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बन गया। मनुष्य ने सोचना प्रारम्भ किया कि उसकी दृष्टि से ही सर्वोपरि न होकर दूसरे की दृष्टि भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है। उसने अपने क्षुद्र अहं को गलाना चाहा। अनेकान्त के इस मूल्य ने सत्य के विभिन्न पक्षों को समन्वित करने का एक ऐसा मार्ग खोल दिया कि जिससे सत्य की खोज किसी एक मस्तिष्क की बपौती नहीं रह गई। प्रत्येक व्यक्ति सत्य के एक नये पक्ष की खोज कर समाज को गौरवान्वित कर सकता है। जैन साधकों ने कहा कि ज्ञान की परिसमाप्ति वस्तु के किसी एक पक्ष को जानने में नहीं किन्तु उसके अनन्त पक्षों की खोज में है। भगवान महावीर के इस वैचारिक उदारता के मूल्य ने समाज में व्याप्त अनुचित संघर्ष को समाप्त कर दिया है और लोगों को कन्धे से कन्धा मिलाकर चलने के लिए आह्वान किया । अनेकान्त समाज का गत्यात्मक सिद्धांत है जो जीवन में वैचारिक गति को उत्पन्न करता है। संकीर्णताओं की बन्द खिड़कियों को खोलकर वह उदारता की ताजी हवा से समाज स्वास्थ्य को ठीक रखता है।
आज के युग की सबसे बड़ी समस्या है कि जीवन के प्रति हमारी दृष्टि सही नहीं है। संसार के पदार्थों को, जीवों को, जीवन शैली को हम उस रूप में नहीं देखते हैं या समझते हैं, जैसी वे हैं। इस मिथ्या दृष्टि के कारण ही विश्व की अन्य समस्याएं हमारे सामने हैं । तीर्थंकर महावीर के चिंतन ने प्रमुख कार्य यही किया कि विश्व को समझने के लिए हमें सम्यक् दृष्टि प्रदान की। उन्होंने कहा कि हमको सर्वप्रथम यह समझना होगा कि संसार के सभी प्राणी, पशु, पक्षी, नारी, पुरुष में समानता पूर्वक जीवित रहने की इच्छा है। दुर्घटना या हिंसा से कोई मरना नहीं चाहता। यह भावना कीट, पतंग, पानी, वनस्पति, धरती, पहाड़ तक में है। अतः अपनी आत्मा के समान इन सबके जीवन को भी आदर और सुरक्षा देती है।
जैन आचार संहिता का मूलाधार सम्यक् चरित्र है। जैन ग्रन्थों में चारित्र का विवेचन गृहस्थों और साधुओं की जीवन चर्या को ध्यान में रखकर किया गया है। साधु जीवन के लिए जिस आचरण का विधान किया गया है उसका प्रमुख उद्देश्य आत्मसाक्षात्कार है जबकि गृहस्थों के चरित्र में व्यक्ति और समाज के उत्थान की बात भी सम्मिलित है। इस तरह निवृत्ति एवं प्रवृत्ति मार्ग दोनों का समन्वय जैन आचार-संहिता में हुआ है। आत्म हित और पर हित का सामंजस्य सम्यग्दर्शन और सम्यक्ज्ञान की पृष्ठभूमि में सहज उत्पन्न हो जाता है। निज का स्वार्थ-साधन, दूसरों के प्रति द्वेष और ईर्ष्याभाव तथा हिंसक प्रवृत्ति का त्याग व्यक्ति सम्यक् दर्शन को उपलब्ध होते ही कर देता है। वस्तुओं का सही ज्ञान होते ही वह आत्म कल्याण तथा पर हित की बात सोचने लगता है। उसमें आत्मा के गुणों को जगाने का पुरुषार्थ तथा जगत् के जीवों के प्रति
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तुलसी प्रज्ञा अंक 129 .
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