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लेना यह सभी चोरी है और ऐसी चोरी राष्ट्र के लिए घातक है। आज धन की लालच में लोग अपने देश की गुप्त माहिती भी बेच रहे हैं। हमें हर प्रकार के ऐसे दूषण से दूर रहना है जो हमारी व्यक्तिगत, समाजगत और राष्ट्रगत चोरी को प्रोत्साहित करे।
जहां तक शील व्रत का प्रश्न है, इसमें गृहस्थ की सच्ची कसौटी होती है। मनुष्य में काम और क्रोध सर्वाधिक उत्तेजित करने वाले तत्त्व हैं। जहां क्रोध उसे हिंसक बनाता है वहीं काम उसे पशुता की ओर ले जाता है। गृहस्थ को एकदेशीय शीलव्रत का पालन करते हुए यह ध्यान रखना चाहिए की वह एक पत्नीव्रत का धारी हो। उसमें काम सेवन की तीव्रता ऐसी न हो कि जो उसे व्यभिचारी या बलात्कारी की श्रेणी में रख दे। उसे पर्व के दिनों में ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना चाहिए। उसे सदैव यही ध्यान रखना चाहिए कि वह कहीं काम वासनाओं में कामुक न हो जाए। इन भावनाओं के विकास के लिए उसे ऐसा साहित्य पढ़ना चाहिए जो चारित्र निर्माण में सहायक हो। वास्तव में जीवन विज्ञान का जो पाठ्यक्रम आचार्य श्री की प्रेरणा से चलाया जा रहा है उसमें यही भाव है कि बचपन से ही सत्साहित्य या नैतिक साहित्य पढ़ने से हमारे अंदर विकार या वासनायें जन्म न लें। इसी परिप्रेक्ष्य में यह भी कह सकते हैं कि वर्तमान में भौतिक सुविधाओं और टेलीविजन के अति उपयोग के कारण जो हिंसा और कामुकता के दृश्य अनवरत रूप से दिखाये जा रहे हैं उन पर संयम हो, जिससे हमारे बाल मानस पर गलत प्रभाव न पड़े। आज इन बाह्य साधनों के कारण अंतर की साधना नष्ट हो रही है। आचार्यश्री यही चाहते हैं कि हमारे चरित्र में दृढ़ता आये और हम वासनाओं को सीमित करते हुए ब्रह्मचर्य की ओर अग्रसर हों।
जहां तक परिग्रह परिमाणव्रत का प्रश्न है यह सबसे कठिन व्रत है। वास्तव में देखा जाये तो सभी पापों की या अनिष्टों की जड़ यह परिग्रह है। इसलिए परिग्रह का जनक लोभ माना गया है और लोभ को ही पाप का बाप कहा है। मनुष्य धन-संपत्ति या जिस वस्तु की भी लालच हो उसी की प्राप्ति और संग्रह के लिए हिंसा करता है, झूठ बोलता है, चोरी करता है और हर प्रकार के पाप करने को तैयार हो जाता है। इसलिए हमें अणुव्रतधारी होने के नाते सर्वप्रथम अपनी उपलब्धियों में ही संतुष्टि करनी चाहिए। इसे हम संतोषव्रत भी कह सकते हैं। कहा भी है 'जब आये संतोष धन सब धन धूलि समान'। वास्तव में मनुष्य को अपनी वर्तमान स्थिति से कभी संतुष्टि नहीं होती है। और जब संतुष्टि नहीं होती है तो वह उसकी प्राप्ति में कोल्हू के बैल की तरह जुता रहता है। असंतोष, ईर्ष्या, द्वेष इसी से पैदा होते हैं। येन केन प्रकारेण सब कुछ प्राप्त हो जाय, इसी धुन में हम अच्छे-बुरे के ध्यान से भी वंचित हो जाते हैं। जैसे सभी सुखों को भूलकर
तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2005
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