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वर्तमान युग में साधु साध्वियों के आचार में जो शिथिलता होती जा रही है, उसका एक मात्र कारण यही है कि गृहस्थवर्ग मुनि आचार से अवगत न रहने के कारण अपने उपर्युक्त कार्य को भूल गया है। आज हमें इस बात को बहुत स्पष्ट समझ लेना होगा कि जैन धर्म और संस्कृति की रक्षा का दायित्व मुनि वर्ग की अपेक्षा गृहस्थ वर्ग पर ही अधिक है और यदि वह अपने इस दायित्व की उपेक्षा करेगा, तो अपनी संस्कृति एवं धर्म की सुरक्षा करने में असफल रहेगा।
यह तो हुआ केवल समाज या संघ व्यवस्था की दृष्टि से श्रावक वर्ग का महत्त्व एवं उत्तरदायित्व किन्तु न केवल सामाजिक दृष्टि से अपितु आध्यात्मिक एवं साधनात्मक दृष्टि से भी गृहस्थ का स्थान उतना निम्न नहीं है, जितना कि सामान्यतया मान लिया जाता है। सूत्रकृतांग (२.२.३१) में स्पष्ट रूप में निर्देश है कि 'आरम्भ नो आरम्भ' (गृहस्थधर्म) का यह स्थान भी आर्य है तथा समस्त दुःखों का अन्त करने वाला मोक्ष मार्ग है। यह जीवन भी पूर्णतया सम्यक् एवं साधु है। मात्र यही नहीं, उत्तराध्ययन सूत्र (४.२०) में तो स्पष्ट रूप से यहाँ तक कह दिया है कि चाहे सभी सामान्य गृहस्थों की अपेक्षा श्रमणों को श्रेष्ठ मान लिया जाये किन्तु कुछ गृहस्थ ऐसे भी हैं जो श्रमणों की अपेक्षा संयम के परिपालन में श्रेष्ठ होते हैं। बात स्पष्ट और साफ है कि आध्यात्मिक साधना का सम्बन्ध न केवल वेश से है और न केवल आचार के बाह्य नियम से । यद्यपि समाज या संघ व्यवस्था की दृष्टि में बाह्य आचार नियमों का पालन आवश्यक है। उत्तराध्ययन सूत्र (३६.४१) में स्पष्ट रूप से यह बात भी स्वीकार कर ली गई है कि गृहस्थ जीवन से भी निर्वाण को प्राप्त किया जा सकता है। इस संदर्भ में मरू देवी और भरत के उदाहरण लोकविश्रुत हैं। यदि गृहस्थ धर्म से भी परिनिर्वाण या मुक्ति संभव है तो इस विवाद का कोई अधिक मूल्य नहीं रह जाता कि मुनि धर्म और गृहस्थ धर्म में साधना का कौन सा मार्ग श्रेष्ठ है। वस्तुतः आध्यात्मिक विकास के क्षेत्र में श्रेष्ठता और निम्नता का आधार आध्यात्मिक जागरूकता, अप्रमत्तता और निराकुलता है। जिसने अपनी विषय वासनाओं और कषायों पर नियंत्रण पा लिया है, जिसका चित्त निराकुल और शान्त हो गया है, जो अपने कर्तव्यपथ पर पूरी ईमानदारी से चल रहा है, फिर चाहे वह गृहस्थ हो या मुनि, उसकी आध्यात्मिक श्रेष्ठता में कोई अन्तर नहीं पड़ता। आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में न तो वेश महत्त्वपूर्ण है और न बाह्य आचार अपितु उसमें महत्त्वपूर्ण है अन्तरात्मा की निर्मलता और विशुद्धता। अन्त:करण की निर्मलता ही साधना का मूलभूत आधार है। गृहस्थ धर्म की श्रेष्ठता का प्रश्न :
गृहस्थ धर्म और मुनि धर्म में यदि साधना की दृष्टि से हम श्रेष्ठता की बात करें
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तुलसी प्रज्ञा अंक 129
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