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श्रावकाचार तब और अब
जितेन्द्र बी. शाह
जैन-धर्म में धर्म आराधना के दो प्रमुख मार्गों का कथन किया गया है। प्रथम मार्ग को अनगार या श्रमण मार्ग कहा गया है। प्रस्तुत मार्ग में साधक सभी सांसारिक बन्धनों का त्याग करके मात्र आत्म कल्याण की साधना में संलग्न रहता है। यह मार्ग आत्म कल्याण की दृष्टि से निश्चित ही श्रेष्ठ होते हुए भी सुलभ और सरल नहीं है। अतः सभी आत्म कल्याण के इच्छुक प्रस्तुत मार्ग के स्वीकार करने में समर्थ नहीं होते हैं। ऐसे साधकों के लिए दूसरे गृहस्थ मार्ग का भी कथन किया गया है। इसी मार्ग को श्रावक या श्रमणोपासक मार्ग कहा गया है। इसमें साधक यथाशक्ति त्याग करके आंशिक व्रत ग्रहण करता है। श्रावक को गृहस्थावस्था में रहते हुए आत्म कल्याण की साधना करनी होती है। अतः उसके लिए व्रताचार आदि का आंशिक आचरण आवश्यक माना गया है।
आज का युग स्पर्धा का युग है। साथ ही साथ बाह्य जगत् में जीवन के मूल्यों में काफी परिवर्तन आ गया है। हालांकि परिवर्तन एक सतत होने वाली प्रक्रिया है तथापि वर्तमान युग में श्रावकों के लिए जो परिवर्तन आया है, वह एक चुनौती रूप में है। आज सारे विश्व में मूल्यों का ह्रास होता जा रहा है। धन ही सर्वस्व बनता जा रहा है। धन प्राप्ति के लिए कोई भी मार्ग का आचरण करना-करवाना वर्ण्य नहीं रहा। तब श्रावक के लिए यह धर्म मार्ग अत्यंत दुष्कर बनता जा रहा है। श्रावक के आचारों का पालन करना - आचरण करना प्रायः मुश्किल बन गया है। अतः प्रस्तुत विषय में चर्चा आवश्यक बन गई है।
वर्तमान में जैन धर्मावलम्बियों के द्वारा वर्ण्य व्यापार के कारण जैन-धर्म का नाम कलंकित हुआ है। एक जमाने में समाज में जो श्रेष्ठी वर्ग सम्माननीय स्थान पर विराजित थे, आज उनका स्थान सामान्य जनता से भी नीचे उतरता जा रहा है। अब वह सम्मान व इज्जत नहीं रही है जो पहले के युग में जैन श्रेष्ठियों को मिलती थी। उसमें भी एक कारण उसके आचार में आई हुई गिरावट ही है।
तुलसी प्रज्ञा जुलाई ---दिसम्बर, 2005
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