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________________ मांसाहार की अपेक्षा अधिक सुलभ और सस्ता है। अतः मनुष्य की स्वाद-लोलुपता के अतिरिक्त और कोई तर्क ऐसा नहीं है, जो मांसाहार का समर्थक हो सके। शक्तिदायक आहार के रूप में मांसाहार के समर्थन का एक खोखला दावा है। यह सिद्ध हो चुका है कि मांसाहारियों की अपेक्षा शाकाहारी अधिक शक्ति सम्पन्न होते हैं और उनमें अधिक काम करने की क्षमता होती है। शेर आदि मांसाहारी प्राणी शाकाहारी प्राणियों पर जो विजय प्राप्त कर लेते हैं, उसका कारण उनकी शक्ति नहीं बल्कि उनके नख, दांत आदि क्रूर शारीरिक अंग ही हैं। __ जैन समाज के लिए आज यह विचारणीय प्रश्र है कि वह समाज में बढ़ती जा रही सामिष-भोजन की ललक को कैसे रोके? आज आवश्यकता इस बात की है कि हमें मांसाहार और शाकाहार के गुण दोषों की समीक्षा करते हुए तुलनात्मक विवरण से युक्त ऐसा साहित्य प्रकाशित करना होगा, जो आज के युवक को तर्क-संगत रूप से यह अहसास करवा सके कि मांसाहार की अपेक्षा शाकाहार एक उपयुक्त भोजन है। दूसरे समाज में जो मांसाहार के प्रति ललक बढ़ती जा रही है,उसका कारण समाज-नियंत्रण का अभाव तथा मांसाहारी समाज में बढ़ता हुआ घनिष्ठ परिचय है, जिस पर किसी सीमा तक अंकुश लगाना आवश्यक है। ३. मद्यपान - तीसरा दुर्व्यसन मद्यपान माना गया है और गृहस्थोपासक को इसके त्याग का स्पष्ट निर्देश दिया गया है। बुद्ध ने तो इस दुष्प्रवृत्ति को रोकने के लिए अपने पंचशील में अपरिग्रह के स्थान पर मद्यपान निषेध को स्थान दिया था। यह एक ऐसी बुराई है जो मानव समाज के गरीब और अमीर दोनों ही वर्गों में हावी है। जैन परम्परा में मद्यपान का निषेध न केवल इसलिये किया गया कि वह हिंसा से उत्पादित है, अपितु इसलिए कि इससे मानवीय विवेक कुण्ठित होता है और जब मानवीय विवेक कुण्ठित हो जायेगा तो दूसरी सारी बुराइयाँ व्यक्ति के जीवन में स्वभाविक रूप से प्रविष्ट हो जायेगी। आर्थिक और चारित्रिक सभी प्रकार के दुराचरणों के मूल में नशीले पदार्थों का सेवन है। सामान्यतया यह कहा जा सकता है कि मादक द्रव्यों के सेवन से मनुष्य अपनी मानसिक चिंताओं को भूलकर अपने तनावों को कम करता है, किन्तु यह एक भ्रान्त धारणा ही है। तनाव के कारण जीवित रखकर केवल क्षण भर के लिए अपने विवेक को खोकर विस्मृति के क्षणों में जाना, तनावों के निराकरण एवं परिमार्जन का सार्थक उपाय नहीं है। मद्यपान को सभी दुर्गुणों का द्वार कहा गया है। वस्तुत: उसकी समस्त बुराइयों पर विचार करने के लिए एक स्वतंत्र निबंध आवश्यक होगा। यहाँ केवल इतना कहना पर्याप्त है कि सारी बुराइयाँ विवेक के कुण्ठित होने पर पनपती हैं और मद्यपान विवेक 32 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 129 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524624
Book TitleTulsi Prajna 2005 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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