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करुणा और मैत्री का भाव जागृत हो जाता है । अनेकान्त की वैचारिक उदारता से परिचित होते ही व्यक्ति अनाग्रहपूर्ण जीवन जीने लगता है, अतः उसके कदम सम्यक् चरित्र की भूमि को स्पर्श करने लगते हैं । यहाँ आकर साधक अहिंसा की पूर्ण साधना के लिए ही है | अहिंसा के बिना जैन आचार शून्य है । मानवता का कल्याण अहिंसा में ही सन्निहित है, इसलिए जैन आचार, आहार एवं विचार में इसका सूक्ष्म और मौलिक विवेचन मिलता है ।
विवेक की तलाश :
श्रावक केवल जैन धर्म एवं परम्परा का प्रतिनिधित्व नहीं करता है अपितु वह सम्पूर्ण भारतीय जीवन का संवाहक है। श्रावक के १२ व्रत, उनके ३५ मार्गानुसारी गुण, उसकी सादगी और धर्मपरायणता आदि के विवेचन की पृष्ठभूमि में यदि श्रावक का चित्रांकन कोई करे तो भारत का क्या, विश्व का उससे कोई अच्छा नागरिक नहीं हो सकता है किन्तु इन सभी गुणों से युक्त कोई श्रावक कभी समाज के सामने खड़ा हुआ हो, इतिहास इसका साक्षी नहीं है। आदर्श के इस विशाल मापदण्ड को सामने रख कर परम्परा में अनेक ऐसे श्रावक अवश्य हुए हैं जिन्होंने व्यसन मुक्त जीवन एवं आध्यात्मिक अनुभवों की अनेक सीढ़ियां पार की हैं। इसे मूल्यों के ध्वंस होने का प्रवाह ही कहा जायेगा कि श्रावक का स्वरूप आदर्श की सीढ़ियों पर चढ़ने की बजाय नीचे उतरा है और आज उस धरातल पर पहुँच गया है कि जहाँ श्रावक शब्द की पहिचान मिटने लगी है। भीतर का आदमी भी धूमिल हो गया है। पशुता की श्रेणी में खड़ा हुआ श्रावक का खण्डहर कैसे अपनी पुरानी प्रतिष्ठा को रेखांकित करे, चिंतन क्रियान्विति की ये ही दिशाएं होनी चाहिए।
ज्ञान-विज्ञान और भौतिकता के इस युग में श्रावक का सूर्य उग सकता है। इसके लिए श्रावक को सभी ओर से प्रतिष्ठा और मान्यता देनी होगी । श्रावक भौतिक रूप से आज भले ही उन विधि विधानों और अनुष्ठानों का स्वयं कर्त्ता बन पाये जो कभी उसके लिए अनिवार्य थे। किन्तु उसके प्रति आस्था तो उसे रखनी ही होगी। देव, शास्त्र, गुरु की उपासना पद्धति में आधुनिकता को स्वीकार किया जा सकता है किन्तु उसे नकारा भी नहीं जा सकता है। श्रावक का वेश बदला हुआ हो सकता है किन्तु राग-द्वेष की सीमा रेखा तो उसे ही खींचनी होगी। अष्ठ मूल गुणों का नाम उसे देर से याद हो, कोई बात नहीं किन्तु धन्धे और धर्म की समानता का पाठ उसे पढ़ना ही होगा। अनुप्रेक्षाओं प्रतिमाओं की सीढ़ियां चढ़ने में पीढ़ियां लग जायें तो कोई बात नहीं किन्तु व्यसनों से मुक्त होने की
तुलसी प्रज्ञा जुलाई - दिसम्बर, 2005
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