SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीसरा अक्षर 'क' क्रियावान ( आचरण वाला) प्रयत्नशील या ( पुरुषार्थी) होने का सूचक है। इस तरह श्रावक पद के तीनों अक्षर रत्नत्रयधारी होने के सूचक हैं। किसी भी रोग या दुःख से मुक्त होने के लिए इन तीनों गुणों की आवश्यकता होती है। संसार के दुःखों से मुक्त होने के लिए भी इन्हीं तीनों गुणों को अपनाने की आवश्यकता है। कोई रोगी किसी औषधि का सेवन तभी करेगा, जब रोगी को औषधि पर रोग शमन करने की श्रद्धा होगी, उसके सेवन आदि की विधि का ज्ञान होगा तथा उसका सेवन करेगा तभी रोग से मुक्ति उसे मिल सकेगी। जैन साहित्य में गृहस्थ के लिये श्रावक, सावग, सागार तथा उपासक शब्दों का प्रयोग हुआ है। पं. आशाधरजी ने श्रावक के तीन भेद किये हैं · 1. पाक्षिक श्रावक - जिसे जिन प्रणीत धर्म का पक्ष हो, वह पाक्षिक श्रावक होता है । ऐसा गृहस्थ व्यक्ति लोक में केवली प्रणीत धर्म को ही उत्तम मानता है, जानता है और उसमें ही अटूट श्रद्धान करता है। इस हेतु अष्टमूलगुणों को धारण करना आवश्यक है तभी वह अन्य व्रतों को धारण करने की योग्यता प्राप्त करता है । 2. नैष्ठिक श्रावक : जो श्रावक-धर्म में अभ्यस्त है, जैन-धर्म में पूर्ण निष्ठा रखता है, धर्म एवं मोक्ष पुरुषार्थ की सिद्धि के लिये पूर्ण समर्पित है तथा मोक्षमार्ग के लिये आवश्यक ग्यारह प्रतिमाओं के व्यवाहारिक रूप से पालन करने का प्रयास करता है, नैष्ठिक श्रावक है 1 3. साधक श्रावक : - जो महाव्रतों को एवं दिगम्बर भेष धारण कर आत्म-ध्यान में तत्पर होकर मोक्ष प्राप्ति का साधन करता है, साधक श्रावक है 1 पाक्षिकादिभिदा त्रेधा श्रावकस्तत्र पाक्षिकः । तद्धर्मगृह्यस्तन्निष्ठो नैष्ठिकः साधकः स्क्वयुक्त् ॥ 64 अणुव्रतों का पालन : भगवान् माहवीर ने समाज में चार संघों की स्थापना की थी- श्रावक, श्राविका, मुनि और अर्जिका । इस व्यवस्था में प्रथम दो गृहस्थाश्रम से सम्बन्धित हैं और अंतिम दो का सम्बन्ध संन्यास आश्रम से है। इस संघ के लिए भगवान् ने एक आचार-संहिता दी, जिसके प्रथम चरण में पांच व्रत हैं । गृहस्थ के लिए उन व्रतों का पालन स्थूल रूप में करने का विधान है, क्योंकि गृहस्थ की अपनी सीमाएं होती हैं, इसलिए स्थूल रूप में उन तुलसी प्रज्ञा अंक 129 - पं. आशाधर - सागरधर्मामृत, 1,20 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524624
Book TitleTulsi Prajna 2005 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy