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________________ समाज ऐसे आहार की अनुशंसा करे जिससे समाज पर हिंसा का दबाव कम हो और भाईचारे की संभावना निरन्तर समृद्ध हो । शाकाहार का सीधा और स्वच्छ मतलब है चारों ओर स्नेह और विश्वास का वातावरण बनना और प्रकृति के हर अस्तित्व को भयमुक्त रखना। शाकाहार का दूसरा नाम अभय और निर्विघ्न शान्ति है I मितव्यता मितव्यता जैन धर्म दर्शन के व्यावहारिक पहलू की रीढ़ है । मितव्ययता की परिभाषा है - विवेक सम्मत आवश्यकता की पूर्ति के लिए कम से कम वस्तुओं का उपयोग मितव्ययता की पूर्व शर्त है । वैराग्य और त्याग भाव जिससे फलित होता है । पर वस्तुओं की लिप्सा की कमी। कम हो चुकी या होती हुई लिप्साओं के परे वस्तुओं की कम से कम आवश्यकताओं की अनुभूति पैदा होती है। कम होती हुई आवश्यकताओं का मानदण्ड है वस्तुओं का कम से कम मितव्ययी उपयोग । जीने के हर कदम पर जैन इस मितव्ययता सूत्र को लागू करते हैं। जितनी कम से कम जरूरत हो, उसी के मुताबिक खनिज, हवा, पानी, ऊर्जा, वनस्पतियां, त्रस जीवों के शरीर और उनकी सेवाएं उपभोग में ली जाएं। जिस आचरण से किसी जीव के सर्वथा प्राण हरण हो, उससे बचा जाए। श्रमण परम्परा अहिंसक प्रयोगों के उदाहरणों से भरी पड़ी है। तीर्थंकरों ने पर्यावरण के संरक्षण से ही अपनी साधना प्रारम्भ की थी। ऋषभ देव ने कृषि एवं वन सम्पदा को सुरक्षित रखने के लिए लोगों को सही ढंग से जीने की कला सिखाई । नेमिनाथ ने पशुक्षियों के प्राणों के समक्ष मनुष्य की विलासिता को निरर्थक प्रमाणित किया । स्वयं के त्याग द्वारा उन्होंने प्राणी जगत् की स्वतंत्रता की रक्षा की है। पार्श्वनाथ ने धर्म और साधना के क्षेत्र में हिंसक अनुष्ठानों को अनुमति नहीं दी। अग्नि को व्यर्थ में जलाना और पानी को निरर्थक बहा देना भी हिंसा के सूक्ष्म प्रकार हैं । महावीर ने जीवन को उन सूक्ष्म स्तरों तक अपनी साधना के द्वारा पहुंचाया, जहाँ हिंसा और तृष्णा असम्भव हो जाए। षट्काय के जीवों की रक्षा में ही धर्म की घोषणा करके महावीर ने पृथ्वी, पानी, वनस्पति, कीड़े-मकोड़े, पशु-पक्षी एवं मानव सबको सुरक्षित करने का प्रयत्न किया तभी उन्होंने कहा- मित्ति मे सव्व भूयेसु वेरं मज्ज ण ई- मेरी सब प्राणियों से मित्रता है । मेरा किसी से बैर नहीं है। इस सूत्र को जीवन में उतारे बिना संयम नहीं हो सकता, धर्म की साधना नहीं हो सकती, पर्यावरण की सुरक्षा भी नहीं की जा सकती । 10 Jain Education International For Private & Personal Use Only तुलसी प्रज्ञा अंक 129 www.jainelibrary.org
SR No.524624
Book TitleTulsi Prajna 2005 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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