________________
बोला जाता है तो उस झूठ को सत्य का रूप देने की कुचेष्टा में लगातार झूठ बोलना पड़ जाता है। झूठ बोलते-बोलते ऐसी धृष्टता पैदा हो जाती है कि फिर उसे झूठ बोलते रहना अखरता नहीं। यह मृषावाद वैचारिक दृष्टि से मिथ्यावाद में पनपता है और मिथ्यावादी समदृष्टि नहीं बन सकता। सत्य की साधना में सफलता का श्रीगणेश तभी हो सकेगा जब मिथ्यावाद की ग्रंथियां काटने में सफलता मिलनी शुरू होगी। इसके लिए दृष्टिकोण की विशालता आवश्यक है। अपने स्वार्थों के घेरों को तोड़ना होगा तथा संकुचित धारणाओं को छोड़ना होगा। हृदय में ज्यों-ज्यों उदारता का विस्तार होता जायेगा, मिथ्यावाद की निरर्थकता स्पष्ट होती जायेगी।
____ 3. अचौर्याणुव्रत :- रखे हुए, गिरे हुए अथवा भूले हुए दूसरे के धन को ग्रहण न करना ही अचौर्याणुव्रत है। चोरी का उपाय बताना, चोरी की वस्तु लेना, कानून का उल्लंघन करना, पदार्थों में मिलावट करना और तौलने नापने के बाटों को हीनाधिक रखना, ये पांच उक्त व्रत के अतिचार हैं। मनुष्य को जीवन निर्वाह के लिये अर्थ का उपार्जन करना होता है। सामान्यतः यह उपार्जन अपने परिश्रम पर आधार पर ही किया जाता है। परिश्रम और नैतिकता के द्वारा उपार्जन करने का अर्थ का संचय सम्भव नहीं होता है। लेकिन जब मनुष्य के मन में तृष्णा हिलोरें लेने लगती है, जब वह सही आवश्यकता सम्बन्धी भान भूल जाता है और अधिकाधिक धन संचय के लिये पागल हो उठता है। कहा है- इच्छाएं आकाश के समान अनन्त होती हैं तथा तृष्णा का रूप वैतरणी नदी के समान है अर्थात् इच्छाओं की तुष्टि कभी सम्भव नहीं तथा तृष्णा का अन्त कभी अथता ही नहीं। अपार धन संग्रह के लोभ के कारण वह पथ-भ्रष्ट होकर स्तेय आवा अदत्तादान की कालिमामय दिशा की तरफ चल पड़ता है। वर्तमान युग में जहां अर्थोपार्जन के उपाय जटिल और छल-छद्म भरे हो गये हैं वहां आर्थिक क्षेत्र में चोरी के उपाय भी काफी टेढ़े-मेढ़े और कुटिल बन गये हैं। आज के अर्थ-प्रधान युग में अस्तेय व्रत का बहुत ही महत्त्व है। चाहे मजदूरी की चोरी हो या सरकार की चोरीसभी चोरियाँ न्यूनाधिक रूप से निन्दनीय मानी जानी चाहिये। अस्तेय व्रत का यह असर होना चाहिये कि संचार में सभी नीतिपूर्वक अर्जन करें और जो भी अर्जन करें, वह स्वयं के शुद्ध श्रम पर आधारित होना चाहिये।
4. ब्रह्मचर्याणुव्रत :- परस्त्री, परपुरुष का उपभोग न तो स्वयं करें और न दूसरे को ऐसा करने की प्रेरणा दें। कामभावना पर संयम रखना ब्रह्मचर्याणुव्रत है। कामुकतापूर्ण वचन बोलना, स्वस्त्री में भी तीव्र कामेच्छा, वेश्यागमन आदि भी इस व्रत के अतिचार हैं। संसार की सारी समस्याओं का निचोड़ दो समस्याओं में लिया जा सकता है और वे दो
66
तुलसी प्रज्ञा अंक 129
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org