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होता हुआ जो सम्यक्दृष्टि व्यक्ति किसी एक स्थान को धारण करता है उसको श्रावक मानता हूँ अथवा उस श्रावक को श्रद्धा की दृष्टि से देखता हूँ जो श्रद्धा पूर्वक गुरु आदि से धर्मशरण करता है वह श्रावक है।
___ आचार्यों ने श्रावकों के भी चार भेद किये हैं- 1. पाक्षिक, 2. चर्या, 3. नैष्ठिक और 4. साधक।
पाक्षिक श्रावक वह गृहस्थ है जो जिनेन्द्र देव संबंधी आज्ञा को श्रद्धान करता हुआ हिंसा को छोड़ने के लिए सबसे पहले मद्य, मांस, मधु और पंच उदंबर फलों को छोड़ देता है। शक्ति और सामर्थ्य को नहीं छिपाने वाला पाक्षिक श्रावक पाप के डर से स्थूल हिंसा, स्थूल झूठ, स्थूल चोरी, स्थूल कुशील और स्थूल परिग्रह के त्याग का अभ्यास करे। पाक्षिक श्रावक देवपूजा, गुरु-उपासना आदि कार्य शक्ति के अनुसार करता है। वह रात्रि भोजन का त्यागी होता है। पर्व के दिनों में पौषधोपवास करता है। संकल्पी आदि हिंसा नहीं करता है और उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त करता हुआ प्रतिमा धारण करता है और मुनिपथ पर आरूढ़ होता है। वह मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भाव में वृद्धि करता हुआ समस्त हिंसा का त्याग करता है।
चर्या श्रावक धर्म के लिये, किसी देवता के लिए, किसी मंत्र की सिद्धि के लिए, औषधि के लिये या भोगोपभोग के लिए कभी हिंसा नहीं करता। यदि कभी ऐसा हो जाये तो प्रायश्चित्त करता है। परिग्रह का त्याग करने के सयम अपने घर, धर्म और अपने वंश में उत्पन्न हुए पुत्र आदि का समर्पण कर जब तक वे घर का त्याग करते हैं तब तक उनकी चर्या कहलाती है। यह चर्या दार्शनिक से अनुमति विरत प्रतिमा पर्यन्त होती है।
नैष्ठिक श्रावक :- देश संयम का घात करने वाली कषायों से क्षयोपशम की क्रमश: वृद्धि के वश से श्रावक के दार्शनिक आदि 11 संयन स्थानों के वशीभूत और उत्तम लेश्या वाला व्यक्ति नैष्ठिक कहलाता है।
साधक श्रावक :- जो श्रावक प्रसन्न होता हुआ जीवन के अंत में अर्थात् मृत्यु के समय शरीर, भोजन, मन-वचन-काय के व्यापार के त्याग से पवित्र ध्यान के द्वारा आत्मा की शुद्धि की साधना करता है।
जैसा कि हम जानते हैं कि श्रावक गृहस्थ अवस्था का ही नाम है। कुरल काव्य में कहा गया है कि 'यदि मनुष्य गृहस्थ के समस्त कर्तव्यों को उचित रूप से पालन करे तब उसे दूसरे आश्रमों के धर्म के पालन की क्या आवश्यकता है?' जो गृहस्थ दूसरे
तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2005
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