SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उदार एवं सहयोगी बनता है। आर्थिक विकास के साथ मानवता का विकास भी आवश्यक है, जिसमें परिग्रह परिमाण व्रत की महती भूमिका हो सकती है। 7. परिग्रह का परिमाण अनेक कारणों से मानव जाति के लिये लाभप्रद है, उसमें से कतिपय कारण इस प्रकार हैं 1. परिग्रह परिमाण मानव को आत्म संतोष एवं शान्ति प्रदान करता है। 2. अनन्त इच्छाओं को सीमित करने के कारण व्यक्ति मनोजयी, इन्द्रियजेता एवं आत्म-विजेता बनता है। 3. परिमाण से अधिक धन-सम्पदा होने पर उसका जनहित में उपयोग कर सकता है। 4. वह जगत् में अनेक लोकोपकारी कार्य कर पुण्य का संचय कर सकता है। 5. आरम्भ, मिथ्या भाषण, चौर्य, लाभ आदि दोषों से बचने के कारण आस्रव का निरोध कर कर्म बंधन से बचता है। 6. जहाँ आस्रव-निरोध रूप संवर की साधना होती है वहाँ पूर्वकृत कर्मों की निर्जरा भी सहज होने लगती है। 7. परिग्रह-परिमाण करने वाला व्यक्ति निर्धन वर्ग की ईर्ष्या का भाजन बनने से बच जाता है। 8. हृदय में उदारता की भावना को बल मिलता है, जो स्वयं को एवं दूसरों को प्रसन्न रखने में सहायक होती है। 9. परिग्रह का परिमाण सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय होता है, क्योंकि उसमें सम्पदा पर एकाधिपत्य की भावना का नाश हो जाता है। अपनी पूर्ति होने के पश्चात् सर्वकल्याण का भाव विकसित हो सकता है। सम्प्रति न केवल भारत में अपितु समस्त विश्व में बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, आतंकवाद और पर्यावरण प्रदूषण की समस्याएं मुँह बनाये खड़ी हैं। इन समस्याओं के निराकरण में भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित परिग्रह परिमाणव्रत एक सार्थक उपाय सिद्ध हो सकता है। बेरोजगारी एवं निर्धनता से पीड़ित व्यक्तियों को ईश्वर या भाग्य के भरोसे छोड़ना उचित नहीं है। उनके मन में असीम इच्छाओं की उत्पत्ति का उदाहरण प्रस्तुत करना भी समुचित नहीं है, किन्तु उनके लिए श्रमनिष्ठ आजीविका के साधनों का विकास तथा तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2005 - - 51 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524624
Book TitleTulsi Prajna 2005 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy