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________________ गृहस्थ जीवन में रहते हुए हिंसा, परिग्रह आदि से बचा नहीं जा सकता, यह ठीक . है। किन्तु जैन साधकों का कहना है कि श्रावक अपनी दृष्टि को सही रखे। जो काम करे, उसके परिणामों से भली भाँति परिचित भी रहे । आवश्यकता की उसे सही पहचान हो। जीवन यापन के लिए किन वस्तुओं की आवश्यकता है, उनको प्राप्त करने के क्या साधन है तथा उनके उपयोग से दूसरों के हित का कितना नुकसान है ? आदि बातों पर विचार कर वह परिग्रह करने में प्रयुक्त हो तो इससे कम से कम कर्मों का बंध होगा। श्रावक के बारह व्रत एवं ग्यारह प्रतिमाएं आदि का पालन गृहस्थ को करना इसी निस्पृही वृत्ति का अभ्यास करना है। इसी से उसके आत्मज्ञान की समझ विकसित होती है। अपरिग्रही होने के लिए दूसरी बात प्रमाणिक होने की है। उसमें वस्तुओं की मर्यादा नहीं, अपनी मर्यादा करना जरूरी है। सत्य-पालन का अर्थ यह नहीं कि व्यापारिक गोपनीयता को उजागर करता फिरे। इसका आशय केवल इतना है कि आपने जिस प्रतिशत मुनाफे पर व्यापार निश्चित किया है, उसमें खोट ना हो । जिस वस्तु की आप कीमत ले रहे हैं वह मिलावटी न हो और अस्तेय का अर्थ कि आपकी जो व्यापारिक सीमा है उसके बाहर कि वस्तु का आपने अनावश्यक संग्रह नहीं किया है। इन अतिचारों से बचते हुए यदि जैन गृहस्थ व्यापार करता है तो वह देश के व्यापार को प्रमाणिक बनायेगा। आवश्यकता और सामर्थ्य के अनुरूप समृद्ध भी होगा। तब उसकी दुकान और मन्दिर स्थानक में कोई फर्क नहीं होगा। व्यापार और धर्म एक दूसरे के पूरक होंगे। उदार विचार - मानवीय एवं आर्थिक समानता के साथ-साथ वैचारिक मतभेद भी समाज में द्वन्द को जन्म देते हैं, जिनके कारण समाज रचनात्मक प्रवृत्तियों को विकसित नहीं कर पाता है। वैचारिक मतभेद मानव की सृजनात्मक मानसिक शक्तियों का परिणाम होता है पर इनको उचित रूप में न समझने से मनुष्य मनुष्य के आपसी मतभेद संकुचित संघर्ष के कारण बन जाते हैं और इनसे समाज की शक्ति विघटित हो जाती है। समाज के इस पक्ष को महावीर ने गहराई से समझा और एक ऐसे सिद्धांत की घोषणा की, जिसमें मतभेद भी सत्य को देखने की दृष्टियाँ बन गई और व्यक्ति समझने लगा कि मतभेद दृष्टि पक्षभेद के रूप में ग्राह्य है, मतभेद के रूप में नहीं है । वह सोचने लगा कि मतभेद संघर्ष का कारण नहीं किन्तु विकास का द्योतक है। वह एक उन्मुक्त व्यक्ति की आवाज है। इस तथ्य को प्रकट करने के लिए जैन साधकों ने कहा कि वस्तु एक पक्षीय न होकर, अनेक पक्षीय है । इस वैचारिक उदारता के सामाजिक मूल्य से विचारों का मतभेद भी ग्रहणीय तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2005 - - 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524624
Book TitleTulsi Prajna 2005 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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