16 the Kushāṇa king. The relief in front of the pedestal contains a Dharma Chakra on a Pillar being worshipped by human devotees including the male and female as well. A mutilated figure of Aranāthais found represented on a sculptured panel which was got in Kankāli mound in the year 1890-91. It belongs to the Kushāna period. The Jina is shown standing by the side of a wheel placed on Triśüla with a piece of cloth in his left hand. Naminātha and Neminātha, the 21st and 22nd Jaina Tīrthankaras seem to have been represented along with Pārsvanātha and Mahāvīra on a broken sculptured panel which might have formed part of the decoration of a Torana Pillar18 of a Jaina monastery in Mathura during our period. There is a fine specimen of Neminātha figure'' in Mathura Museum which Vogel has described in his catalogue of the Mathura Museum antiquities. Neminātha is seated cross-legged in the attitude of meditation on the throne. The throne rests on two pillars and a pair of lions. Behind the pillars are two figures with hands joined in adoration. From the throne an ornamental cloth hangs down between the two lions. Below it there seems to be a wheel. There is conch-shell (symbol of Neminātha) on the plain rim of the pedestal. The Jaina legends introduce very often the story of Krsna Vāsudeva and his family. In the Antagada Dasão20 we are told that some members of Krsna's family joined the Jaina church at the instance of Ariştanemi, and Krsna also, as the legend goes, was proclaimed by him, that is Aristanemi,
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to be the 12th among the Tīrthankaras who would arise in the Dushama Sushama age. There is a sculptured panela of Mathura which represents an ascetic receiving homage from the female devotees. The inscription records that the panel was a gift of the wife of a person called Dhanahastin. It bears the year 95 of Kushāņa King Vāsudeva's reign probably. The word Kanha Sramana 2 occurs in bold types between the head of the ascetic and that of the lady devotee to the proper right. This Kanha may be the Krsna Vāsudeva of the Jaina legend. Whether the Jaina viewpoint regarding Krsna Vāsudeva and his family is accepted or not, this much is true that Jainism and Vaishnavism came to a close contact with each other during the time of Aristanemi who was a cousin of Krsna and Baladeva. Because of the family relationship between Aristanemi and Krsna Vāsudeva, Jainism was co-existent with Vaishnavism since Aristanemi's time in places like Dvārakā, central India, and Yamunā valley, the sphere of Yādava influence. Aristanemi's emblem is a conch which may be reminiscent of his relationship with the Vaishnavite family of Krşņa and Balarama. Pārsvanātha occurs very frequently in Muthurā art of our period. We have already referred to his representation as sarvato-bhadrikā Pratimă. We shall consider now one or two other specimens of his figure preserved in the Mathura Museum. The Mathura Museum panel B. 70 represents a stele23 (1.10-1/2 in height) with nude Jina fiures standing, one each on the four sides. Three of these figures have been provided with haloes, the fourth one is represented with a sevenheaded Nāga hood. This fourth figure represents no doubt Pārsvanātha. The Mathura Museum panel B 71 also contains a representation of Pārsvanātha with similar Nāga hood.24 Both these figures belong perhaps to our period. Vardhamāna Mahāvira is the most popular of all the Tīrthankaras. There are innumerable sculptured representations of his figure in Mathura and other centres of Jaina faith. We shall, however, for our present purpose refer only to two Vardhamāna images found in Kankāli mound in Mathura which belongs perhaps to early centuries of the Christion era. In one panel25 he is shown seated under his sacred tree with several attendant figures, one of whom is a Nāga with a canopy of cobra hoods. There is a defaced inscription on the pedestals of his image, which begins with 'Namo 26 in early scripts. The other image in question is seated under a small canopy with two attendants, one on either side. Both the Vardhamān a figures are seated in dhyānāsana posture, and have, besides
