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________________ साधकों और समाज के असहाय एवं अभावग्रस्थ व्यक्तियों के भरण पोषण का दायित्व भी है। प्रस्तुत व्रत का उद्देश्य गृहस्थ में सेवा और दान की वृत्ति को जागृत करना है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। हमारा जीवन पारस्परिक सहयोग और सहभागिता के आधार पर ही चलता है। दूसरों के सुख-दुःख में सहभागी बनना और अभावग्रस्तों, पीड़ितों और दीन दुःखियों की सेवा करना यह गृहस्थ का अनिवार्य धर्म है। यद्यपि आज इस प्रवृत्ति को भिक्षावृत्ति को प्रोत्साहन देने वाली मानकर अनुपयुक्त कहा जा सकता है, किन्तु जब समाज में अभावग्रस्त, पीड़ित और रोगी व्यक्ति है -सेवा और सहकार की आवश्यकता अपरिहार्य रूप से बनी रहेगी और यदि शासन इस दायित्व को नहीं सम्भालता है तो यह प्रत्येक गृहस्थ का कर्तव्य है कि वह दान और सेवा के मूल्यों को जीवित बनाये रखे। यह प्रश्न मात्र दया या करुणा का नहीं,अपितु दायित्व बोध का है। उपसंहार जैन धर्म के श्रावक-आचार की उपर्युक्त समीक्षा करने के पश्चात् यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन श्रावकों के लिए प्रतिपादित आचार के नियम वर्तमान सामाजिक सन्दर्भो में भी प्रासंगिक सिद्ध होते हैं। श्रावक-आचार के विधि-निषेधों में युगानुकूल जो छोटेमोटे परिवर्तन अपेक्षित हैं उन पर विचार किया जा सकता है और युगानुकूल श्रावक धर्म की आचार विधि आगमिक नियमों को यथावत् रखते हुए बनाई जा सकती है। आज हमारा दुर्भाग्य है कि आचार-विधि पर कोई गम्भीरतापूर्वक विचार नहीं किया जाता। __आज यह मान लिया जाता है कि आचार सम्बन्धी विधि-निषेध मनियों के सन्दर्भ में ही है। गृहस्थों की आचार विधि ऐसी है या ऐसी होनी चाहिए, इस बात पर हमारा कोई ध्यान नहीं जाता । यद्यपि जमीकन्द खाना चाहिए या नहीं खाना चाहिए ऐसे छोटे-छोटे प्रश्न उठा लिये जाते हैं किन्तु श्रावक आचार की मूल दृष्टि क्या हो और उसके लिए युगानुकूल सर्वमान्य आचार विधि क्या हो? इस बात पर हमारी कोई दृष्टि नहीं जाती। यह शुभ संकेत है कि जैन विश्व भारती ने इस प्रश्न को लेकर एक विचार-गोष्ठी आयोजित की। यद्यपि यह एक प्रारम्भिक बिन्दु है किन्तु मुझे विश्वास है कि यह प्राथमिक प्रयास भी कभी वृहद् रूप लेगा और हम अपने श्रावक वर्ग की एक युगानुकूल आचार विधि दे पाने में सफल होंगे। 35 ओसवालसेरी शाजापुर (म.प्र.) 465 001 तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2005 - - 45 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524624
Book TitleTulsi Prajna 2005 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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