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________________ विविध आचार्यों ने श्रावक के विविध कर्तव्यों का उल्लेख करते हुए विविध लक्षण प्रस्तुत किए हैं। रयणसार में उसके दो कर्तव्य माने हैं। जिनमें चार प्रकार का दान देना और देव-शास्त्र-गुरु की पूजा करने का उल्लेख है। कषायपाहुउ में उसके चार कर्तव्यों का वर्णन है जिसमें दान, पूजा, शील और उपवास का समावेश है। कुरल काव्य में उसके पांच कर्तव्यों का उल्लेख है जिसमें पूर्वजों की कीर्ति की रक्षा, देवपूजन, अतिथि सत्कार, वंधु-बांधवों की सहायता और आत्मोन्नति को माना है। चारित्रसार में उसके छह कर्तव्यों का उल्लेख किया गया है - इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप कहा गया है पद्मनंदी पंचविंसतिका में देव पूजा, गुरु सेवा, स्वाध्याय, संयम तप और दान- इन छह कर्तव्यों की प्रमुखता मानी गई है जबकि अमितगति श्रावकाचार में सामायिक, स्तवन, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, उपसर्ग विजय- ऐसे छह प्रकार के आवश्यक माने हैं। श्रावक के अन्य कर्तव्यों में तत्त्वार्थ सूत्र कहता है कि श्रावक मारणान्तिक सल्लेखना का प्रीतिपूर्वक सेवन करने वाला होता है । वसुनंदी श्रावकाचार में उल्लेख है कि श्रावकों को अपनी शक्ति अनुसार यथायोग्य, विनय, वैय्यावृत्य, कायक्लेश और पूजन विधान करना चाहिए। पं. वि. में कहा है कि पर्व के दिनों में यथाशक्ति भोजन के त्याग रूप अनसनादि तपों को करना चाहिए तथा वस्त्र से छना जल पीना चाहिए। पंचपरमेष्ठियों तथा रत्नात्रय के धारकों की विनय करनी चाहिए। महापुरुषों की अनुप्रेक्षाओं का चिंतन करना चाहिए और आगमानुसार दस धर्मों का पालन करना चाहिए। सागार धर्मामृत में भी ऐसी चर्चा है। पंचाध्यायी में यह भी लिखा है कि शक्ति के अनुसार मंदिराहि बनवाना चाहिए, तीर्थयात्रा करनी चाहिए। लाटीसंहिता में उल्लेख है कि अहिंसाणुव्रत की रक्षा के लिए पांच समिति तथा तीन गुप्तियों का एक देशरूप पालन करना चाहिए। इन गुणों का जिनमें समावेश नहीं है वे श्रावक कुल में जन्म लेने पर भी श्रावक नहीं कहला सकते। वास्तव में जिनके मन, वचन, कर्म सर्व में अहिंसा की प्रमुखता है वही श्रावक है। अतः श्रावक को न तो ऐसा भोजन-पान करना चाहिए, न ऐसा व्यापार करना चाहिए, न ऐसा व्यवहार करना चाहिए जिसमें यत्किंचित् भी हिंसा हो। इसी प्रकार सत्य, अचौर्य, शील और अपरिग्रह को धारण करना चाहिए। वास्तव में श्रावक के लिए जिन व्रतों का एकदेश पालन करने का शास्त्रों में उल्लेख है वह यदि हम विशाल दृष्टि से देंखे तो मानव को मानव बनाने वाले कार्य हैं। जिस प्रकार हम जीना चाहते हैं उसी प्रकार सभी प्राणी जीना चाहते हैं। एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के समस्त प्राणी जिनमें जिजीविषा के भाव हैं वे सभी जीने के तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2005 - 1 77 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524624
Book TitleTulsi Prajna 2005 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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