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the attendants, two lions on the pedestal and angels or Gandharvas, hovering in the air and offering garlands. The Jainas were primarily founder worshippers, but their mythology includes besides the 24 Tīrthankaras a number of other deities. One of the most important deity of this class is Naigamesha. Naigamesha is represented on the obverse of a fragment of a Jaina sculpture discovered at Mathura.28 The inscription incised on the panel is written in scripts of the beginning of the Christian era. The deity (Naigamesha) is a goatheaded one seated on a low seat in an easy attitude. He is shown with his face turned to the proper right, as if addressing to another personage, whose image has been lost.29 To his right there are three female figures standing and an infant is shown close to the knee. The deity is called in the inscription 'Bhagavat Nemeso'. Nemeso of the present inscription is a variant of the name of the Harinegamesi in the Kalpasūtra, Naigameshin in the Neminātha Charita and Nejamesha or Naigameya in other works.30 In Jaina religious art he is depicted as a figure either with the head of a ram or antelope or a goat. In the Mathura sculpture which is the subject of discussion here he is found bearing a goat's head. Cunningham discovered four mutilated figures of Naigamesha which he failed to identify and described them simply as deities with Ox's head. 31 According to Buhler the sculpture depecting Naigamesha with female figure and a small child refers most probably to the legend which narrates the exchange of the embryo of Devanandā and Trisalā.32 The legend in the Kalpasūtra in short is this. Mahāvira took the form of an embryo in the Brāhmani Devanandās body. Thinking that an Arhat ough
ht not to be born in a low Brahmanical family, Indra 'directed Harinegameshi, the divine commander of infantry to transfer Mahāvīra from the body of Devanandā to Trišalā, a lady of the Juātri of Kșatriyas, who was also with a child'. Harinegameshi carried out successfully Indra's order. In Jaina mythology Naigameshin is regarded also as a deity of procreation. The Antagada-Dasão refers to the story as to how, lady Sulasā propitiated Naigameshin and had a conception through his compassion.33 The ancient Jainas represented Naigameshin in both male and female forms as presiding over child birth. The sculptures of the Curzon Museum, Muttra, Nos. 2547 and E. I. represent the deity in his male aspect, and sculpture No. E2 (of the same museum) in her female aspect as the goat-headed mother goddess. 34
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The Jaina pantheon includes the deities like Sarasvati and Gaṇeśa etc. which figure prominently in Hindu pantheon also. We have from the Jaina mound of Kankāli two headless female statues. One of them has not been identified, 35 the other is the figure of Sarasvati.36 The goddess is seated on a rectangular pedestal 'with her knees up.' She has a manuscript in her left hand and the right hand which was raised up is lost. There is a small attendant on her either side. The inscription on the pedestal consists of seven lines in Indo-scythic scripts.37
Besides the figures of Tīrthankaras and other deities of the Jaina pantheon the Mathura sculptures of Kankālī mound bear isolated symbols and designs auspicious to the Jainas, such as Svastika, Vajra, shell, bulls, elephants, goose and antelope,38 etc. Svastika to the Jainas is the emblem of Supārsvanatha, the 7th Jina, and Vajra is that of Dharmanatha, the 15th Jina, the shell is the cognizance of Neminatha, the 22nd Jina, elephant of Ajitanathā, the 2nd Jina, goose of Sumatinatha the 5th Jina, antelope of Santinatha, the 16th Jina and bull of Rishabhanatha, the 1st Jina. All these would show that the art of Kankālī mound was thoroughly imbued with the spirit of Jainism.
Reference:
1. The ideal of Jaina ascetic is the attainment of Nirvāņa - freedom from the bondage of Karma through self efforts. An ascetic in his striving for Nirvana endeavours 'to suppress the natural desire of a man to worship the higher powers. But it is not possible for any ordinary lay hearer to cling to the ideal of ascetics, which requires a stern and austere training. So the religious feelings of the jaina laity, it is natural, centered round the founders and expounders of the religion, (that is the Tirthankaras). This gave rise to the worship of the Jinas and in its train came also the worship of some deities of popular imagination, in Jainism. We know that the affections of the Buddhist laity also were directed to similar results (that is the worship of Buddha and a number of other deities). 2. Stevenson, The Heart of Jainism, p. 69.
