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परिग्रह परिमाण व्रत आज भी प्रासंगिक है
डॉ. धर्मचन्द जैन
आज जहाँ वस्तुओं की सुलभता,धन की प्रचुरता, साधनों की सुविधा आदि को व्यक्ति एवं राष्ट्र के विकास का मानदण्ड समझा जा रहा है वहां परिग्रह-परिमाण व्रत की चर्चा की क्या कोई प्रासंगिकता है, यह विचार का विषय है। आज के युग से हम सब परिचित हैं। यह युग वैज्ञानिक विकास के साथ आर्थिक विकास का युग है। आज समस्त विकास अर्थ केन्द्रित है। आई.आई. टी. में जाने वाले छात्र हो या आई. ए. एस. में, डॉक्टर बनना हो या वकील, इंजीनियर बनना हो या उद्योगपति-सबके केन्द्र में अर्थ है। अर्थ को जीवन-स्तर के सुधार का आधार माना जाता है। देश की निर्धनता दूर हो, प्रतिव्यक्ति आय का अनुपात बढ़े एवं सबके जीवन जीने का स्तर ऊंचा उठे, तभी विकास की मंजिल तय हो सकती है। इस सबके मूल में आर्थिक समृद्धि या आर्थिक विकास को आधार माना जाता है। उद्योग अब लघु स्तर की अपेक्षा वृहद् स्तर पर, राष्ट्रीय स्तर की अपेक्षा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार पाते जा रहें हैं। शिक्षा एवं बौद्धिक क्षमताओं का भी उपयोग अर्थव्यवस्था के विकास में ही किया जाना अपेक्षित समझा जाता है। प्राकृतिक सम्पदा हो या वैज्ञानिक उत्पाद, सबके दोहन और शोषण को व्यापार का हिस्सा बनाया जाता है। अर्थ केन्द्रित व्यक्ति, समाज, राष्ट्र एवं विश्व के समक्ष महावीर द्वारा श्रावक समाज के लिए प्रतिपादित परिग्रह-परिमाण व्रत कितना प्रासंगिक रह गया है, यह एक विचारणीय बिन्दु है। परिग्रह-परिमाणव्रत तो बाह्य धन सम्पदा के स्वामित्व की सीमा बांधता है और यह युग आर्थिक समृद्धि की ओर अग्रसर है। दोनों में परस्पर विरोध प्रतीत होता है। किन्तु चिन्तन करने पर ज्ञात होता है कि परिग्रह परिमाण व्रत की भूमिका मानव की आध्यात्मिक शान्ति के साथ समुचित आर्थिक विकास में भी सहयोगी हो सकती है। परिग्रह का परिमाण मानव को जो
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तुलसी प्रज्ञा अंक 129
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