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रखता है। फिसलन भरे रास्ते में चलकर जो साधना की ऊंचाइयों तक पहुँचता है, उसकी महत्ता तो कुछ और है। संसाररूपी और वासनारूपी कर्दम में रहकर भी कमल पत्र के समान अलिप्त रहना निश्चय ही महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है।
यद्यपि मेरे यह सब कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि मैं मुनि जीवन की महत्ता और गरिमा को नकार रहा हूँ, इस विषय-वासना रूपी काजल की कोठरी से निकलकर उन पर नियंत्रण कर लेना भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। मुनि जीवन की अपनी साधनागत गरिमा और महत्ता है, उसे मैं अस्वीकार नहीं करता। मेरे कहने का तात्पर्य यही है कि जो गृहस्थ जीवन में रहकर भी साधना की आध्यात्मिक उंचाइयों को छू लेता है तो वह गृहस्थ मुनि से श्रेष्ठ है। उत्तराध्ययन में गृहस्थ को मुनि की अपेक्षा जो श्रेष्ठ कहा गया है, वह इसी अपेक्षा से कहा गया है। अपनी अस्मिता को पहचाने :
___गृहस्थ धर्म की इस महत्ता के प्रतिपादन का एकमात्र उद्देश्य यही है कि हम अपने पद की महत्ता और गरिमा को समझें। वर्तमान संदर्भो में इस महत्ता और गरिमा का प्रतिपादन इसलिए आवश्यक है कि आज का श्रावक वर्ग न केवल अपने कर्तव्यों और दायित्वों को भूल बैठा है, अपितु वह अपनी अस्मिता को भी खो बैठा है। आज ऐसा समझा जाने लगा है कि धर्म और संस्कृति का संरक्षण तथा आध्यात्मिक साधना सभी कुछ साधुओं का काम है। गृहस्थ तो मात्र उपासक है। उसके कर्तव्य की इति श्री साधुसाध्वियों को दान देने तक ही है। आज हमें इस बात का अहसास करना होगा कि जैन धर्म की संघ व्यवस्था में हमारा क्या और कितना गरिमामय स्थान है ? खाट के चार पायों में अगर एक चरमराता और एक टूटता है तो दूसरों का अस्तित्व निरापद नहीं रह सकता। यदि श्रावक वर्ग अपने कर्तव्यों, दायित्वों एवं अपनी गरिमा को विस्मृत करता है तो संघ के शेष घटकों का अस्तित्व निरापद नहीं रह सकता ।
आज गृहस्थ वर्ग न केवल अपने संरक्षक होने के दायित्व को भूला है, अपितु वह स्वयं अपनी अस्मिता को खोकर चारित्रिक पतन की ओर तेजी से गिरता जा रहा है। जब हम ही नहीं संभलेंगे तो दूसरों को सम्भालने की बात क्या करेंगे। आज का गृहस्थ वर्ग जिस पर जैन धर्म और संस्कृति के संरक्षण का दायित्व है उसका ज्ञान आचरण दोनों ही दिशाओं में तेजी से पतन हुआ है। आज हमारी स्थिति यह है कि हमें न तो श्रमण जीवन के नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों का बोध है और न हम गृहस्थ जीवन के आवश्यक कर्तव्यों और दायित्वों के सन्दर्भ में भी कोई जानकारी रखते हैं। आगम-ज्ञान तो बहुत दूर
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तुलसी प्रज्ञा अंक 129
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