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________________ को कुण्ठित करता है। अतः मनुष्य के मानवीय गुणों को जीवित रखने के लिए इसका त्याग आवश्यक है। मनुष्य और पशु के बीच यदि कोई विभाजक रेखा है तो वह विवेक ही है और जब विवेक ही समाप्त हो जायेगा तो मनुष्य और पशु में कोई अन्तर ही नहीं रह जायेगा। मादक द्रव्यों का सेवन मनुष्य को मानवीय स्तर से गिराकर उसे पाशविक स्तर पर पहुँचा देता है। यह भी एक सुविदित तथ्य है कि जब यह दुर्व्यसन गले लग जाता है तो अपनी अति पर पहुँचाए बिना समाप्त नहीं होता । वह न केवल विवेक को समाप्त करता है अपितु आर्थिक और शारीरिक दृष्टि से व्यक्ति को जर्जर बना देता है। आज जैन समाज के सम्पन्न परिवारों में यह दुर्व्यसन भी प्रवेश कर चुका है। मैं ऐसे अनेक परिवारों को जानता हूँ जो धर्म के क्षेत्र में अग्रणी श्रावक माने जाते हैं किन्तु इस दुर्व्यसन से मुक्त नहीं हैं। आज हमें इस प्रश्न पर गम्भीरता से विचार करना होगा कि समाज को इससे किस प्रकार बचाया जाए। जैन समाज ने जो चारित्रिक गरिमा, आर्थिक सम्पन्नता तथा समाज में प्रतिष्ठा अर्जित की थी उसका मूलभूत आधार इन दुर्व्यसनों से दूर रहना ही था। इन दुर्व्यसनों के प्रवेश के साथ हमारी चारित्रिक उच्चता और सामाजिक प्रतिष्ठा धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है। और तब एक दिन ऐसा भी आयेगा जब हम अपनी आर्थिक सम्पन्नता से हाथ धो बैठेंगे। यदि हम सजग नहीं हुए तो भविष्य हमें क्षमा नहीं करेगा। ४. वेश्यागमन- श्रावक के सप्त दुर्व्यसन-त्याग के अन्तर्गत वेश्यागमन के त्याग का भी विधान किया गया है। यह सुनिश्चित सत्य है कि वेश्यागमन न केवल सामाजिक दृष्टि से अवांछनीय है अपितु आर्थिक एवं शारीरिक-स्वास्थ्य की दृष्टि से भी अवांछनीय माना गया है। उसके अनौचित्य पर यहाँ कोई विशेष चर्चा करना आवश्यक प्रतीत नहीं होती। सामाजिक सदाचार और पारिवारिक सुख शान्ति के लिए वेश्यागमन का त्याग उचित ही है। यह एक शुभ संकेत ही है कि न केवल जैन समाज में अपितु समग्र भारतीय समाज में वेश्यागमन की प्रवृत्ति और वेश्यावृत्ति धीरे-धीरे क्षीण होती जा रही है। यद्यपि इस प्रवृत्ति के जो दूसरे रूप सामने आ रहे हैं वे उसकी अपेक्षा अधिक चिन्तनीय है। यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि चाहे खुले रूप में वेश्यावृत्ति पर कुछ अंकुश लगा हो, किन्तु छद्मरूप में यह प्रवृत्ति बढ़ी ही है। जैन समाज के सम्पन्न वर्ग में इन छद्मरूपों के प्रति ललक बढ़ती जा रही है, जिस पर अंकुश लगाना आवश्यक है। ५. परस्त्रीगमन - परस्त्रीगमन परिवार एवं समाज व्यवस्था का घातक है, इसके परिणाम स्वरूप न केवल एक ही परिवार का जीवन दूषित एवं अशान्त बनता है, अपितु तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2005 - - 33 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524624
Book TitleTulsi Prajna 2005 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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