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________________ शान्ति, अनुशासन बनाये रखने का दायित्व उस पर होता है। अतः उसे कुटुम्ब-जनों के साथ ऐसा व्यवहार करना चाहिए कि सभी व्यक्ति उसके व्यवहार से प्रसन्न रहें और अपनी जिम्मेदारियों का दृढ़तापूर्वक पालन करें। उपासकदशांग सूत्र में आनन्द श्रावक का वर्णन करते हुए कहा गया है- वह आनन्द गृहपति अनेक राजा, धनिक यावत् सार्थवाहों को बहुत से कार्यों में, सलाहों में, कुटुम्बों में, गुप्त बातों में, रहस्यों में, निश्चय में, व्यवहार में परामर्श देने वाला था। राज्य प्रमुख सब लोग आनन्द गृहपति से सभी विषयों में सलाह लिया करते थे। वह आनन्द गृहपति अपने कुटुम्ब का मुख्य प्रमाणभूत आधार, आलम्बन, चक्षुरूप तथा सब कार्यों की वृद्धि करने वाला था। श्रावक जीवन का लक्ष्य पारिवारिक सदस्यों का सर्वांगीण विकास करना है। विकास दो तरह का है-1. भौतिक विकास और 2. आध्यात्मिक विकास। भौतिक विकास के अन्तर्गत शारीरिक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि एवं सुख-समृद्धि के लिये अधिक से अधिक भौतिक वस्तुओं की परिमाणात्मक वृद्धि आती है। शारीरिक आवश्यकताओं एवं भोगवृत्तियों की पूर्ति के लिये मानव आर्थिक प्रयत्न करता है तथा अधिकाधिक भौतिक सुख-सुविधाओं के साधनों को एकत्रित करता है। पारिवारिक एवं विश्व की सुख-शान्ति भौतिक विकास में समाहित नहीं है, अतः गृहस्थ जीवन का अन्तिम लक्ष्य भौतिक विकास की प्राप्ति कभी नहीं हो सकता, क्योंकि न तो भौतिकसुख समृद्धि ही जीवन है और न भोगेच्छाओं की पूर्ति या सन्तुष्टि ही जीवन है। आध्यात्मिक विकास में स्वात्म का ज्ञान-श्रद्धान कर परमात्म पद की प्राप्ति के लिए पुरुषार्थों में वृद्धि साधनों का समावेश है। अत: गृहस्थ-जीवन का लक्ष्य है-संयम, त्याग, नियम, चारित्र व आत्मिक अनुभव के द्वारा जीवन की परमोत्कृष्ट स्थान की उपलब्धि करना। गृहस्थ के लिए उचित है कि वह धर्म और काम को यथायोग्य सेवन करता हुआ धन कमाये और व्यय करे। यदि त्रिवर्ग में विघ्न हो तो धर्म, अर्थ की रक्षा करे, क्योंकि इनकी रक्षा से काम की रक्षा स्वतः हो जायेगी। और यदि इन दोनों में विघ्न आये तो धर्म की रक्षा करे क्योंकि अर्थ व काम का मूल कारण धर्म ही है। धर्म से पुण्य होता है, पुण्य से अर्थ की प्राप्ति और अर्थ से काम अभिलषित भोगों की प्राप्ति होती है। पुण्यापुण्य के बिना अर्थ और काम नहीं मिलते। इस प्रकार धर्म ही अर्थ एवं काम का उत्पत्ति स्थान है। धर्म एक वृक्ष है, अर्थ उसका फल है और काम उसके फलों का रस है। यथा' पश्य धर्मतरोरर्थः फलं कामस्तु तद्रसः। सत्रिवर्गत्रयस्यास्य मूलं पुण्यकथाश्रुतिः ।। - जिनसेन, महापुराण, 2, 31-32 तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2005 - - 69 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524624
Book TitleTulsi Prajna 2005 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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