3. J.B.O.R.S. Vol. liii, part iv, p. 458
4. There are literary evidences to show that the Nanda rulers were favourably disposed towards Jainism. Hemachandra Pariśishtaparva, Cantoes VII-VIII, C.J. Shah, Jainism in Northern India, p. 129
5. J.B.O.R.S., 1937 pp. 130-32.
6. Arthaśāstra, Mysore Oriental Series, p. 61.
7. C.J. Shah, Jainism in Northern India, p. 152.
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8. Bengal District Gazetteer, Puri, p. 254. 9. Vogel, Catalogue of the Archaeological Museum at Mathura, p. 11,
Smith, The Jaina Stupa and other Antiquities of Mathura, pp. 2-3. 10. Vogel, Catalogue of the Archaeological Museum at Mathura, p. 42. 11. Ibid., pp. 42-43. 12. Smith, The Jaina Stupa and other Antiquities of Mathura, p. 46, Ep.
Ind. Vol. 1, p. 382, No. II. 13. Smith, Jaina Stupa etc., p. 46 14. Ep. Ind. Vol. II, p. 210, Smith, The Jaina Stupa and other antiornities
of Mathura p. 46, pl. Xc., fig. 2. 15. Smith, Jaina Stupa etc., p. 55, pl. XCVIII. 16. Vogel, Catalogue of the Archaeological Museum at Mathura, p. 67 17. Smith, Jaina Stupa etc., pl. VI. 18. Smith, Jaina Stupa etc., Pl. XVII. 19. Vogel, Catalogue of the Archacoelogical Museum at Mathura, B. 77, p.
81. 20. Antagada Dasão (Oriental Translation Fund), pp. 61-62. 21. Smith, Jaina Stupa, etc. Pl. XVII, p. 24 22. Ibid., p. 24 23. Vogel, Catalogue of the Archaeological Museum at Mathura, B. 70 24. Ibid., B 71 25. Smith, Jaina Stupa etc., p. 49, Pl. XCI, right hand figure. 26. Ibid. 27. Ibid, p. 49. Pl. XCI, left hand figure. 28. Smith, Jaina Stupa, etc., p. 25. Pl. XVIII. 29. Ibid. 30. Smith, Ibid, p. 25, Pl. XVIII, Chapter VI 31. A.S.R., Vol. XX, p. 36, Pl. IV, Figs. 2-5. 32. EP. Ind. Vol. III, p. 314. 33. Antagada Dasāo (Oriental Translation Fund), PP. 36-37. 34. V.S. Agarawala, Handbook to the Sculptures of the Curzon Museum,
Muttra. 35. Smith, Jaina Stupa etc, p. 56, Pl. xcix, left hand figure. 36. Ibid., right hand figure. 37. Ibid., p. 57, Ep. Ind. Vol. I, p. 391, No. xxi. 38. Smith, Jaina Stupa etc., Pls. Xxxviii, Lxxi, LXV-LXXVI.
Archaeological Section, Indian, Museum, Calcutta
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________________ Postal Department : NUR 08 R.N.I. No. 28340/75 यः स्याद्वादी वचनसमये योप्यनेकान्तदृष्टिः श्रद्धाकाले चरणविषये यश्च चारित्रनिष्ठः / ज्ञानी ध्यानी प्रवचनपटुः कर्मयोगी तपस्वी, नानारूपो भवतु शरणं वर्धमानो जिनेन्द्रः // जो बोलने के समय स्याद्वादी, श्रद्धाकाल में अनेकान्तदर्शी, आचरण की भूमिका में चरित्रनिष्ठ, प्रवृत्तिकाल में ज्ञानी, निवृत्तिकाल में ध्यानी, बाह्य के प्रति कर्मयोगी और अन्तर् के प्रति तपस्वी है, वह नानारूपधर भगवान् वर्द्धमान मेरे लिए शरण हो। बुराई करने वाला अवश्य ही बुरा होता है पर बहुत अच्छा तो वह भी नहीं जो बुराई के भार से दब जाए। बुराई को पैरों से रौंदकर चलने वाला ही अपने मन को मजबूती से पकड़ सकता है। प्रकाशक - सम्पादक - डॉ. मुमुक्षु शान्ता जैन द्वारा जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं के लिए प्रकाशित एवं जयपुर प्रिण्टर्स, जयपुर द्वारा मुद्रित ,