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________________ चोरी न करना, व्यभिचार न करना एवं परिग्रह न रखना। इन पाँचों को गृहस्थ का धर्म इसलिए स्वीकार करते हैं कि समाज में मुख्य रूप से बैर और विरोध की जनक हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील व्यभिचार आदि पाँच क्रियाएँ हैं। साथ ही गृहस्थ जीवन में यदि इन क्रियाओं में परिष्कार सम्भव हो सका तो आगे साधना में प्रविष्ट हुआ जा सकता है। जितने अंश में व्यक्ति इनका पालन करने लगेगा उतना ही वह सामाजिक एवं नि:स्वार्थ होता जायेगा। अतः इन पाँच व्रतों का विधान वैयक्तिक और सामाजिक शोधन की दिशा में अपना विशेष महत्त्व रखता है। गृहस्थों के लिए इन व्रतों को उनकी सामर्थ्य के अनुसार पालन करने को कहा गया है। सम्भवतः गृहस्थों का चित्त इतना ही समर्थ हो पाता होगा कि वे इन व्रतों के पालन में प्रवेश कर सकें । इन व्रतों की पूर्णता तो साधु जीवन में ही की जा सकती है। जैन परम्परा में शब्दों पर कम और अर्थ पर अधिक जोर दिया गया है। दूसरी बात यह है कि तीर्थंकर महावीर बहुत गहरे चिंतक थे। वे मूल को पकड़ते थे। फल आना जिनमें अनिवार्य हो जाता था, अतः उन्होंने इन पांच अणुव्रतों की व्याख्या एकदम दूसरे ढंग से की है जो अधिक ग्राह्य और मजबूती की पकड़ है। जैन साधकों का अनुभव था कि यदि स्वानुभूति का विस्तार किया जाये तो हिंसा स्वयमेव तिरोहित हो जायेगी। हिंसा होती ही दूसरों के साथ है। जब तक बाहर दूसरा बना रहेगा, हिंसा की सम्भावना बनी रहेगी। दूसरे को सुख पहुंचाने की बात जब तक हम सोचते रहेंगे, अहिंसक नहीं हो सकते हैं, क्योंकि हमारा सुख पहुँचाना भी उन्हें पीड़ा दे सकता है। अतः जब तक हम दूसरे भाव को ही न मिटा दें, अहिंसा प्रकट नहीं होगी और दूसरा तब तक दिखाई पड़ता रहेगा जब तक आप स्वयं को न पहिचान लें। अत: तीर्थंकर महावीर ने बहुत छोटी सी परिभाषा दी है- आत्म-ज्ञान अहिंसा और आत्मअज्ञान हिंसा है। अन्य व्रतों के सम्बध में भी जैन साधकों का दृष्टिकोण अधिक विशाल है । सत्य का पालन मात्र झूठ बोलने से बचना नहीं है, ऐसा तो कोई भी दोहरे व्यक्तित्व वाला व्यक्ति अभ्यास से कर सकता है किन्तु उसे व्रती नहीं कहा जा सकता है और न ही उससे फलित होगा जो सत्य को हृदयंगम करने वाले से होना चाहिए, अतः सत्यव्रती का अर्थ है कि जगत् की सत्यता- यथार्थता को जान लेना, तत्त्व ज्ञान से परिचित होना । जब व्यक्ति को यह पता चल जाये कि मेरे अस्तित्व की सार्थकता क्या है तथा मेरा और जगत् का क्या संबंध है तो वह झूठ नहीं बोल सकता। असत्य किसी न किसी लालच की तीव्रता के कारण से बोला जाता है। उस कामना की वास्तविकता जब समझ में आ जाये 6 - तुलसी प्रज्ञा अंक 129 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524624
Book TitleTulsi Prajna 2005 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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