________________
अनेक परिवारों के जीवन अशान्त बन जाते हैं । वेश्यावृत्ति की अपेक्षा यह अधिक दोषपूर्ण है क्योंकि इसमें छद्म, और जीवन का दोहरापन भी जुड़ जाता है । अत: सामाजिक दृष्टि से यह बहुत बड़ा अपराध है । आज कामवासना की तृप्ति का यह छद्म रूप अधिक फैलता जा रहा है। पाश्चात्य देशों की वासनात्मक उच्छृंखलता का प्रभाव हमारे देश में हुआ है। क्लबों और होटलों के माध्यम से यह विकृति अधिक तेजी से व्याप्त होती जा रही है। जैन समाज का कुछ सम्पन्न एवं धनी वर्ग इसकी गिरफ्त में आने लगा है। यद्यपि अभी समाज का बहुत बड़ा भाग इस दुगुर्ण से मुक्त है किन्तु धीरे-धीरे फैल रही विकृति के प्रति सजग होना आवश्यक है।
६. शिकार - मनोरंजन के निमित्त अथवा मांसाहार के लिए जंगल के प्राणियों का वध करना शिकार कहा जाता है। यह व्यक्ति को क्रूर बनाता है । यदि मनुष्य के मानवीय गुणों से युक्त बनाये रखना है तो इस प्रवृत्ति का त्याग अपेक्षित है । आज शासन द्वारा भी वन्य प्राणियों के संरक्षण के लिए शिकार की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया जा रहा है । अत: इस प्रवृत्ति के त्याग का औचित्य निर्विवाद है । आज हम इस बात को गौरव से कह सकते हैं कि जैन समाज इस दुगुर्ण से मुक्त है, किन्तु आज सौंदर्य-प्रसाधनों, जिनका उपयोग समाज में धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है, इस निमित्त अव्यक्त रूप से हो रही हिंसा के प्रति सजग रहना आवश्यक है, क्योंकि उनका उत्पादन उपभोक्ताओं के निमित्त ही होता है और यदि हम उनका उपभोग करते हैं तो उस हिंसा व क्रूरता से अपने को बचा नहीं सकते। सौन्दर्य प्रसाधनों के निर्माण एवं परीक्षण के निमित्त हिंसा के जो क्रूरतम रूप अपनाये हैं वे जैन पत्र-पत्रिकाओं में बहुचर्चित रहे हैं । अतः उन सब पर यहाँ विचार करना आवश्यक प्रतीत नहीं होता । किन्तु इस सन्दर्भ में हमें सजग अवश्य रहना चाहिए कि हम क्रूरता के भागी न बनें।
७. चौर्य-कर्म - दूसरों की सम्पत्ति या दूसरों के अधिकार की वस्तुओं को उनकी बिना अनुमति के ग्रहण करना चोरी है। अपनी आवश्यकता से अधिक संग्रह और संचय को भी चोरी कहा जा सकता है। जैनाचार्यों ने व्यावसायिक अप्रामाणिकता कर, अप्रवंचन तथा राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध कार्य करना आदि को भी चोरी के अन्तर्गत माना है । यद्यपि सामान्यतया जैन परिवार इस दुर्व्यसन से मुक्त कहे जा सकते हैं किन्तु जैनाचार्यों ने इसकी जो सूक्ष्म व्याख्या की है, उस आधार पर आज का गृहस्थ वर्ग इस दुर्व्यसन से कितना मुक्त है, यह कहना कठिन है । व्यावसायिक अप्रामाणिकता और कर अप्रवंचन आज सामान्य हो गये हैं । व्यावसायिक अप्रामाणिकता के इस युग में इसकी प्रासंगिकता को नकारा तो नहीं जा सकता किन्तु वर्तमान युग में कौन इससे कितना बच सकेगा, इस पर व्यावहारिक दृष्टि से विचार करना अपेक्षित है।
34
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
तुलसी प्रज्ञा अंक 129
www.jainelibrary.org