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________________ एक ही सुख के पीछे दौड़ते रहते हैं। इस कारण हमारा शरीर भी अनेक रोगों का घर हो जाता है, मन अशांत रहता है, स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है और परोक्ष रूप से हम मौत को ही समय से पूर्व आमंत्रित कर लेते हैं। गृहस्थ को सबसे पहले संतोष धारण करना चाहिए और क्रमश: गुणव्रत के परिप्रेक्ष्य में परिमाण व्रत को धारण करते हुए संतुष्टि का अनुभव करना चाहिए। यदि यह संतोषव्रत आ जाये तो पारिवारिक, सामाजिक जीवन में सुमेल और प्रेम की वृद्धि हो। जैन दर्शन के आधार पर जब व्यक्ति में प्रत्येक क्षेत्र में स्वयं को बांधना या संयम का भाव जागृत हो जाता है तो उसकी दृष्टि अनेकांतवादी और उसकी प्रस्तुति स्यादवाद वाणी में होने लगती है। आज यदि हम चाहते हैं कि विश्व रहे युद्ध से दूर, परस्पर प्रेम बढ़े, लोग एक दूसरे की भावनाओं को समझें तो आवश्यक है कि हम स्याद्वाद की भाषा का- जिसमें एक दूसरे के विचारों को जानने-समझने के भाव हैं उनका प्रचार-प्रसार करें। वैसे देखा जाये तो आज का विश्व युनो के मंच से इन्हीं सिद्धान्तों को यथार्थ रूप दे रहा है परंतु आवश्यकता है कि उन्हें हम जैनधर्म के परिप्रेक्ष्य में यह समझायें कि ये समस्त सिद्धान्त श्रावकों के सिद्धान्त हैं। कभी-कभी प्रश्न होता है कि श्रावकों के जो नियम या उसे पालन करने के लिए जिस आचारसंहिता का उल्लेख शास्त्रों में किया है और प्रायः प्रत्येक आचार्य ने इसका समर्थन किया है और अचार्य तुलसी जैसों ने इसे आंदोलन का रूप दिया है उसकी उपलब्धि क्या है? प्राचीन ग्रंथों के आधार पर श्रावकों के आचार में एक सरलता थी। शास्त्र और गुरु की वाणी को वे ब्रह्म वाक्य मानकर उस पर आचरण करने का प्रयत्न करते थे। जिससे समाज में समरसता थी, परस्पर मदद करने की भावना थी, दया आदि के भाव थे। परंतु जब से यह अणुव्रत की भावना श्रावक के मन से अदृश्य होने लगी तब से हम देखते हैं कि कितनी हिंसा, आराजकता, द्वेष, कलह, युद्ध बढ़ गये हैं। जैन जो संयम और व्रतों का पर्याय माना जाता था वह भी भटक गया और जैन समाज का पतन होने लगा। जैन समाज ही क्यों, पूरे देश और विश्व के लोगों में से मानवता जैसे घटने लगी। परस्पर विश्वास कम होने लगा, धूर्त विद्या पनपने लगी। यह सब देखकर समाज की टूटन और बिखराव को देखकर आचार्य तुलसी ने यह शंखनाद किया है कि यदि हम चाहते हैं कि व्यक्ति का विकास हो, समाज का विकास हो, देश संगठित हो तो उसे इन अणुव्रतों का पालन करना होगा। हमारे प्रत्येक कार्य में चाहे वह व्यापार हो या चुनाव सभी में शुद्धता प्रामाणिकता होनी आवश्यक है। उन्होंने यह परखा कि देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, कामचोरी, 80 - तुलसी प्रज्ञा अंक 129 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524624
Book TitleTulsi Prajna 2005 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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