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________________ आता है तथा अन्तः बाह्य की एकरूपता समाप्त हो जाती है। फलतः मानसिक एवं सामाजिक शान्ति भंग होती है। सग्रह की मनोवृत्ति के कारण शोषण और व्यावसायिक जीवन में अप्रामाणिकता फलित होती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि श्रावक जीवन में कषाय-चतुष्टय पर जो नियंत्रण लगाने की बात कही गई है, वह सौहार्द एवं सामंजस्यपूर्ण जीवन एवं मानसिक तथा सामाजिक शान्ति के लिए आवश्यक है। उसकी प्रासंगिकता कभी भी नकारी नहीं जा सकती है। सप्त दुर्व्यसन-त्याग और उसकी प्रासंगिकता:___सप्त दुर्व्यसनों का त्याग गृहस्थ-धर्म की साधना का प्रथम चरण है। उनके त्याग को गृहस्थ आचार के प्राथमिक नियम या मूल गुणों के रूप में स्वीकार किया गया है। वसुनन्दि श्रावकाचार में सप्त दुर्व्यसनों के त्याग का विधान है। आज भी दुर्व्यसन-त्याग गृहस्थ धर्म का प्राथमिक एवं अनिवार्य चरण माना जाता है। सप्त दुर्व्यसन निम्न हैं - १ द्यूत-क्रीड़ा (जुआ) २ मांसाहार ३ मद्यपान ४ वेश्यागमन ५ परस्त्रीगमन ६ शिकार और ७ चौर्य-कर्म - इन सप्त दुर्व्यसनों के सेवन से व्यक्ति का कितना चारित्रिक पतन होता है, इसे हर कोई जानता है। १. द्यूत-क्रीड़ा- वर्तमान युग में सट्टा, लाटरी आदि द्यूत-क्रीड़ा के विविध रूप प्रचलित हो गये हैं। इनके कारण अनेक परिवारों का जीवन संकट में पड़ जाता है। अतः इस दुर्व्यसन के त्याग को कौन अप्रासंगिक कह सकता है। द्यूत-क्रीड़ा के त्याग की प्रासंगिकता के सम्बन्ध में कोई भी विवेकशील मनुष्य दो मत नहीं हो सकता। वस्तुतः वर्तमान युग में द्यूत-क्रीड़ा के जो विविध रूप हमारे सामने आये हैं, उनका आधार केवल मनोरंजन नहीं है। अपितु उसके पीछे बिना किसी श्रम के अर्थोपार्जन की दुष्प्रवृत्ति है। सटटे के व्यवसाय का प्रवेश जैन परिवारों में सर्वाधिक हुआ है। व्यक्ति जब इस प्रकार के धन्धे में अपने को नियोजित कर लेता है, तो श्रमपूर्वक अर्थोपार्जन के प्रति उसकी निष्ठा समाप्त हो जाती है। ऐसी स्थिति में चोरी, ठगी आदि दूसरी बुराइयाँ पनपती हैं। आज इसके प्रकट-अप्रकट विविध रूप हमारे समक्ष आ रहे हैं। उनसे सतर्क रहना आवश्यक है अन्यथा हमारी भावी पीढ़ी में श्रमपूर्वक अर्थोपार्जन की निष्ठा समाप्त हो जायेगी। यद्यपि इस दुर्गुण का प्रारम्भ एक मनोरंजन के साधन के रूप में होता है, किन्तु आगे चलकर भयंकर परिणाम उपस्थित कर सकता है। जैन समाज के सम्पन्न परिवारों में और विवाह आदि प्रसंगों पर इसका जो प्रचलन बढ़ता जा रहा है, उसके प्रति हमें सजग दृष्टि रखनी होगी अन्यथा उनकी दुष्परिणामों को भुगतना होगा। आज का युवा वर्ग जो इन प्रवृत्तियों में रस लेता है, इसके दुष्परिणामों को जानते हुए अपनी भावी पीढ़ी को इससे रोक पाने में असफल रहेगा। 30 - तुलसी प्रज्ञा अंक 129 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524624
Book TitleTulsi Prajna 2005 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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