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________________ अमूल्य निधि प्रदान कर सकता है, वह अर्थ के असीम अभिलाषा को कभी भी प्राप्त नहीं हो सकती । परिग्रह परिमाण व्रत न केवल व्यक्ति की आत्मिक शान्ति, सन्तोष एवं सुख के लिये आवश्यक है, अपितु समाज के सन्तुलित विकास एवं राष्ट्र की समृद्धि के लिए भी आवश्यक है । यह अर्थशास्त्री के बीज एवं मार्क्स की मान्यताओं से हटकर मानव के आभ्यन्तर एवं बाह्य दोनों प्रकार की सम्पन्नता प्रदान करता है। अर्थ के साथ गृहस्थ जीवन का घनिष्ट सम्बध होते हुए भी तनाव रहित जीवन जीने के लिये परिग्रह का परिमाण आवश्यक है । जो असीमित इच्छाओं के लोक में विचरण करता है वह अतृप्त एवं अशान्त बना रह कर दुःख के सागर में डुबकियाँ लगाता रहता है । मस्तिष्क विविध चिन्ताओं की चिता में दग्ध होता रहता है । अर्थ प्राप्ति की अन्धी असीमित दौड़ में मानव जिनके लिए धन कमाता है, वह उनके लिये समय नहीं निकाल पाता है । अर्थ-संग्रह की असीमित दौड़ वाले के लिये आगम-वचन है कसिणं पि जो इमं लोयं पडिपुण्णं दलेज्ज इक्कस्स । तेणावि से ना संतुस्से, इइ दुप्पूरए इमे आया ॥' यदि किसी व्यक्ति को समस्त लोक भी दे दिया जाए, तो उससे भी वह सन्तुष्ट नहीं हो सकता, इसलिए मानव को अपने लक्ष्य का सीमाकरण कर लेना चाहिए। आनन्द, कामदेव आदि श्रावकों ने भगवान महावीर के समक्ष परिग्रह - परिमाण व्रत अंगीकार कर स्वयं को प्रशम सुख के मार्ग पर प्रस्थित कर लिया था । उपासकदशांग सूत्र में आनन्द आदि श्रावकों ने हिरण्य - सुवर्ण, चौपाए पशु, क्षेत्र वस्तु, शकट विधि, वाहन विधि आदि का परिमाण किया था । ऐसा करके उन्होंने अपने जीवन को अनेक चिन्ताओं से मुक्त बना लिया था। प्रश्न व्याकरण सूत्र में कहा है नत्थि एरिसो पासो पडिबंधो अत्थि, सव्व जीवाणं सव्वलोए । समस्त संसार में परिग्रह के समान प्राणियों के लिए कोई जाल या बन्धन नहीं है । परिग्रह का अर्थ बाह्य और भौतिक वस्तुओं का संग्रह नहीं है । परिग्रह का तात्पर्य है मूर्च्छा - मूर्च्छा परिग्गहो वुत्तो ।' मूर्च्छा का तात्पर्य ममत्व या आसक्ति भाव है। पर वस्तु में अपना ममत्व या स्वामित्व समझना परिग्रह है । यह व्यक्ति को चारों ओर से जकड. लेता है । इसलिए इसे परिग्रह कहा है । आगम में परिग्रह को दुःख एवं बंधन का कारण प्रतिपादित किया गया है ―― तुलसी प्रज्ञा जुलाई - दिसम्बर, 2005 Jain Education International For Private & Personal Use Only 47 www.jainelibrary.org
SR No.524624
Book TitleTulsi Prajna 2005 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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