SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 55
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 4. वर्तमान आर्थिक युग में उपभोक्तावाद का प्रबल प्रभाव है। बड़ी बड़ी कम्पनियाँ या औद्योगिक प्रतिष्ठान अपने उत्पाद बेचने के लिए मनोवैज्ञानिक ढंग से दूरदर्शन, आकाशवाणी, अखबार, होर्डिंग आदि के माध्यम से ऐसा विज्ञापन करते हैं कि मानव की आवश्यकता न होने पर भी खरीदने का मन बन जाता है। यही नहीं, कम्पनियों द्वारा बिना ब्याज के किश्तों में उन उत्पादों को उपलब्धता से ग्राहकों को आकर्षित किया जाता है। बैंकों द्वारा प्रदत्त ऋण एवं कैशकार्ड भी इसमें अपनी भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं। उत्पादों में परस्पर स्पर्धा है, इसलिए ग्राहकों को आकर्षित कर आर्थिक कारोबार में तेजी लाई जाती है । मध्यम वर्ग का मानव आज अपनी आय से अधिक वस्तुओं को क्रय करने में अपनी प्रतिष्ठा समझने लगा है। घर पर उपलब्ध ये वस्तुएं मनुष्य की प्रतिष्ठा के मानदण्ड समझे जा रहे हैं। जिसके पास सुविधाओं का अम्बार है, उसे उतनी ही अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त है। इससे मानव की असंतुष्टि का ग्राफ निरन्तर ऊँचा जा रहा है। पहले जहाँ एक स्कूटर से व्यक्ति संतुष्ट था, वहाँ वह एक कार से असंतुष्ट है। अब उसे घर के प्रत्येक सदस्य के लिए अलग-अलग कारें चाहिए। वे भी सामान्य नहीं, वातानुकूलित चाहिए। वे भी नये मॉडल निकलने पर फिर बदल ली जाती है। मोबाइल फोन का विस्तार तेजी से हो रहा है । यहाँ पर दो बिन्दु उभर कर आते हैं। जितना सुविधाओं का विस्तार या विकास होता है, मनुष्य का सन्तोष उतना ही दूर जाता रहता है। यदि परिमाण या नियंत्रण करके चलता है तो वह सदैव संतुष्ट रहता है। दूसरा बिन्दु यह है कि वैज्ञानिक साधनों एवं सुविधाओं से मनुष्य की कार्य क्षमता बढ़ी है, इस दृष्टि से इनकी उपयोगिता है । किन्तु उन सुविधाओं ने उसको पराधीनता में ही जकड़ा है तथा उसके शारीरिक स्वास्थ्य को प्रभावित किया है। 5. आर्थिक विकास को ही केन्द्र में रखा जाए एवं न्याय-नीति को गौण कर दिया जाए तो अनेक दोष उत्पन्न होते हैं । यथा - अनैतिकता, भ्रष्टाचार, असंयम, लोभ, वस्तुओं की दासता, शोषण, मिलावट, तस्करी, कालाबाजारी, धोखाधड़ी आदि । इसके विपरित यदि मानव हित को लक्ष्य में रख कर परिग्रह की मर्यादा को प्रोत्साहन दिया जाए तो उपर्युक्त दोषों में निश्चित रूप से कमी आ सकती है। - 6. मात्र अर्थ केन्द्रित विकास मनुष्य की वृत्तियों को पशुत्व की ओर ले जा सकता है। वह उसे संवेदनाशून्य, क्रूर एवं स्वार्थी बनाता है । किन्तु परिग्रह - परिमाण व्रत का प्रभाव दूसरा ही है । यह मनुष्य को जीवन मूल्यों से जोड़े रखता है, जिससे वह अपनी दुष्प्रवृत्तियों पर नियंत्रण करने के साथ जगत् के अन्य प्राणियों के प्रति संवेदनशील, तुलसी प्रज्ञा अंक 129 50 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524624
Book TitleTulsi Prajna 2005 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy