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गृहस्थ जीवन की व्यावहारिक नीति :
गृहस्थ-जीवन में कैसे जीना चाहिए ? इस सन्दर्भ में थोड़ा निर्देश आवश्यक है । गृहस्थ उपासक का व्यावहारिक जीवन कैसा हो, इस सन्दर्भ में जैन आगमों में यत्र-तत्र बिखरे हुए कुछ निर्देश मिल जाते हैं। लेकिन बाद के जैन विचारकों ने कथा साहित्य, उपदेश साहित्य एवं आचार - सम्बंधी साहित्य में इस सन्दर्भ में एक निश्चित रूप रेखा प्रस्तुत की है, यह एक स्वतन्त्र शोध का विषय है । हम अपने विवेचन को आचार्य नेमीचंद्र के प्रवचनसारोद्धार, आचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र तथा पं. आशाधर जी के सागरधर्मामृत तक ही सीमित रखेंगे।
सभी विचारकों की यह मान्यता है कि जो व्यक्ति जीवन के सामान्य व्यवहारों में कुशल नहीं है, वह आध्यात्मिक जीवन की साधना में आगे नहीं बढ़ सकता । धार्मिक या आध्यात्मिक होने के लिए व्यावहारिक या सामाजिक होना पहली शर्त है । व्यवहार से ही परमार्थ साधा जा सकता है। धर्म की प्रतिष्ठा के पहले जीवन में व्यवहार पटुता एवं सामाजिक जीवन जीने की कला का आना आवश्यक है। जैनाचार्यों ने इस तथ्य को बहुत पहले ही समझ लिया था । अतः अणुव्रत साधना के पूर्व ही इन योग्यताओं का सम्पादन आवश्यक है ।
आचार्य हेमचन्द्र ने इसे मार्गानुसारी गुण कहा है। धर्म मार्ग का अनुसरण करने के लिए इन गुणों का होना आवश्यक है। उन्होंने योगशास्त्र के द्वितीय और तृतीय प्रकाश में निम्न ३५ मार्गानुसारी गुणों का विवेचन किया है :
१. न्याय - नीतिपूर्वक ही धनोपार्जन करना । २. समाज में जो ज्ञानवृद्ध और वयोवृद्ध शिष्ट- जन हैं, उनका यथोचित सम्मान करना, उनसे शिक्षा ग्रहण करना और उनके आचार की प्रशंसा करना । ३. समान कुल और आचार विचार वाले, स्वधर्मी किन्तु भिन्न गोत्रोत्पन्न जनों की कन्या के साथ विवाह करना । ४. चोरी, परस्त्रीगमन असत्यभाषण आदि उपक्रमों का ऐहिक - पारलौकिक, कटुक - विपाक जानकर पापाचार का त्याग करना । ५. अपने देश के कल्याणकारी आचार-विचार एवं संस्कृति का पालन करना, संरक्षण करना । ६. दूसरों की निन्दा न करना । ७. ऐसे मकान में निवास करना जो न अधिक खुला, न अधिक गुप्त हो, जो सुरक्षा वाला भी हो और जिसमें अव्याहत वायु एवं प्रकाश आ सके । ८. सदाचारी जनों की संगति करना । ९ माता-पिता का सम्मानसत्कार करना, उन्हें सब प्रकार से सन्तुष्ट रखना । १०. जहाँ वातावरण शान्तिप्रद न हो जहाँ निराकुलता के साथ जीवन यापन करना कठिन हो, ऐसे ग्राम या नगर में निवास न करना । ११. देश जाति एवं कुल से विरुद्ध कार्य न करना जैसे मदिरा पान आदि ।
तुलसी प्रज्ञा जुलाई - दिसम्बर, 2005
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