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________________ प्रयत्नशील हैं । इसलिए समाज अपनी शक्तियों को विकसित करता रहे तो आत्मकल्याण में कोई बाधा नहीं है । मानवीय चेतना के विकास में धार्मिक परम्पराओं और अनुष्ठानों का विशेष महत्त्व रहता है और इन सबका निर्वाह करने वाली है- नारी । पत्नी रूप में नारी को विविध क्षेत्रों में कई काम करने होते हैं। वह पति की जीवन संगिनी और सहधर्मिणी है । उसके लिए प्रेम - फुहार भी है और शक्ति की तलवार भी । कुल मर्यादा धर्मरक्षा की पालना के लिए नारी सदा तत्पर रहती है। जननी, पत्नी, भगिनी और पुत्री के रूप में नारी सदैव पुरुषों के लिए प्रेरणा रही है । तपस्या में लीन बाहुबली के अभिमान को चूर करने वाली बहिनें भगवान ऋषभदेव की दो पुत्रियां ब्राम्ही और सुन्दरी ही थीं। शास्त्रों में ऐसे कई उदाहरण आते हैं। जहां माता और पत्नी के रूप में नारी अपने पुत्र और पति को धर्म - मार्ग से विचलित होने पर साधना में सुदृढ़ करने के लिए प्रेरक प्रतिबोध देती है। महासती राजमती का आदर्श आज भी हमारे लिए प्रेरणादायक है। जब नेमिनाथ के छोटे भाई रथनेमि मुनि अवस्था में उस साध्वी राजमती पर आसक्त होकर अपने संयम पद से विचलित होते हैं तो वह सती राजमती उन्हें उद्बोधित करके पुनः साधना पथ में प्रतिष्ठित करती है । संयमवती राजमती का उद्बोधन पाकर अंकुश से जैसे हाथी अपने स्थान पर आ जाता है वैसे ही वह मुनि रथनेमि भी चरित्र - धर्म में स्थिर हो जाता है । श्राविका नारियों के सम्बन्ध में पूज्य गणिनी ज्ञानमति माताजी ने कहा है कि जो महिलाएं गृहस्थाश्रम में रहते हुए सम्यग्दर्शन को धारण कर श्रद्धावती, सम्यग्ज्ञान से सहित हो विवेकवती और सम्यक् चारित्र को अणुव्रत-रूप एकदेश ग्रहण कर क्रियावती हो जाती हैं वे ही श्राविका कहलाती हैं । ये श्राविकाएं पति के साथ धर्मानुगामिनी होकर जिनेन्द्र देव की पूजा, गुरुओं को आहार- दान, शील, उपवास आदि श्रावक-धर्म की क्रियाओं में तत्पर रहती हैं। ऐसी श्राविकाओं से ही गृहस्थाश्रम मोक्षमार्ग बन जाता है । वास्तव में जो श्राविकाएं सुशिक्षित हैं, वे अपनी संतान को सुयोग्य सांचे में ढाल सकती हैं, क्योंकि माताओं की गोद ही बच्चों के लिए प्रारम्भिक पाठशाला है। माताएं बच्चों को प्रारम्भ से ही लाड़-प्यार के साथ धर्म की घूंटी पिला-पिलाकर उन्हें संस्कारों से हृष्ट-पुष्ट बना सकती हैं। रसोई की शुद्धता : संस्कृति की रक्षा 122 72 श्रावकाचार में जो शुद्धि का निर्देष है कि खान-पान में हाथ यदि चिकने या सने तुलसी प्रज्ञा अंक 129 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524624
Book TitleTulsi Prajna 2005 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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