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________________ श्रावकाचार और रात्रि भोजन विरमण व्रत -डॉ. अशोक कुमार जैन 'चारित्तं खलु धम्मो' चारित्र ही धर्म है और वह चारित्र मनि और श्रावक के भेद से दो प्रकार का है। जो यह जानते हुए भी कि सांसारिक विषयभोग हेय है, मोहवश उन्हें छोड़ने में असमर्थ होता है वह गृह में रहकर श्रावकाचार का पालन करता है। श्रावकाचार का मतलब होता है- जैन गृहस्थ का धर्म। जैन गृहस्थ को श्रावक कहते हैं । इसका प्राकृत रूप 'सावग' होता है। जैन श्रावक के लिए उपासक शब्द भी व्यवहत होता है। प्राचीन आगमों में से जिस आगम में श्रावक धर्म का वर्णन था उसका नाम ही उपासकाध्ययन था। गृहस्थ को संस्कृत में 'सागार' भी कहते हैं । अगार' कहते हैं गृह को, उसमें जो रहे सो सागार है अतः गृहस्थ धर्म को सागार धर्म भी कहते हैं। श्रावक शब्द के अर्थ का प्रतिपादन करते हुए लिखा है संपत्तंसणाई पइदियह जइजणा सुणेई य। सामायारि परमं जो खलु तं सावगं विन्ति ॥ श्रावक प्रज्ञप्ति 2 जो सम्यग्दर्शन आदि को प्राप्त करके प्रतिदिन मुनि जन से उत्कृष्ट सामाचारी को सुनता है उसे श्रावक कहते हैं। मूलोत्तरगुणनिष्ठामधितिष्ठन् पंचगुरुपदशरण्यः। दानयजनप्रधानो ज्ञानसुधां श्रावकः पिपासुः स्यात्॥ उपर्युक्त श्लोक के विशेषार्थ में लिखा है- जो गुरु आदि से धर्म सुनता है वह श्रावक है अर्थात् एकदेश संयम के धारी को श्रावक कहते हैं। श्रावक के आठ मूलगुण और बारह उत्तरगुण होते हैं। उत्तरगुणों के प्रकट होने में निमित्त होने से तथा संयम के अभिलाषियों के द्वारा अपने पाले जाने के कारण मूलगुण कहे जाते हैं और मूलगुणों के बाद सेवनीय होने से तथा उत्कृष्ट होने से 82 - तुलसी प्रज्ञा अंक 129 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524624
Book TitleTulsi Prajna 2005 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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