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________________ समस्याएं हैं- 1. रोटी की समस्या और 2. सैक्स की समस्या। सैक्स अर्थात् काम की वासना। वर्तमान समय में घोर आर्थिक विषमता के कारण भी दुराचरण में वृद्धि आई है। जब ब्रह्मचर्य की पालना नहीं होती है तो सद्गुणों का भी ह्रास होता जाता है। ममत्व के क्षेत्र में भी काम मोह को सर्वाधिक जटिल माना गया है। यह जितना जटिल होता है उतना ही इसका त्याग भी कठिन होता है। काम-मोह को काट दें तो बाकी सारे मोह खुद ही कट जाते हैं। अपनी इच्छा एवं संकल्प शक्ति के जरिये मिथुन-वृत्ति को धीरे-धीरे वैचारिक, वाचिक एवं कायिक तीनों रूपों में नियन्त्रित करें- यह ब्रह्मचर्य की आराधना होगी। 5. परिग्रह परिमाणाणुव्रत :- आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह न करना परिग्रह परिणामाणुव्रत है। अनावश्यक वाहनों या वस्तुओं का संग्रह, दूसरे का वैभव देखकर ईर्ष्या करना, लोभ करना आदि इसके अतिचार हैं। भौतिक साधक एवं उसमें रहने वाले ममत्व भाव को परिग्रह के रूप में परिभाषित किया गया है, जिसमें भी मुख्य ममत्व या मूर्छा को माना गया है। परिग्रह के प्रति मूर्छा गहरी होती है, जागृति उतनी ही लुप्त होती चली जाती है। अन्तहीन वितृष्णा विषमता की मां होती है। व्यक्ति की वितृष्णा बढ़ती है तब वह नीति छोड़कर येन केन प्रकारेण धनार्जन एवं धन-संचय करना चाहता है- सारा विवेक, सदाशय एवं न्याय-विचार खोकर तब विषमता का दौर चलता है। जब से पश्चिमी सभ्यता का अन्धा-अनुकरण किया जाने लगा है तब से लोगों की आवश्यकताएं सुरसा की नाक की तरह बढ़ती रही हैं और उन्हें पूरी करने के लिये लोग तरह-तरह के भ्रष्टाचार में लिप्त होते जाते हैं। इस तरह परिग्रहवाद या पूंजीवाद का असर भयानक रूप से फैल रहा है। इसी के साथ आर्थिक विषमता भयानक रूप से फैल रही है जिसके कुप्रभाव से अन्य सामाजिक विषमताओं की खाई भी निरन्तर चौड़ी होती जा रही है। परिग्रह के प्रति मूर्छा घटे- ऐसे त्वरित उपाय करने होंगे। अपरिग्रह व्रत इसके गूढार्थ में समझा जाना चाहिये तथा व्यवहार में सिर्फ पदार्थों के त्याग को ही नहीं, तृष्णा-त्याग को अधिकतम महत्त्व दिया जाना चाहिये। अतिचारों से दूरे रहते हुए उपर्युक्त अणुव्रतों का पालन करके कोई भी गृहस्थ सदाचरण कर सकता है। इन व्रतों को धारण करने में जाति, कुल, ऊंच, नीच आदि की कोई बाधा नहीं है। किसी भी जाति, कुल का व्यक्ति अर्थात् मानव मात्र इन व्रतों को अपने जीवन में उतार सकता है। तभी वह सच्चा श्रावक कहा जा सकेगा। अणुव्रत सुसंस्कृत और सुव्यवस्थित समाज के निर्माण में बड़े सहायक होते हैं । व्यक्ति समाज की इकाई है, व्यक्ति के निर्माण से ही समाज का निर्माण होता है। अत: अणुव्रत जब इकाई रूप व्यक्ति को सच्चरित्र बनाता है, तब ऐसी इकाइयों से बना हुआ समाज भी निश्चय से तुलसी प्रज्ञा जुलाई -दिसम्बर, 2005 - __ 67 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524624
Book TitleTulsi Prajna 2005 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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