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________________ जन्म दे रहा है। इन मूल्यों को गढ़ने में वह किसी आचार शास्त्र की मदद नहीं ले रहा है बल्कि बिना किसी नये आचार शास्त्र की रचना किये वह मानसिक रूप से और प्रयोगिक भूमि पर युगानुकूल नयी भावनाओं को पाल रहा है। स्थूल रूप से औसतन श्रावक इसे ही मान रहे हैं । अनित्य, अशरण इत्यादि बारह भावनाओं को बहुत ऊंचे आसन पर सम्मान पूर्वक बिठाकर खुद निम्न लिखित भावनायें कर रहा है : 1. मैं आध्यात्मिक होना चाहता हूँ किन्तु असामाजिक नहीं । मैं निर्लोभी होना चाहता हूँ किन्तु गरीब नहीं । 2. 3. मैं अव्यभिचारी बनना चाहता हूँ किन्तु ब्रह्मचारी नहीं । 4. 5. मैं भगवान बनना चाहता हूँ किन्तु अमानव नहीं। मैं नीतिज्ञ बनना चाहता हूँ किन्तु राजनीतिज्ञ नहीं । मैं रिश्वत लेना छोड़ सकता हूँ लेकिन देना नहीं । 6. 7. मैं अहिंसक बनना चाहता हूँ लेकिन कायर नहीं । 8. मैं अभिमान छोड़ना चाहता हूँ किन्तु स्वाभिमान नहीं । 9. मैं दान कर सकता हूँ किन्तु इकट्ठा करने की भावना नहीं छोड़ सकता । 10. मैं शाकाहारी रह सकता हूँ किन्तु होटलों में खाना नहीं छोड़ सकता । 11. मैं धार्मिक कार्यों के लिए पैसा दे सकता हूँ किन्तु समय नहीं । 12. मैं शक्ति अनुसार व्रतों को पा सकता हूँ किन्तु मजबूरी पूर्वक ढो नहीं सकता । एकता की समस्या और हमारी सोच: श्रावकाचार के सार्थक अस्तित्व की तलाश में एकता एक महत्वपूर्ण घटक है। खासकर आज जैसे वातावरण में कौमी एकता एक आवश्यक तत्त्व है। एकता के नाम पर हमने बहुत नारे लगाये हैं किन्तु सच तो यह है कि प्रत्येक पंथ का अनुयायी अन्दर ही अन्दर अन्य पंथ के अनुयायियों को घोर एकान्तवादी, वज्र मिथ्यादृष्टि और जिन धर्म का ह्रास करने वाला समझते हैं। हमारे लिए एकता की परिभाषा यह है कि शेष सभी पंथों और परम्पराओं का हमारी परम्परा में विलय हो जाये । वास्तविकता यह है कि एकता की कल्पना ही हमारे विघटन का मूल कारण है। अस्तित्व के संकट का सामना करने के लिए समस्त जैन पंथों, परम्पराओं, जातियों का एकजुट होना जरूरी भी है परन्तु इस समरसता का अर्थ परम्पराओं और संस्कृतियों की विविधता का ह्रास नहीं है । आवश्यकता है परम्पराओं और संस्कृतियों के सह अस्तित्व के नये आधार की । समान लक्ष्यों की तुलसी प्रज्ञा जुलाई - दिसम्बर, 2005 Jain Education International For Private & Personal Use Only 59 www.jainelibrary.org
SR No.524624
Book TitleTulsi Prajna 2005 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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