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________________ व्रतों का पालन करना बताया गया है। उन व्रतों को अणुव्रतों की संज्ञा दी गई है। ये पांच अणुव्रत हैं- अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। 1. अहिंसाणुव्रत :- मन-वचन-काय से अतिचारों से दूर रहते हुए जीवों के हनन न करने का नाम ही अहिंसाणुव्रत है। छेदन, बंधन, पीड़ा, अतिभार लादना और पशुओं को आहार देने में त्रुटि करना- ये पांच इस व्रत के अतिचार हैं। हिंसा को जिन अंशों में छोड़ते जाते हैं उतने अंशों में अहिंसा की भावना फैलती जाती है एवं जब अहिंसा की भावना परिपुष्ट बनती है तो उसका विधिरूप उभर कर सामने आता है। यह रूप दया और करुणा का रूप होता है जिसके अस्तित्व में आने पर समता का अनुभव भी प्रखर बनता है, क्योंकि दया अथवा करुणा अपनी श्रेष्ठतम कोमलता के साथ किसी प्रकार का भेद स्वीकारती ही नहीं है। जो भी दया का पात्र दीखेगा उसके लिये हृदय पिघल जायेगा और सहानुभूति सक्रिय बन जायेगी। अहिंसा की आराधना से जो दृष्टि मिलती है वह समदृष्टि होती है और उसमें शत्रु तथा मित्र के भेद को भी स्थान नहीं होता है। समाज एवं राष्ट्र की वर्तमान परिस्थितियों में हिंसा जंगल की आग की तरह जिस तेजी से फैल रही है वह आज गम्भीरता से सोचने जैसी स्थिति है। जिस विषभरी औषधि से शरीर को हानि पहुंच रही है, उस हानि से बचने का पहला उपाय यही हो सकता है कि वह औषधि बन्द कर दी जाये और फिर लाभकारी औषधि शुरू की जाये। इसलिये आज इसके अलावा अन्य कोई उपाय नहीं है कि सबसे पहले हिंसा रोकी जाय। ज्योंही हिंसा के भय से छुटकारा मिलेगा, अहिंसा एवं समता की भावना अपने आप ही उपजेगी। 2. सत्याणुव्रत :-जिस वचन से किसी का अहित न हो, ऐसा वचन स्वयं बोलने और दूसरों से बुलवाने का नाम है सत्याणुव्रत। मिथ्या उपदेश देना, किसी का रहस्य प्रगट करना, दूसरे की निन्दा या चुगली करना और झूठी बातें लिखना तथा किसी की धरोहर का अपहरण करना- ये पांच इस व्रत के अतिचार हैं। शास्त्रों में सत्य को स्वयं भगवान् कहा है, क्योंकि सत्य की दिव्यता और प्रखरता सत्य के साधक को ईश्वरत्व के समीप पहुंचा देती है। कहा है- सत्य की साधना करने वाला साधक सब ओर दुःखों से घिरा रह कर भी घबराता नहीं है, विचलित नहीं होता है। असत्य अथवा मृषावाद का जन्म क्रोध, लोभ, भय, हास्य आदि काषायिक वृत्तियों की बहुलता से होता है। झूठ बोलने की जरूरत भी आदमी अपने किसी मतलब के कारण ही समझता है। स्वार्थ, तृष्णा अथवा लिप्सा के वशीभूत होकर जब एक झूठ तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2005 - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524624
Book TitleTulsi Prajna 2005 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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