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लाटीसंहिता के कर्त्ता निकृष्ट से निकृष्ट श्रावक को भी व्रत के रूप में न सही तो कुलाचार के रूप में ही रात्रि भोजन न करना आवश्यक बतलाकर रात्रि भोजन की बुराइयां बतलाते हैं। वे लिखते हैं- "यह सब जानते हैं कि रात्रि में दीपक के निकट पतंगें आते ही हैं और वे हवा के वेग से मर जाते हैं। अतः उनके कलेवर जिस भोजन में पड़ जाते हैं वह भोजन निरामिष कैसे रहा तथा रात्रि में भोजन करने से युक्त-अयुक्त का विचार नहीं रहता अरे जहां मक्खी नहीं दिखाई देती वहां मच्छरों का तो कहना ही क्या? अतः संयम की वृद्धि के लिए रात्रि में चारों प्रकार के आहार का त्याग करना चाहिए। यदि उतनी सामर्थ्य न हो तो अन्न वगैरह का त्याग करना चाहिए।"
तत्त्वार्थवार्तिक में लिखा है 'जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश में स्फुट रूप से पदार्थ दिख जाते हैं तथा भूमिदेश, दाता का गमन, अन्न-पानादि गिरे हुए या रखे हुए स्पष्ट दिखाई देते हैं, उस प्रकार चन्द्र आदि के प्रकाश में नहीं दिखते अर्थात् रात्रि में चन्द्रमा
और दीपक का प्रकाश होते हुए भी भूमिदेश में स्थित पदार्थ स्पष्ट दृष्टिगोचर नहीं होते, इसलिए दिन में ही भोजन करना चाहिए।' सूर्य प्रकाश और आधुनिक विज्ञान
___ जब सूर्य प्रकाश की किरण किसी शीशे से गुजरती है तो उसमें सात रंग दिखाई पड़ते हैं जो वायलेट, नीला, बैंगनी, हरा, पीला, नारंगी और लाल होते हैं। ये रंग सूर्य प्रकाश के आंतरिक अंश व रूप हैं और स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद हैं। जीवन शक्ति प्रदायक प्राणतत्त्व का वे सर्जन करते हैं। वैज्ञानिक बताते हैं कि इसके अतिरिक्त सूर्य प्रकाश में Intra-red-ultra violet रंग की किरणें भी होती हैं । अल्ट्रावायलेट किरणे एक्सरे की तरह पुद्गल के भीतर तक घुसकर कीटाणुओं को नष्ट करने में समर्थ हुई हैं। यह किरणें रात में नहीं मिलती इसी कारण रात में कीड़े-मकोड़े आदि अधिक संख्या में निकलते हैं। इस प्रकार विज्ञान से भी यह सिद्ध है कि दिन का भोजन करना स्वास्थ्यवर्द्धक है और उसमें हिंसा भी कम है। इसके विपरीत रात्रि भोजन स्वास्थ्य घातक है और उसमें हिंसा भी अधिक है।
स्वास्थ्य और रात्रि भोजन विरमण व्रत :- स्वामी शिवानन्द ने अपनी Health and diet नामक पुस्तक के पृष्ठ 260 पर लिखा है- सांयकाल का भोजन हल्का और जल्दी कर लेना चाहिए। आवश्कयता ही हो तो सायंकाल सात बजने से पहले-पहले केवल फल और दूध लिये जा सकते हैं। सूर्यास्त हो जाने के बाद ठोस या तरल पदार्थ कभी नहीं लेना चाहिए।
तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2005
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