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संयमी मनुष्य धारण करते हैं। इसी आगम के महावीर स्तुति अध्ययन में लिखा है
से वारिया इत्थि सराइभत्तं, उवहाणवं दुक्खखयट्ठयाए। लोगं विदित्ता अपरं परं च, सव्वं पभू वारिय सव्ववारी॥
दुःखों को क्षीण करने के लिए तपस्वी ज्ञातपुत्र ने स्त्री और रात्रि-भोजन का वर्जन किया। साधारण और विशिष्ट दोनों प्रकार के लोगों को जानकर सर्ववर्जी प्रभु ने सब (स्त्री, रात्रि-भोजन, प्राणातिपात आदि सभी दोषों) का वर्जन किया।
इसी गाथा के पाद टिप्पण में लिखा है कि चूर्णिकार और वृत्तिकार ने माना है कि भगवान् ने स्वयं पहले मैथुन तथा रात्रि-भोजन का परिहार किया और फिर उसका उपदेश दिया। जो व्यक्ति स्वयं धर्म में स्थित नहीं है, वह दूसरों को धर्म में स्थापित नहीं कर सकता।
आचारांग सूत्र के नौवें अध्ययन में भगवान् महावीर की गृहस्थचर्या और मुनिचर्या दोनों का वर्णन है। चूर्णि की व्याख्या में यह स्पष्ट निर्देश है कि भगवान् विरक्त अवस्था में अप्रासुक आहार, रात्रि भोजन और अब्रह्मचर्य के सेवन का वर्जन कर अपनी चर्या चलाते थे।
इसकी व्याख्या दूसरे नय से भी की जा सकती है। भगवान् महावीर से पूर्व भगवान् पार्श्व चतुर्मास धर्म का प्रतिपादन कर रहे थे। उसमें स्त्री-त्याग या ब्रह्मचर्य तथा रात्रि-भोजन विरति इन दोनों का स्वतंत्र स्थान नहीं था। भगवान् महावीर ने पंच महाव्रत धर्म का प्रतिपादन किया। उसके साथ छट्टे रात्रि भोजन-विरति व्रत को जोड़ा। ये दोनों भगवान् महावीर द्वारा दिए गए आचार शास्त्रीय विकास हैं।
दशवैकालिक सूत्र में इसे छठवां व्रत माना गया है। वहां लिखा है
अहावरे छठे भंते! वए राईभोयणाओ वेरमणं। सव्वं भंते! राईभोयणं पच्चक्खामि- से असणं वा पाणं वा खाइयं वा साइयं वा, नेव सयं राइं भुजेजा नेवन्नेहिं राइं भुंजाषेज्जा राई भुंजते वि अन्ने न समणुजाणेजा जावज्जीवाए तिविह तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करतं पिअन्नं न सयणुजाणामि।
तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि। भंते ! इसके पश्चात् छठे व्रत में रात्रि भोजन की विरति होती है।
भंते ! मैं सब प्रकार के रात्रि-भोजन का प्रत्याख्यान करता हूँ। अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य किसी भी वस्तु को रात्रि में मैं स्वयं नहीं खाऊंगा, दूसरों को नहीं खिलाऊंगा
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तुलसी प्रज्ञा अंक 129
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